गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

फिर कोतुहल

बहुत दिनों से कुछ लिखना चाहता हूँ। कुछ पंक्तियाँ लिखता हूँ और फिर झुंझलाहट के साथ उन्हें डिलीट कर देता हूँ। ये समझ ही नही आ रहा है के ऐसा क्यूँ हो रहा है। आजकल लगता है के अपने आपसे ही अजीब सी ज़ंग कर रहा हूँ। इधर ब्लोग्वानी या चिट्ठाजगत पर आता हूँ के कुछ अच्छा सा पढने को मिल जाए मगर ऐसा लगता है के मेरी ही तरह यहाँ भी लोग कुछ असमंजस में दिखाई देते हैं। ये बात मानूंगा के इधर पिछले कुछ दिनों में कुछ अच्छे रचनात्मक ब्लॉग शुरू हुए हैं। जिनका ध्यान कुछ रचनात्मक लिखने का करता है। बाकी दुआ मेरी ये है के वो लोग आगे भी मन लगाकर लिखते रहे और कुछ अच्छा पढने को मिलता रहे। हालाँकि इस दुआ में भी मेरी ही स्वार्थ ज़्यादा है आखिर पढने को तो मुझे ही मिलेगा।
इधर बात मैं कुछ अपनी कर रहा था। ख़ैर जाने दो।
वैसे ये पोस्ट इस बात के लिए ज़्यादा है के किसी तरह फिर से लिखने की आदत पड़ जाए।

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

अब इराकियों को अफ़सोस होगा क्रिकेट न खेलने का!

पिछले दिनों सुबह उठते ही जब एक जूते को उछलते हुए देखा तो ऐसा लगा मानो किसी भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी ने stumps पे निशाना साधा हो और जब stump को हिलते हुए देखा तब पता चला वो stump नही था बल्कि दुनिया के सबसे ताक़तवर मुल्क के राष्ट्रपति थे वो भी बुश। जब तक मैं कुछ और सोच पाता इतने में एक और जूता दिखाई दे गया इस बार भी निशाना सही नही। तभी मुझे लगा के आज इराकी लोगों को अफ़सोस हुआ होगा के क्यूँ उनका देश क्रिकेट नही खेलता अगर उस पत्रकार ने क्रिकेट खेला होता तो हो सकता है उसका निशाना न चूकता । मैं तो कहता हूँ के आईसीसी और बीसीसीआई को क्रिकेट को बढावा अगर देना है तो इराक जाकर वहां के पत्रकारों और बच्चों को क्रिकेट सिखाये ताकि वो हिलते हुए और एक stump पे भी निशाना लगा सके जैसे हमारे खिलाड़ी दौड़ते हुए विकेट उखाड़ देते हैं बाल मार कर। और अगर निशाना अगली बार लग गया तो समझ जाना चाहिए के अभी तो ये जूता जो निशाना चूक गया ५० करोड़ का बिक रहा है ज़रा सोचो निशाना लगने के बाद तो अरबों का होता
और सलाह अमेरिकी राष्ट्रपति को के इस आर्थिक मंदी के दौर में लोगों को करोड़ों कमाने का मौका दें। भला जहाँ काम धंदे चौपट है वह कम से कम जूता उद्योग को तो तरक्की का मौका मिलना ही चाहिए।

सोमवार, 8 दिसंबर 2008

आओ ज़रा खुद से बात करें दोस्तों! हाल ऐ दिल!

आओ ज़रा खुद से बात करें दोस्तों,
अपने गुज़रे वक़्त को याद करें दोस्तों।


के पाया तो है बहुत, हमने ज़िन्दगी में,
जिनकी वजह से पाया, उन्हें याद करें दोस्तों।


गुज़रता वक़्त भी ये हमें, पीछे छोड़ जायेगा,
हम जिनको छोड़ आये हैं, उनकी बात करें दोस्तों।

ज़माना यूँ भी तो, हमारा नही था कभी,
हम जिनके थे ज़रा, उनसे मुलाक़ात करें दोस्तों।


ख्वाहिशें हमारी हैं, ज़रा मासूम सी अभी तक,
अपनों की भी ख्वाहिशों का, ख्याल करें दोस्तों।

बुधवार, 3 दिसंबर 2008

ये ज़िन्दगी अदब को आदाब नही देती। हाल ऐ दिल !

कुछ सोचता हूँ, तो ज़हन साथ नही देता,
कुछ लिखता हूँ, तो कलम साथ नही देती,

चलता हूँ कभी उठकर, अपने घर की तरफ़ जब भी,
क़दम तो चलता है, पर राह साथ नही देती।

करने लगा हूँ शिकायत, ख़ुद से मैं आज फिर,
हर सज़ा जो दी है ख़ुद को, वो राहत नही देती।

है हैरान वो भी, मुझको देखकर,
जिनसे मेरी बरसों तक, बात नही होती.

अच्छी थी या जैसी भी थी, थी मेरी ज़िन्दगी,
फिर इंतज़ार में खड़ा हूँ, पर आवाज़ नही देती।

होता है कभी मुझको भी ग़म, दूर जाने का,
क्या हो गया, के करीब वालों से भी अब बात नही होती।


मंज़र तबाही का, मेरा देखा तो था सबने,
क्यूँ फिर भी उसके कलेजे को राहत नही होती?

आदाब ज़िन्दगी के सीखे तो बहुत,
पर ये ज़िन्दगी, अदब को आदाब नही देती।

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

क्या ज़िन्दगी यही है? एक सवाल!

आज सोमवार है और मैं फिर से अपने clients से appointments ले रहा हूँ। और साथ ही साथ अपने ऑफिस को रिपोर्ट भी कर रहा हूँ। मुंबई दहला, हमने कुछ खामोशी अपनाई, उसपे नज़र बनाई, कुछ दुखी हुए और देखते रहे। और आज से फिर से सभी की ज़िन्दगी उसी पुराने ढ़र्रे पर चल पड़ी है। हम सभी ज़िन्दगी की तरफ़ चल पड़े हैं। और एक सवाल मेरे मन में उठ खड़ा हुआ है।

क्या ज़िन्दगी यही है?

रविवार, 30 नवंबर 2008

अगर संभाला नही जा रहा है तो क्यूँ न पाकिस्तान अपनी मुसीबत भारत को गोद देदे.

अधिकतर आतंकी हमले के बाद हम सब पाकिस्तान की ओर ऊँगली करके खड़े हो जाते हैं ओर पाकिस्तान एक टका सा जवाब पकड़ा देता है के वो ख़ुद भी इस आतंकवाद से पीड़ित है। जबकि हमें ज्ञात है के ये सारा आतंकवाद उसी की छत्र छाया में पला है जो आज उसे भी आँख दिखा रहा है। यदि पाकिस्तान अपने इस पालतू को सँभालने लायक नही है तो क्यूँ नही वो ये मुसीबत भारत को गोद देता ओर क्यूँ नही भारत सरकार इस मुसीबत को गोद लेने की पेशकश करती। मतलब ये है के अगर पाकिस्तान से इसका खातमा नही हो रहा है तो भारत को इसके शिकार की दावत देदे।
अगर भारत को इस मुसीबत को खत्म करने का मौका दे दिया जाता है तो मैं समझता हूँ के हमारी सेना ओर जवान इस लायक हैं के उनके घर में यानी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर और अफ़गान सीमा दोनों पर जाकर उनके ठिकानो को तबाह ओ बर्बाद कर सकते हैं।

क्यूँ न हो के सरकार चाहे वो किसी भी दल की क्यूँ न हो पाकिस्तान पर दबाव बनाकर इस बात की इजाज़त ले के उसे इन आतंकी ठिकानों पर हमले का मौका दिया जाए।

गुरुवार, 27 नवंबर 2008

मैंने हिन्दुस्तान को जलते देखा है! हाल ऐ वतन!

दहशत की आग में,

मैंने हिंदुस्तान को जलते देखा है,

हर एक वार से इसको लड़ते देखा है,

मरहम लगाने को कोई नहीं,

हाँ सियासी रोटियां सेकते देखा है,

चंद महीने में ही इसके ज़ख्मो को,

फिर हरा होते देखा है,

इंसानों को लाशो में तब्दील, होते देखा है,

नफरत की आग में लाखों घरो को, जलते देखा है,

जली हुई राख से,

हिन्दुस्तान के चमन को, फिर खिलते देखा है,

हर काली रात के बाद,

एक नई सुबह को, होते देखा है,

मैंने हिन्दुस्तान को जलते देखा है.....

मैंने हिन्दुस्तान को जलते देखा है.....

निदा अर्शी....

शनिवार, 22 नवंबर 2008

ये मुहब्बत की बैचैनी है! हाल ए दिल!


गुज़ारिश मुहब्बत की, की नहीं जाती,
सोच समझकर, ये उल्फत की नहीं जाती,  
ये दिल की बात है, दिल से कहते हैं,
ज़बान से ये बयान, की नहीं जाती.

कभी उठकर के, बैठते हैं,
कभी बैठकर, फिर उठते हैं, 
ये मुहब्बत की बैचैनी है,
इसके लिए दवा कोई ली नहीं जाती.

यूँ जब याद आती है फिर नींद नहीं आती,
करते हैं शिक़ायत, खुदा से सब,
के "ए  खुदाया रात तो आती है,
पर ये कम्बख्त नींद नहीं आती".

सितमगर का सितम भी, न पूछिए ए हुज़ूर,
ऐसे नादाँ दोस्त का, न पूछिए ए हुज़ूर,
के जो तड़पा तो देता है,
मगर दिल को बहलाने की अदा, उसे नहीं आती.

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

ये जो दिल से जंग है, वो लड़नी नही आती! हाल ऐ दिल!


ख़बर रखते तो थे हम ज़माने भर की ऐ दोस्त,
अब आलम ये है के, ख़ुद ही ख़बर ली नही जाती।


वो कहते हैं के, ख़्वाब सजाया करो निगाहों में,
इन निगाहों का क्या करें, जिनमे, उनके सिवा कोई, तस्वीर नही आती।

सितम करना सुना था, एक अदा है हुस्न की,
सवाल ये है, क्या इसके सिवा, कोई अदा उसे नही आती?

ख़याल आया जो कभी उनका, तो हाथ दिल पे रख लिया,
इस दिल से अब उनकी याद भी, सही नही जाती।

दुश्मनों से दुश्मनी निभाना, तो खूब सीखा है हमने भी,
मगर ये जो दिल से जंग है, वो लड़नी नही आती।

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

बड़ी नाज़ुक है ये मंजिल मुहब्बत का सफर है.

कुछ समझ नही आ रहा था के क्या लिखूं, तो जगजीत सिंह जी की गई एक ग़ज़ल कानो में गूंजने लगी।
तो सोचा क्यूँ न आज दिल के हालात जगजीत सिंह जी की आवाज़ में आपको सुना दूँ।


बुधवार, 19 नवंबर 2008

होती है जलन, परवाने की शहादत पे मुझे! हाल ऐ दिल!


देखकर परवाने का, दीवानापन, कुछ शमा भी, इतराई तो होगी,
हल्की ही सही, उसकी आग में, गुलाबी सी मुस्कुराहट, आई तो होगी।

सोचा तो होगा, उसने भी, परवाने के जल जाने पर,
उसकी आँख भी, परवाने के अंजाम पर, भर आई तो होगी।

क्या है ज़िन्दगी भी, परवाने की, शमा की नज़रों में,
ये बात, किसी शायर ने, कलम से, उठाई तो होगी।

है अंजाम क्यूँ, मुहब्बत का, चाहत में जल जाना यारों,
इस सवाल पे, किसी दीवाने ने, अदालत लगायी तो होगी।

होती है जलन, परवाने की शहादत पे मुझे, ना जाने क्यूँ?
इस परवाने ने, लोगों के दिलों में जगह, बनाई तो होगी।

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

मुझे ख़तावार लिखिए! हाल ऐ दिल!


किसी को गुल ऐ आसमान लिखिए,
किसीको गुल ऐ बहार लिखिए,
पर जिसे तलब हो मुहब्बत की,
उसे दोस्तों, गुनहगार लिखिए।

गुज़ार देते हैं, सभी ज़िन्दगी यूँ तो अपनी,
कभी हँसते हुए, कभी रोते हुए,
पर जो इश्क की खातिर, आंसू बहाए,
उसकी ज़िन्दगी को भी, अश्क ऐ यार लिखिए।

मुहब्बत तो करता है, भँवरा भी, गुलों से यूँ तो,
जल जाता है, परवाना भी, शमा की चाहत में कहीं,
हूँ मैं भी गुनाहगार, इस खता का यारों,
सोचते क्या हैं? मुझे भी ख़तावार लिखिए।

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

मैं अपने बचपन को फिर से ढूँढता हूँ। हाल ऐ दिल!

आज भी वक्त के इस पड़ाव पे बैठकर ज़रा सोचता हूँ,
मैं अपने बचपन को फिर से ढूँढता हूँ।
वो दिन भर दोस्तों के संग बैठना,
वो भोली भोली बातें करना,
वो नए नए सपने बुनना,
वो बैठ कर चाँद को ताकना देर तक,
वो भागना इधर उधर कहते हुए,
के देखो चाँद मेरा पीछा करे,
आज फिर उस चाँद को देखता हूँ,
और चरखा कातती अम्मा को ढूँढता हूँ।
मैं अपने बचपन को फिर से ढूँढता हूँ।

फिर बैठा हूँ उस गली में,
गुज़रा जहाँ बचपन अपना,
किया करते थे इंतज़ार हम सब दोस्त यार,
थे वो चीनी बाबू एक,
लाते थे जो हम सबके लिए चाट,
फिर घर के उस चबूतरे पर बैठकर,
मैं बचपन के उस दोस्त को ढूँढता हूँ।
मैं अपने बचपन को फिर से ढूँढता हूँ।

जाने हैं कितनी ही यादें,
मुश्किल है जिनको भूलना,
उम्र बेशक बढ़ रही है,
पर नाता जिनसे नही टूटता,
हाँ मैं उसी नाते को ढूँढता हूँ,
मैं अपने बचपन को फिर से ढूँढता हूँ।

गुरुवार, 6 नवंबर 2008

सितम! हाल ऐ दिल!

है तलाश किसकी, क्यूँ किसी को ढूँढता हूँ मैं,
जब पास नही है वो मेरे, क्यूँ उसे देखता हूँ मैं?


किताब ज़िन्दगी की फिर पढ़ लेंगे दोस्तों,
अभी तो मौत का फलसफा पढ़ रहा हूँ मैं।


गुलाम ज़िन्दगी फिर से होने लगी है ये,
ख़ुद इस ज़ंजीर को लपेटे बैठा हुआ हूँ मैं।


है सितम नज़र उनकी तो वो ही सही सही,
अब तो इस सितम के ही इंतज़ार मैं जी रहा हूँ मैं।

सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

हर प्रदर्शन में है इंडियन रेलवे की भूमिका!

वो चाहे गुर्जरों का आन्दोलन हो, बाबा राम रहीम के ख़िलाफ़ गुस्सा हो, राज ठाकरे के गुंडों की गुंडा गर्दी हो या बिहार में उस गुंडागर्दी का विरोध। इन सभी में एक बात समान है और वो है भारतीय रेल।
एक बात समझ नही आती के सबका गुस्सा रेलवे पर ही क्यूँ टूटता है?
कर्नल बैसला को गुस्सा आया तो वो रेल की पटरियों पे जाकर बैठ गए, उनके साथियों ने रेल की पटरियाँ उखाड़ डाली। और तो और इतने लंबे चले आन्दोलन में बहुत सी ट्रेने रद्द हुई और हजारों लोगों को परेशानी उठानी पड़ी।
वही जब बाबा राम रहीम लोगों ने एक समुदाय विशेष पर गोलियां चलायी तो इसके विरोध में भी लोगों ने ट्रेन में बैठे लोगों पर ही अपना गुस्सा निकला और रेलवे की संपत्ति तोडी गई।
फिर बारी आई राज के गुंडों की और उन्होंने भी रेल में गुस्कर उत्तर भारतियों को निशाना बनाया और स्टेशन पर तोड़ फोड़ की। साथ ही रेलवे की परीक्षा में बाधा भी पहुंचाई जिसका सीधा असर रेलवे को होगा।
अब समय था इस का विरोध करने का तो वहां तो हद ही हो गई , रेल का इंजन ही लेकर रवाना हो गए। स्टेशन तोडा और रेलवे करमचारियों और संपत्ति को नुक्सान पहुँचाया गया।
ऐसे कई उदाहरण है जब तब भारतीय रेल लोगों के गुस्से का शिकार बनी जब इसका उसमें कोई हाथ नही था।
इसमें एक मजेदार बात ये है की भारतीय रेल हम सभी की ज़िन्दगी से जुडा हुआ है। हम सभी को इसकी ज़रूरत है मगर अपना गुस्सा भी हम इसी पर ही क्यूँ निकालते हैं।
क्यूँ भारतीय रेल के अधिकारी नुक्सान पहुँचने वाले लोगों से इसका हर्जाना नही वसूलते? क्या ऐसा नही होना चाहिए कि जिस गुट विशेष या दल विशेष की वजह से नुक्सान हुआ है उन्ही से इसके नुक्सान की भरपाई करायी करायी जाए?

क्या कोई इस बारे में मुझे समझाने की कोशिश करेगा।

रविवार, 26 अक्तूबर 2008

ब्लॉगर तू उतावला क्यूँ है?

कई दिनों से कुछ लिख नही रहा था। बस ये देख रहा था के हर बात पे शोर मचने वाला हमारा ब्लॉग जगत कुछ चुप चुप सा है। बात बात पे आतंकवाद की बात करने वाले और कठोर दंड और कानून की बात करने वाले अचानक चुप कैसे हो गए। शायद वो ये सोच रहे थे के कैसे बचाव किया जाए। और आज कुछ पोस्ट्स में मुझे ये सब पढने को मिला भी। हँसी भी आई और तरस भी आया के अभी पहले जाँच और पूछताछ के नतीजे तो आने देते उसके बाद ही बचाव करते। होगा कुछ नही ये बात मुझे भी पता है। न किसीको सज़ा होगी और न बात आगे बढेगी। जहाँ सामने क़त्ल करने वालो और कैमरा के सामने इस बात का इक़रार करने वाले के कैसे एक महिला जो माँ बनने वाली है उसका पेट काटा गया, को कोई सज़ा नही हुई और न ही इसका आगे ज़िक्र भी हुआ।

मैं केवल इतना ही कहना चाहूँगा के आप लोग सब्र से बैठ और अपने कानून पर भरोसा रखें कुछ नही होगा।

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

होती रही रात भर ख़ुद से बातें उनके आने की! हाल ऐ दिल!

कोई तस्वीर धुंधली सी निगाहों में क्यूँ है?
जानता जिसको नही हूँ वो चेहरा, ख़यालों में क्यूँ है?


क़दम जो भी उठा रहा हूँ, जाता है उसके घर की तरफ़,
हर क़दम यूँ मेरा आज, मेरे ख़िलाफ़ क्यूँ है?


यूँ तो दिमाग कर रहा है मना, दिल को सोचने से उसके बारे में,
ये मेरा दिल आज हर ख़याल से, बेपरवाह क्यूँ है?

लगता है एक बार फिर खाना चाहता है धोखा ये दिल,
इतनी ठोकरों के बाद भी ये मचलता क्यूँ है?

होती रही रात भर ख़ुद से बातें उनके आने की,
इन नादानियों से अपना गहरा सा नाता क्यूँ है?

सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

मौसम ए दर्द चल रहा है शायद! हाल ऐ दिल!

कुछ वक़्त का गुबार होगा, जिसने धोखे उठाये होंगे,

हम तो सेहरा में भी नहीं थे, फिर ये रेत आई कहाँ से॥


गुज़र रहे थे लम्हे यूँही तनहा अकेले,

उसमें ये उदासी की सिहरन आयी कहाँ से।


मौसम ए दर्द चल रहा है शायद,

हर कोई मिलता है तड़पता हुआ, गुज़रो जहाँ से।


उसने न लौटके आने का वादा किया था मुझसे,

गया था जब वो मेरे इस दिल के जहाँ से।


हज़ार ख़्वाब न सजाना कभी भी यारों,

एक ख़्वाब भी सच होता नहीं है, गर देखा हो दिल ए खाक़सार से।

रविवार, 19 अक्तूबर 2008

मर जाऊंगा अगर तो कोई रोने वाला भी नहीं। हाल ऐ दिल!

वो ज़िन्दगी है क्या के कोई राज़दार ही नहीं,
मर जाऊंगा अगर तो कोई रोने वाला भी नहीं।

वो मेरा दोस्त होता जो रोता मेरे जनाज़े पे,
यूँ चल रहा हूँ तनहा के अब साया भी नहीं।

यूँ तो तन्हाई काटती है कभी कभी,
कैसे जीते हैं वो लोग जिनका कोई सहारा ही नही।

ऐ ख़ुदा ज़रा ज़मीन को एक बार फिर से देख,
साथी तो सभी है सबके, मगर कोई साथ है ही नही।

इंसान न जाने क्यूँ इंसानियत भूलता जा रहा है अब,
जेब में पैसा तो है बहुत मगर, बदन में दिल है ही नही।

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008

निकलेगा जब चाँद तो, बुझ जाएगा दिल मेरा! हाल ऐ दिल!

तमन्ना सी है जगी हुई, आज फिर न जाने क्यूँ,
शायद फिर किसी एहसास ने, सर उठाया है,
ये निगाहें लगी हुई है, दरवाज़े पे क्यूँ,
शायद फिर किसके आने के अरमान ने, सर उठाया है।

ये वही दिन था, जब साथ साथ थे हम दोनों,
फिर इसी दिन ने, एक दिया अरमानो का जलाया है।

मैं सोच कर बैठा था के, न याद करूँगा तुझे,
फिर सुबह से, इन हिचकियों ने तड़पाया है।

है हैरान देखकर, ग़म भी ये हमारे,
क्या यही वो शख्स है, जिसको हमने रुलाया है?

निकलेगा जब चाँद तो, बुझ जाएगा दिल मेरा,
तू मेरे जितना क़रीब था, तुझे आज उतना ही दूर मैंने पाया है।

बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

कभी अपनाती है, कभी ठुकराती है। हाल ऐ दिल!


कभी उठाकर, गिराती है,
और कभी गिराकर, उठाती है,
ये ज़िन्दगी भी अजब चीज़ है यारों,
कभी अपनाती है, कभी ठुकराती है।

कभी इन निगाहों को, देती है, सपना कोई,
कभी हकीक़त की, खुशियों में भी आग लगाती है,
ये ज़िन्दगी भी एक आतिश है, अजीब सी,
कभी देती है ठंडक, और कभी इंसान को ही, जलाती है।

न जाने कितने, गुज़र गए, सुलझाते ये पहेली,
पर ये नही, किसीकी समझ में आती है,
ये ज़िन्दगी भी एक, अनसुलझी है पहेली,
इसको जितना सुलझाओ, ये उतना ही उलझ जाती है।

कभी उठाकर, गिराती है,

और कभी गिराकर, उठाती है,

ये ज़िन्दगी भी अजब चीज़ है यारों,

कभी अपनाती है, कभी ठुकराती है।

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

कुछ वक्त अपने लिए भी तो होना चाहिए न.

बहुत दिनों से मन की स्थिति कुछ अजीब सी है। सारा दिन काम, या पढाई, या कुछ वक्त मिला तो दोस्त, और कुछ वक्त मिला तो इन्टरनेट और यहाँ पर भी दोस्तों से ही बातें। इसके अलावा दिन में जो काम से जुड़े हुए लोगों और दोस्तों के संपर्क में फ़ोन से बने रहता हूँ वो अलग है। एक अंदाजा लगाया तो जागने का सारा समय मैं लोगों से जुड़ा रहता हूँ। शायद यही हालत मेरे बाकी साथियों की भी होती होगी। यूँही सोचा के कितने दिन गुज़र गए हैं अपने बारे में सोचे हुए। कुछ वक्त ख़ुद को दिए हुए। कभी तनहा बैठे हुए।
पहले जब भी कभी वक्त मिलता था तो कहीं किसी पार्क या यमुना किनारे जाकर बैठ जाता था। घर में अकेला बैठ नही सकता था। क्यूंकि अकेला बैठे देखते ही माँ को लगता कि किसी बात से परेशां है। और फिर सवालों की बरसात तो तन्हाई के पल बाहर ही खोजा करता था। मगर जब से फ़ोन और इन्टरनेट का साथ पकड़ा है। लगता है। मेरी ज़िन्दगी बाकि लोगों की सी हो गई है। अपने बारे में सोचने का वक्त नही मिलता और दोस्तों का हाल चाल रोज़ पूछ लेता हूँ।
फिर यही सोचते सोचते ख्याल आया कि मेरे जैसे और भी तो मेरे साथी हैं जो मुझसे इसी प्रकार जुड़े रहते हैं।
आखिर क्या वजह है के हम अब तनहा रहने से डरते हैं। ये तन्हाई या अकेलापन कोई डर कि तरह बन गया है।
तो अब क्यूँ न अपने लिए भी कुछ वक्त निकला जाए ख़ुद के बारे में भी सोचा जाए। और थोड़ा तनहा रहा जाए।
तन्हाई को भी साथी बनाया जाए।

रविवार, 12 अक्तूबर 2008

मैं ही बेवफा हूँ, यही चाहो तो बता देना! हाल ऐ दिल!


फिर कोई पुराना दोस्त हमसे मिला आकर,
फिर किसीने तेरे बारे में पूछा हमसे,
फिर से हमने उसे तेरे बारे में बताया,
वो तो चला गया, पर न जाने कैसे हमने दिल को समझाया।

यूँ, कोशिश अपनी भी यही होती है,
के तुझे न याद करें कभी,
पर उन लोगों का क्या करें,
जिनकी ज़बान से हमारा नाम एक साथ ही निकलता है।


कुछ पुराने दोस्त हैं,
अगर हो सके तो उनको समझा देना,
मैं ही बेवफा हूँ, यही चाहो तो बता देना,
पर उनसे कहना, न पूछे हमसे तेरे बारे में,
बस इतनी गुज़ारिश हैं, यही ताक़ीद उनको कर देना।


हर गम को बर्दाश्त करने की ताक़त है यूँ तो हम में,
बस एक तेरा गम है जो दिल से जाता नही है,
और अगर जाने लगे भी तो क्या है,
कोई उसको जाने देता नही है।

शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

चल दिए हम भी एक नई नौकरी और नए शहर की ओर!

मैंने कभी नही सोचा था कि कभी अपने शहर को छोड़कर कहीं जा पाउँगा ओर अगर जाऊंगा तो इतनी दूर जाना पड़ेगा। मगर शायद ज़िन्दगी इसी को कहते हैं। या शायद यही वो वजह है जिसने सभ्यता को फैलाया हैं। पता नही क्यूँ मगर बड़ा ही अजीब लग रहा है। अपने घर से दूर bangalore जाना।
एक ऐसा शहर जहाँ शायद मुझे कोई जानने वाला नही होगा। हाँ अगर कोई साथी होगा तो शायद मेरा ये ब्लॉग जहाँ मैं अपने दिल को उतार पाउँगा।

बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

ख़ुदा जाने वो क्या ढूँढता होगा! हॉल ऐ दिल!


ख़ुदा जाने वो क्या ढूँढता होगा,
है बदगुमाँ वो, कोई बदगुमाँ ढूँढता होगा।


था वो दिलके करीब हमेशा मगर,
अब वो बेवफा दिल का आसरा ढूँढता होगा।


तलाश ख़ुद को भी करना ऐ दोस्त,
कहीं तुम्हारा अक्स भी तुम्हे ढूँढता होगा।

है हर तरफ़ माहौल संजीदा ये क्यूँ,
क्या यहाँ भी कोई क़ातिल घूमता होगा।

सितम है मेरे दिल पर मुहब्बत का उसकी,
अब ये सितम पता किसी और का ढूँढता होगा।

सोमवार, 29 सितंबर 2008

मैं तो बस मैं बनना चाहता हूँ। हाल ऐ दिल!

चाहता है कोई कुछ, तो कोई कुछ बनना चाहता है,
मैं बस मैं हूँ, मैं, मैं बनना चाहता हूँ।


न मैं ये चाहता हूँ, के पंछियों की तरह उड़ान भरूँ,
न मैं चाहूँ के बन जाऊँ कोई कोयल सुरीली,
न मैं चाहूँ के आफताब बनूँ,
मैं तो बस ज़मीन पे रहना चाहता हूँ,
हाँ मैं, मैं तो बस मैं बनना चाहता हूँ।

होगा वो कोई और जिसके अरमान होंगे आगे,
जो चाहेगा सारे ज़माना को हासिल करना,
चाहता होगा कोई भीड़ से अलग दिखना,
मगर मैं इस भीड़ का हिस्सा बनना चाहता हूँ,
हाँ मैं, मैं तो बस मैं बनना चाहता हूँ।

शनिवार, 27 सितंबर 2008

मुझको दुःख मेरा भाई मुझसे अब बच कर रहे। हाल ऐ दिल!

वो जलाता है घर क्यूँ अपना, जो कभी घर का चिराग था,
किसने दी उसको ये लो जो अब निकल कर फैलने लगी है,
हैं मेरे सवाल कई, पर ले के किसके पास जाऊं?
कोई कहे वो दुश्मन है, कोई उसे जल्लाद कहे।


मैं तो बस ये चाहूँ, उसकी भी कुछ सुन तो लो,
क्या पता वो आगे चलकर औरों को न अपने जैसा बनने को कहे।


हो रहा है शोर चारों ओर,
मातम है फैला मेरे घर में, उसके घर में,
हैं सभी हैरान, ये सब देखकर,
कुछ ऐसे भी होंगे, जिनकी ग़लती कोई न खुलकर कहे।


मारा है मुझे, मेरे ही हाकिम ने हर बार,
कभी मेरा दोस्त बनकर और कभी दुश्मन की तरह,
वो तो जो हैं वो रहेगा उसका,
मुझको दुःख है मेरा भाई, मुझसे अब बच कर रहे।

शनिवार, 20 सितंबर 2008

शहीदों के मज़ारों पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाक़ी निशान होगा!


शहीद मोहन चंद्र शर्मा को अन्तिम क्षराद्धांजलि
शहीदों के मज़ारों पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाक़ी निशान होगा!

शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

कल तो ख़ुद को भी शक की नज़र से देखा हमने! हाल ऐ दिल!


मुझे ख़बर थी के रुसवा करके जाएगा मुझे,

न जाने क्यूँ ख़ुद को रुसवा होने का मौक़ा दिया हमने।



उसके अंदाज़ से लगता था कोई गैर है वो,

फिर भी उसको अपनों से ज़्यादा समझा हमने।



उठाये फिरते रहे तस्वीर उसकी हाथों में,

अपनों हाथों के छालों को न देखा हमने।



वो कहता रहा हमसे चला जाऊंगा तुझे छोड़कर,

फिर भी दिल में एक घर उसको दिया हमने।



के रात तन्हा गई और दिन भी तन्हा रहा,

एक उसको ख्याल को दिल से न जाने दिया हमने।



अब तो ख़ुद के साये के भी साये डर लगने लगा हमको,

कल तो ख़ुद को भी शक की नज़र से देखा हमने।

गुरुवार, 18 सितंबर 2008

जो जितना है दिल के क़रीब, उससे उतना ही दूर का नाता है मेरा! हाल ऐ दिल!

मंज़िल ना कोई रास्ता है मेरा,
ये वक़्त का पल ही कारवां है मेरा।
ना जाने कितनी दूर जा पाउँगा मैं?
ये पल ही तो बस रास्ता है मेरा।

सितम हैं किसीके मेरे दिल पर कितने ,
दिल खोलके मैं बताऊँ कैसे?
के हर सितम से लगता है,
जैसे कोई नाता हो मेरा।

किससे बोलूँ और किधर जाऊं,
यही सोचता रहता हूँ मैं,
ना कोई साथी है मेरा,
ना कोई सहारा है मेरा।

ख़ुदा ने ज़िन्दगी भी,
ये अजीब बनायी है यारों,
जो जितना है दिल के क़रीब,
उससे उतना ही दूर का नाता है मेरा।

बुधवार, 17 सितंबर 2008

ए मेरे ख़ुदा अब दे, तो मौत से कम ना दीजो! हाल ऐ दिल!

मुझे तलाश है, ख़ुद के मिल जाने की,
टूट कर फिर, फिज़ाओं में बिखर जाने की।

ना रोकना मुझको, ए आसमान, आज तू उड़ने से,
के फिर तमन्ना हुई है, ख़ुदा से मिलके आने की।

ना जाने कहाँ, खो गया हूँ मैं आजकल,
ना पता ख़ुद का है, और ना है खबर ज़माने की।

कहने लगे हैं मुझसे, यूँ लोग भी अब ,
क्या ज़रूरत थी ख़ुदा को, तुझे बनाने की।

मेरी ज़िन्दगी ख़ुद, मुझ पर एहसान थी ये,
मुझ पर ही है तोहमत, इसे बोझ बनाने की।

ए मेरे ख़ुदा अब दे, तो मौत से कम ना दीजो,
यही आखिरी दुआ है, तेरे इस दीवाने की।

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

करता है सब के सामने सौदा मेरे ईमान का! हाल ऐ दिल!

करता है सब के सामने सौदा मेरे ईमान का,
मैं करता हूँ मना उसको, तो कहता है तू है कौन?
वो है कोई हाकिम, कोई गुनाहगार है कभी,
मैं कहता हूँ उस से मान जा, कहता है तू है कौन?

जाता है कभी मार आता है किसीको,
लिखता है वहाँ नाम मेरा नामुराद वो,
सब कहते है मुझे, ये होगा शामिल कहीं उसमें,
मैं करता हूँ मना उनको, तो कहते हैं तू है कौन?

मैं करता हूँ जब अफ़सोस किसी की तबाही पर,
लोगों को नज़र आते हैं आंसू मेरे झूठे,
सब कहते हैं दिल ही दिल में खुश हो रहा है ये,
मैं करता हूँ मना उनको, तो कहते है तू है झूठ।

फिर सोचता हूँ, क्यूँ कर कहते हैं मुझे भाई ये लोग अपने?
क्यूँ जताते हैं मुहब्बत जब देखते हैं मुझे तड़पता?
क्या उनको नही दिखाई देता मैं साथ में उनके खड़े?
क्या उनको मेरा, ये दर्द सुनाई नही देता?
हैंरान होता हूँ जब दुद्कार दिया जाता हूँ अपनों के ज़रिये मैं,
क्या उनको मुझमे और कातिलों में कोई फर्क नही दिखता?

मेरा काम इशारा देने का था। जो मैं दे दिया। क्या करूँ शब्दों की कंगाली से जूझ रहा हूँ।

शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

मैं, मेरे सर और मेरी विद्यालय से भागने की कोशिश! शिक्षक दिवस पर कुछ मज़ेदार यादें!

शिक्षक दिवस पर वैसे तो कई यादें अपने आप मन में आ जाती हैं मगर अपने शिक्षकों के साथ की गई मस्ती का अपना ही आनंद होता था। आम तौर पर मैं अपने विद्यालय से भागना तो दूर छुट्टी करने की भी नही सोचता था। भला जितना मज़ा और मस्ती विद्यालय में होती थी वो घर पर रहकर कभी हो सकती है भला? पर अचानक एक दिन मुझे न जाने क्या हुआ के अचानक खाली बैठे बैठे मन हो गया की आज तो स्कूल से भागना है। क्यूँ भागना है और उसके बाद कहाँ जाना है इसके बारे में तो सोचा ही नही। अब मैं ठहरा कक्षा का मॉनिटर और वो भी भागने की सोचे तो क्या होगा? मगर जब ठान ली तो ठान ली। ऊपर से वो खाली period जो वैसे परेशान कर रहा था।

बस साथ देने के लिए रोज़ भागने वाले भी मिल गए वो सबसे पहले विद्यालय की दीवार फांद कर दूसरी और आ गए, हमारी कक्षा बिल्कुल दीवार के साथ थी तो बाहर जाकर वो खिड़की सामने के सामने खड़े हो गए, कुछ देर बाद मैं भी उन्ही के साथ मैं खड़ा था। अब बारी आई के किस प्रकार कक्षा से अपना बस्ता लिया जाए तो मैंने कक्षा मैं कहा कि भाई अब मेरा बस्ता भी दे दो। बाकी के साथी जो पहले ही भागने के इरादे से आते थे और उनके बसते मैं कॉपी और किताब न के बराबर ही होती थी तो उनका बस्ता तो खिड़की मैं लगी जाली से बाहर आ गया मगर मैं ठहरा तगड़ा पढ़ाकू (ऐसा लोग कहते थे :) इस ग़लत फ़हमी में मेरा हाथ नही है ) बस्ते में सारी की सारी किताबें और कापियां वो भला इन सरिये की जालियों से कहाँ से निकलती। इतने में शोर मच गया कि कक्षा अध्यापक आ गए हैं और सारे बच्चे अपनी अपनी जगह पर जाकर बैठ गए और मेरे पीछे खड़े अन्य साथी भाग खड़े हुए। मगर यहाँ भी हम तगडे निडर ( कोई चारा ही नही था, पता था सर ने आते ही पूछना है नदीम कहाँ है? अब मॉनिटर जो ठहरा :( ) अपनी जगह से हिले ही नही और सर से बात करने लगे। सर मुझे बाहर देखकर अपनी जगह परेशान उन्हें पीछे से प्रधान आचार्य जी के आने की आवाज़ आ रही थी जो पहले ही अन्य कक्षाओं में बच्चों को झाड़ते आ रहे थे। मुझे बाहर देखकर उनके हाथ पैर फूल गए बोले "अबे गपूचे( जिसका मतलब मुझे आजतक नही पता चला) तू बाहर क्या कर रहा है?" मैंने भी तपाक से जवाब दिया "सर में भाग रहा हूँ कक्षा से" ये सुनकर उनकी आँखें पता नही क्यूँ खुली कि खुली रह गई और हंसने लगे बोले " अबे अब तू क्यूँ भाग रहा है?" हमने कहा " सर आज मन कर रहा है तो भाग कर ही रहूँगा"। ये सुनकर वो बोले "अबे जाना है तो चला जा प्रिंसिपल आ रहे हैं यहाँ मत खड़ा हो।" जिसपर मैंने कहा "सर मेरा बस्ता तो अन्दर है वो तो पकड़ा दो." वो बोले "बेटा शर्म तो नही आ रही अपने ही अध्यापक से भागने के लिए बस्ता मांग रहा है।" ये सुनकर मैं और मेरे साथ पूरी कक्षा हंसने लगी। इतनी में किस ने कहा के प्रिंसिपल साथ वाली कक्षा में है तो सर जल्दी से मेरा बस्ता लेकर खिड़की पर आ गए और उसे बाहर निकालने की कोशिश करने लगे। मगर वो बस्ता भी तो हमारा था कैसे निकल जाता। कुछ देर कोशिश करने के बाद सर झल्लाकर बोले "अबे period के हिसाब से बस्ता क्यूँ नही लाता सारी की सारी किताबें भर राखी है। अब न तो तू ही भाग पायेगा और तेरे चक्कर में मेरी भी नौकरी गई ही समझो आज तो प्रिंसिपल मुझे देख लेगा कि मैं किस प्रकार बच्चों को भगा रहा हूँ।" मैंने कहा कि "सर कुछ जुगत लगाओ" तो उन्होंने बस्ते की कुछ किताबे निकालकर दूसरों के बस्ते में रखवानी शुरू कर दी और बस्ता कुछ हल्का किया जिससे वो खिड़की से निकल जाए। मगर हम भी एक नंबर के मूडी फिर दिमाग पलट गया कि अब नही भागना मुझे तो कक्षा में ही रहना है। अब सर कहें बेटा बस्ता पकड़ और मैं कहूं के मुझे अन्दर आना है। यहाँ मामला फिर उल्टा हो गया जहाँ अध्यापक छात्र को भगा रहे थे और छात्र था कि भागने का नाम ही न ले । :)

अब सर बोले के " अब तू अन्दर कैसे आएगा प्रिसिपल बाहर खड़ा है और तू कहाँ से आयेगा? " हमने भी तपाक से कहा कि सर गया तो दीवार कूदकर था मगर अब आऊंगा main गेट से। ये सुनकर सर के दिल कि धड़कने और बढ़ गई उन्होंने भी सोचा होगा आज तो ये गया और मुझे भी साथ ले कर जायेगा । अब यहाँ भी confidence (काहे का confidence मजबूरी थी ) हम भी main गेट की तरफ चल दिए वहाँ से अन्दर गए तो देखा अपनी क्ष के पास ही प्रधान अध्यापक जी खड़े हुए थे पता नहीं उनके मन में क्या था मुझे से पूछा : कहाँ से आ रहे हो? " और मैंने भी कहा "सर ज़रा बहार गया था। " अब पता नहीं उनको ये बात सही सुनाई दी या नहीं या उन्होंने कुछ और ही समझा. उन्होंने मुझे कुछ नहीं कहा और मैं अपनी क्ष में चला gaya जहाँ मेरे कक्षा अध्यापक खड़े hue थे. मुझे देखते ही उन्होंने मुझे पकड़ लिया बोले " अबे गपूछे क्या कर रहा था बाहर और और आज तो तूने मुझे भी नौकरी से निकलवा ही दिया होता. " ये कहकर वो और साथ में सारी कक्षा हंसने लगी और उस दिन बस एक गीत सुनाकर मेरा पीछा उनसे छूट गया. मगर उस दिन के बाद फिर न तो मेरा इरादा कभी कक्षा से भागने का हुआ और न ही कभी किसी रोज़ के भागने वाले ने मुझे अपने साथ ले जाने के बारे में विचार किया. उन्होंने भी सोचा होगा ये न तो ख़ुद भागेगा और न ही हमें भागने देगा बल्कि पकड़वा ज़रूर देगा.

अब इससे कोई ये न समझे के हमारे सर अक्सर छात्रों को भगाया करते थे. वो तो वो उड़ सिन फँस गए थे जिसकी वजह से उन्हें मेरी मदद करनी पड़ी. या शायद वो मुझे बचाना छह रहे थे. जय हो गुरूजी की !!!

शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

फिर ये प्यार इशारों से जताते क्यूँ हो? हाल ऐ दिल!

भूलना चाहते हो जब मुझको,
फिर ख़्वाबों में आते क्यूँ हो?
जब नही है मुहब्बत हमसे,
फिर ये प्यार इशारों से जताते क्यूँ हो?

हम सीख ही लेंगे जीना, तन्हा तुम्हारे बिन ऐ सनम,
तुम इस क़द्र, अपनी महफिलों पे इतराते क्यूँ हो?

करना था तो, सामना डट कर किया होता,
यूँ बेवफाई करके, मुँह को छुपाते क्यूँ हो?

मैं नही जानता, क्यूँ तेरी बात किया करता हूँ सबसे,
पर तुम उन सबसे, मुझे पूछने आते क्यूँ हो?

करके हैरान उसको, जिसने हमें मिलाया था कभी,
तुम उसकी चौखट पे, सर को झुकाते क्यूँ हो?

और जाना है तो, चले क्यूँ नही जाते,
लौटके आने का बहाना, यूँ बनाते क्यूँ हो?

भूलना चाहते हो जब मुझको,
फिर ख़्वाबों में आते क्यूँ हो?
जब नही है मुहब्बत हमसे,
फिर ये प्यार इशारों से जताते क्यूँ हो?

गुरुवार, 28 अगस्त 2008

एक गुज़ारिश! कुछ मेरी डायरी से!



एक गुज़ारिश है तुमसे, अगर इजाज़त हो,
बस इतना करदो, के अब ख्वाबों में न आया करो।

रहने दो मुझे, जिस तरह जी रहा हूँ मैं,
दूसरों से मेरा हाल, पूछने न आया करो।

हो जाता हूँ बेचैन जिस रात, तुम आ जाते हो ख़्वाब में,
मुझको यूँ उठाकर, तुम न यूँ सो जाया करो।

एक गुज़ारिश है तुमसे, अगर इजाज़त हो,
बस इतना करदो, के अब ख़्वाबों में न आया करो।

बुधवार, 27 अगस्त 2008

मेरा साया था वो तो! हाल ऐ दिल!

मसला था, न कोई हल था, मेरा यार था वो तो,
था जिसपे गुमां भी मुझे, दिलदार था वो तो।

रहता था मेरे दिल के क़रीब, धड़कन सा था कोई,
मेरे लिए मेरे हर सवाल का जवाब था वो तो।

करता था दिल पे राज, कोई राज़ था शायद,
मेरा सनम मेरे लिए हर बात था वो तो।

जाने क्या हुआ के चल दिया मुझको छोड़कर,
अब हूँ साये बिना, मेरा साया था वो तो।

मंगलवार, 26 अगस्त 2008

रात के हालत! हाल ऐ दिल!

कल फिर रात में, हमने उन्हें तड़पते देखा,
यूँही हम पर हंसते देखा, यूँही ख़ुद पर रोते देखा.

जब पूछना चाहा उनसे इसका सबब,
हमने उनकी आँखों में चश्में को उतरते देखा।

सोचते रहे जाने क्या मामला है ये भी,
मगर जितना सोचा ख़ुद की सोच को कमतर देखा।

तड़प उठी थी जो दिल में उनके ज़ख्मो को देखकर,
उनकी हंसी में इन ज़ख्मो का दर्द भी देखा।

सोमवार, 25 अगस्त 2008

आज फिर आँख में नमी चली आई....

आज फिर आँख में नमी चली आई....
तन्हाई में यार की कमी चली आई....
भाग रहे थे जिन यादों से हम......
आज फिर से वो हमे घेरे चली आई.....

सोच पे कोई ज़ोर चले...
फिर दिल को हम रोक सके...
आज फिर उससे मिलने की तलब चली आई...
आज फिर आँख में नमी चली आई...
तन्हाई में यार की कमी चली आई....

ज़िंदा हुए है कुछ मरे से जज़्बात...
फिज़ाओं में फिर से वही खुशबू चली आई...
यादों के झरोकों से कुछ धुंधली तस्वीरें चली आई...
आज फिर आँख में नमी चली आई....
तन्हाई में यार की कमी चली आई...

आज फिर मुस्कुराहट की जगह ग़म ने ली...
अपनों के बीच भी मेरे हिस्से तन्हाई की आई...
दुनिया के शोर में भी खामोशी नज़र आई...
आज फिर आँख में नमी चली आई...
तन्हाई में यार की कमी चली आई....

शनिवार, 23 अगस्त 2008

हाईकोर्ट की ग़लती क्या है? वकीलों को दी गई सज़ा या बार कौंसिल के कार्य में हस्तक्षेप?


मेरे कल और परसों के लेख पर कईं साथियों का साथ मिला और इस पर मुझे कुछ जानकारियों से भरे मेल भी प्राप्त हुए। मुझे बताया गया कि उच्च न्यायालयों को सज़ा सुनाने का अधिकार ही नही है। और किसी वकील के कार्य पर केवल बार कौंसिल ही फैसला ले सकता है। हालांकि बात मेरे गले आसानी से नही उतरती मगर क्यूंकि मैं कानून का कोई जानकार नही हूँ तो इस पर बहस नही कर सकता। मगर मैं वकील बिरादरी से ये पूछना ज़रूर चाहूँगा कि क्या उनकी परेशान ये है कि हाई कोर्ट ने उनके कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप की कोशिश की या ये कि उनके साथियों को सज़ा दी गई? क्या एक दिन की गेरहाज़री से अपना पक्ष रखने की बजाये वो हाई कोर्ट के इस फैसले जिसमें बकौल बार कौंसिल हाई कोर्ट ने उनके कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप किया है के ख़िलाफ़ कोई अपील दायर नही कर सकते थे जिससे कि देश की जनता तक एक सही संदेश जाता। और वो ख़ुद कोई ऐसी पहल क्यूँ नही करते जिससे भ्रष्ट वकीलों पर कार्यवाही हो सके।
और एक बात जिसपर कोई वकील तो कम से कम बात शायद नही करना चाहता कि आख़िर उन्हें जो सज़ा दी गई है क्या वो काफ़ी है? जब एक इंसान जो छोटी मोटी गलतियां करता है जाने या अनजाने में तो उसे बड़ी बड़ी सजाएं दी जाती है तो वहां केवल ४ माह की अदालत में घुसने पर पाबंदी और २०००/- रु मात्र का जुर्माना क्या दिखता है?
क्या वकीलों को ये दिखाई नही दे रहा और इस प्रकार के इन्साफ के खिलाफ वो कुछ क्यूँ नही करते। क्यूँ पहल नही करते कि इन और इन जैसे वकीलों को कदा दंड दिया जाए? क्यूँ नही इसको एक मुहीम बनाया जाता?

खोने का ग़म क्या जब उसे पाया ही न था

खोने का ग़म क्या जब उसे पाया ही था
हमने तो उसे अपना माना पर उसने अपना बनाया ही था

परवाने की मौत का ग़म क्या उसकी किस्मत में जल जाना ही तो था
शमा से गिला केसी आखिर उसका मकसद उसे जलना तो था

रेत के का क्या उन्हें तो ढेह जाना ही तो था
सपनो के अशिआने का क्या तुम्हे नींद से उठ जाना ही तो था

ज़िन्दगी का ग़म कैसा आखिर उसे मिटjजाना ही तो था
मौत का खौफ कैसा उसे आना ही तो था

जो किस्मत में था उसे खो जाना ही तो था.........................

शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

क्यूँ वकीलों से भिड रहे हो जज साहब? इनकी ग़लती कहाँ है? ग़लती तो आपकी है, जो इन्हे ग़लती की सज़ा दे रहे हो!


बचपन में एक कहावत सुनी थी कि उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। मगर यहाँ ये कहावत कुछ ऐसी लग रही है कि उल्टा वकील जज को डांटे। क्यूंकि कल ऐ यु खान और आर के आनंद पर जो दिल्ली हाई कोर्ट का फ़ैसला आया है उसके बाद ऐसा मालूम हुआ मनो किसीने इनकी दुम पर पैर रख दिया हो। बजाये इसके कि ख़ुद शर्मिंदा होते कि पिछले १५ महीनो में उन्होंने जिस केस को दबाकर रखा था उसपर कोर्ट ने फ़ैसला सुना दिया। जो फ़ैसला पहले बार कौंसिल को करना चाहिए था उसे कोर्ट को करना पड़ा। होना ये चाहिए था कि इस फैसले के बाद शर्मिंदा होते उन्होंने तो अदालत के अधिकार पर ही ऊँगली उठा दी। होना ये चाहिए था कि इन दोनों कानून के सौदागरों के ख़िलाफ़ और भी कड़ी सज़ा की माँगा करते उन्होंने इसके विरोध में ख़ुद खड़े होने का मन बना लिया। क्या बात है वकील बिरादरी! मुबारक हो आपको। ना जाने क्यूँ इसके बाद मुझे ऐसा लग रहा है कि कहीं इन दोनों को बचाने की कोशिश इस लिए तो नही हो रही क्यूंकि ऐसा काफ़ी वकील करते हो। वो भी इसी प्रकार बचाव और सरकारी पक्ष मिलकर आरोपियों को बचाने का "धंधा " करते हो।
और मैं धन्यवाद देना चाहूँगा उन साथियों का जिन्होंने मेरे इस ख़याल के ये सज़ा जो इन लोगों को मिली है कम है में मेरा समर्थन किया है।

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

कानून की धज्जियाँ उडाने का इनाम : चार माह की छुट्टी और मात्र २०००/-रु का जुर्माना!


आज सुबह से देश के तमाम ख़बरिया चैनल्स वरिष्ठ वकीलों और कानून की धाज्जियाँ उड़ने वाले आर के आनंद और ऐ यू खान को दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा सुनाई गई चार माह और दो हज़ार रु के जुर्माने पर ख़बर चला रहे हैं। क्या ये सज़ा काफ़ी है? इस बारे में विचार क्यूँ नही किया जा रहा। आम तौर पर यदि कोई आम नागरिक कानून को ग़लती से भी तोड़ता है तो उसे लम्बी और कड़ी सजाएं सुनाई जाती हैं जबकि उसको कईं बार अपनी हरकत के बारे में पता ही नही होता कि उसने कोई कानून तोडा भी है या नही। मगर यहाँ तो देश को दो जाने माने अधिवक्ता थे जिन्हें कानून और उसकी सज़ाओं के बारे में पूर्ण जानकारी थी। मगर फिर भी उन्होंने एक साजिश रचने की कोशिश की। क्या उन्हें और बड़ी और कड़ी सज़ा नही मिलने चाहिए थी। मैं माननिये अदालत का सम्मान करता हूँ, मगर क्या उनकी इस हरकत पर अदालत की तौहीन का एक और मामला न चलाकर उन्हें जेल में नही डाल देना चाहिए था, जिससे एक बड़ी मिसाल कायम होती। ये तो बात रही जहाँ एक बड़ा मामला था और जहाँ हर बार मीडिया की एक भीड़ इस मामले को कवर कर रही है। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस प्रकार छोटे छोटे शहरों में जहाँ कोई स्टिंग ऑपरेशन करने के लिए मीडिया मौजूद नही होती वहाँ ये वकील किस प्रकार से गवाहों को खरीदते और बेचते होंगे या डरा धमका कर आरोपियों को बचाते होंगे।
दरअसल ये मसला है संजीव नंदा नाम के एक युवक का जिसने सन् १९९९ में ७ लोगों को अपनी गाडी के नीचे कुचल दिया था। जिसमें ६ लोग मारे भी गए थे। वही मामले के तीन दिन बाद एक युवक सामने आया जिसने ख़ुद को मामले का चश्मदीद बताया। अभी ये मामला निचली अदालत में चल ही रहा था कि ये स्टिंग ऑपरेशन सामने आया जिसमें पाया गया कि किस प्रकार बचाव पक्ष और सरकारी पक्ष के वकील इस मामले को एक तरफा बनाने पर जुटे हैं और चश्मदीद को खरीदना कहते हैं।
इस ऑपरेशन ने सबकी आँखें खोल दी। ऐसे लोग सामने थे जो कि जाने माने हैं इस कानून की दुनिया में। मगर उनकी ऐसी हरक़त ने अब न्याय मिलने की आस को फिर से अमीर की चौखट पर दम तोड़ते देखा है। यदि ये स्टिंग सामने न आता और वाकई चश्मदीद बिक जाता तो एक बार फिर से इन्साफ नही होता।
क्या ऐसा करने वालों के ख़िलाफ़ की गई कार्यवाही काफ़ी है? हलाँकि उन्हें दी गई ये सज़ा केवल उनके दिल्ली की हाई कोर्ट और निचली अदालत में प्रवेश पर ही लागू होगा, ये दोनों अपनी consultancy चला पाएंगे।
क्या ऐसे में इस सज़ा के कुछ मायेने होंगे और क्या ये केवल २०००/- रु का जुर्माना काफ़ी होगा। अब क्यूंकि ये दोनों ही जाने माने और बड़े वकील है तो यह बात तय है कि ये सर्वोच्च न्यायालय जायेंगे और हो सकता है इस मसले पर ख़ुद को कुछ बचा भी पाएं। इस मसले पर मिली उन्हें सज़ा दरअसल केवल उनके लिए नही है ये एक धब्बा है जो हमारे कानून और पूरी न्याय व्यवस्था पर लगा है और जो सामने आया है, जो सामने नही आते वो अलग है।

बुधवार, 20 अगस्त 2008

फिर से याद आने लगे हैं वो! हाल ऐ दिल!


फिर से याद आने लगे हैं वो,
न जाने क्यूँ फिर से सताने लगे हैं वो,
मैं बचने की कोशिश हज़ार करता हूँ,
पर रह रह कर ख़यालों में आने लगे हैं वो।

रहने लगी हैं रातें, फिर से तन्हा मेरी,
भरी महफिल से उठाकर, तन्हाई में ले जाने लगे हैं वो।

फिर हर एक लम्हा, ज़बान पे नाम है उनका,
मेरे नाम से पहले अपना नाम, लिखवाने लगे हैं वो।

बहुत दिन से ख़ुदा से, कुछ माँगा नही था यूँ तो,
अपना नाम दुआओं में, कहलवाने लगे हैं वो।

लगता नही है दिल, अब किसी भी काम में मेरा,
और दिल में दर्द बनकर, छाने लगे हैं वो।

बड़ी मुश्किल से दिल से, निकालने कोशिश कर रहा हूँ मैं,
मगर जितना भी भूलना चाहूं, उतने ही याद आने लगे हैं वो।

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

ज़रा सुनो तो, क्या कहती है ये यमुना!

बड़े दिनों बाद बेपरवाह बह रही है ये,

के है मुश्किल थामना पानी को ज़ंजीरों में है।

पिछले दिनों बड़े दिन बाद मुझे मौका मिला यमुना किनारा देखने का और दिल बाग़-बाग़ हो गया।पानी अजी पानी का क्या,लहरें यूँ उठ रही थी मानो आज इनका इरादा रुकने का नही है। रास्ते में आने वाले झाड़ , टूटे हुए पेड़, कूड़ा कुछ भी ऐसा नही था जो कि इसको रोक सके। हवा ऐसी कि जैसी पिछले ६-7 सालों में शायद ही चली हो।और नदी ऐसे बेपरवाह के जैसे उसे किसीसे कोई मतलब ही न हो, मानो कह रही हो "बहुत मौका दिया तुम्हे के तुम मुझे साफ़ करो. तुम तो इतने सालों में कामयाब नही हुए मगर मैंने इस बार कमर कस ली है के इस बारिश के मौसम में सारा कूड़ा और करकट, सारा गंद मुझे ही बहा के ले जाना है।" सच में मुझे ऐसे लगा कि जैसे यमुना पे बहार आई हो।

हालांकि कुछ लोगों को हो सकता है मेरा ऐसा कहना बुरा लगे कि "एक तो यमुना का जल स्तर बढ़ रहा है और ख़तरा भी मगर इस बन्दे को क्या पसंद आया इसका।" तो जनाब वैसे मेरा यमुना के साथ पुराना रिश्ता है। अगर में ये कहता हूँ कि बड़े दिन बाद किनारे पर गया तो इसमें मुझे अफ़सोस भी होता है, मगर वहां जाना मैंने उस बदबू के कारण छोड़ा जो कभी आपको नाक से कपड़ा हटाने नही देती। मैं लक्ष्मी नगर में रहता हूँ और इस इलाके को जानने वालों को पता होगा कि ये यमुना के किनारे ही बसा हुआ है। कभी अपना बचपन, अपनी उदासी के लम्हे, और अपनी पढाई के दिन सब वही हुआ करते थे। जब दिल करता कि यार बैचैनी हो रही है तब साइकिल लेकर या पैदल ही उस ओर चल पड़ते। सुबह को घूमने जाना हो या शाम को दोस्तों के साथ वक्त गुजारना हो, गर्मियों की छुट्टियां तो मानों वही ख़त्म होती थी। उसी इलाके के आसपास के खेतों ओर किनारे पर जमें पेड़ों से पत्ते तोड़कर अपनी प्रयोग की पुस्तक को सजाया जाता था। जब पता चला कि उदासी नाम की भी कोई चीज़ होती है तो भी वही जा बैठते थे। इसके बाद इम्तिहान की तैयारी, सब इकठ्ठा हुए और चल दिया यमुना के तीर।मुझे आज भी याद है हम कक्षा १० कि तैयारी कर रहे थे। फरवरी के माह में शाम को किनारे बैठे - बैठे ऐसी सर्द हवाएं चलने लगी कि मानो आज ये बैठने ही नही देंगी और हमने अपनी साइकिल उठा के वापस लौटना ही बेहतर समझा।

फिर वो वक्त भी आया के जब यमुना के किनारे बैठना तो दूर, खड़े होना भी मुहाल होने लगा। ये ऐसा वक्त था जब बड़े ज़ोर शोर से यमुना बचाओ और यमुना सफाई अभियान चल रहे थे। हम ये सोचकर हैरान थे कि हो क्या रहा है। बजाये साफ़ होने के ये यमुना गन्दी क्यूँ होने लगी है। मगर कोई जवाब नही। और फिर धीरे यमुना का हाल ज़माने ने देखा और सब इस यमुना को गंदे नाले के नाम से जानने लगे। जब भी कोई इसे गन्दा नाला कहता मुझे बड़ा अफ़सोस होता था। मगर सच्चाई से मुँह फेरना काम नही देता। अपना भी मन हुआ कि किसी ऐसी संस्था से जुडा जाए जो इसे साफ़ करने का इरादा रखते हैं। कुछ संस्थाओं का पता भी चला मगर अधिकतर का इरादा सफाई से शोर ज़्यादा मचाने में था। हर कोई बस यही चाहता है कि सरकार कुछ करे और बाकी लोग बस नुक्ताचीनी करते रहे। ख़ुद का इरादा बस अखबार और टीवी पर ही आना होता था। आज भी जितनी संस्थाएं है अधिकतर अपना प्रदर्शन केवल टीवी के सामने ही करती है और उसके बाद अपने टेंट उखाड़ कर चलती बनती हैं। यहाँ भी दिल टूट गया तो फिर यमुना किनारे ही आकर बैठ गए और नाम पर एक कपड़ा रख लिया।

मगर यमुना को साफ़ करने का जो रास्ता आज यमुना ने दिखाया है हमें उसको समझना चाहिए। हमें यमुना को साफ़ करने कि ज़रूरत नही है। अपनी गन्दगी तो यमुना ख़ुद बहाकर ले जायेगी, ज़रूरत इस बात की है कि हम इसमें और गंदगी को न जाने दें। आज यमुना काफ़ी हद तक साफ़ है यदि इसमें आगे से हम गंदगी को जाने न दें तो ये दुबारा अपनी पुरानी रंगत में आ जायेगी।

रविवार, 17 अगस्त 2008

जब बॉस की खिंचाई का मौका मिल जाए!


ऐसा कितनी कम बार होता है कि आप को बात बात पर टोकने वाला आपका बॉस कहीं, खासतौर पे किसी मीटिंग में बाकी स्टाफ के पीछे पड़ा हो और उस समय आपको मौका मिल जाए उसकी खिंचाई करने का, तो सोचिये कैसा मज़ा आता है.
मेरी पहली जॉब थे। उस समय मैं एक कॉल सेंटर में था और एक बड़ी टेलिकॉम कंपनी के कस्टमर केयर में था, ज़ाहिर सी बात है कस्टमर केयर में था लोगों की सेवा मेरा कर्तव्य था। अलग बात ये है कि हम केवल लोगों की सेवा में विश्वास रखते थे, मगर अपने बॉस कि जी हुजूरी नही बजाते था। तो जनाब पहले ही हमारे अपने बॉस से ऐसे रिश्ते थे जैसे भारत और पाकिस्तान के,मतलब मिलते तो थे मगर हमें पता है उनके ह्रदय में हमारे लिए ज़बरदस्त श्लोक चल रहे होते थे। उस पर वो हमें निकल पाने में अक्षम था कारन अपना मस्त रिकॉर्ड जिसमें ऑफिस के लोगिन टाइम के अलावा सब हरे रंग से रंग होता था और साथ में बेस्ट performer में नाम भी। तो जनाब अक्सर इस चक्कर में रहते थे कि इन्हे कुछ कहने को मिल जाए, मगर हम कहाँ किसीके हाथ आने वाले।
मौका उसे तब मिल गया जब टेलिकॉम कंपनी से शिकायत आई के हमारे सेंटर में ज़्यादातर लोग CRM के एक ख़ास header से कुछ ज़्यादा ही मुहब्बत करते हैं और जो समझ नही आता उसे एक ही header में डाल कर उसकी entry कर देते हैं। हमें एक बात और बताई गई थी कि यदि किसी ग्राहक को अपना फ़ोन नम्बर याद न हो तो उसकी तकनीकी शिकायत को आगे न बढाया उससे कहा जाये को वो अपना नंबर याद करके या पता करके संपर्क करे और उसकी एंट्री CRM के अलग एक सामान्य हेडर में दर्ज कर दिया जाये.मज़े की बात ये थी कि ये बात हमारे बॉस को पता नहीं थी.
अब शिकयत के बाद हमारे बॉस ने हमें एक कक्षा में बुलाया और लगे सबकी खिंचाई में। मजेदार बात ये थी कि हमारे टीम लीडर पूरी तरह से सारे प्रोसेस को समझता था और उसके पास सबकी परफोर्मेंस रिपोर्ट भी होती थी और कौन क्या और कितना जानता है उसे पता था तो वो पहले में मेरे पास बैठा था. सब से होते हुए बात मेरे पास पहुंची कि "नदीम जी आपके पास ये कॉल आई थी और आपने लिखा है कि ग्राहक की ये परेशानी है और उसे कहा गया कि नंबर लेकर कॉल करे. जब आपको उसकी परेशानी पता थी तो पहले तो आपने उसकी शिकायत को आगे क्यूँ नहीं बढाया और उसकी CRM में एंट्री आपने इस हेडर में क्यूँ की?" इतना कहना था और हमारे बॉस साहब सीना चौडा करके सबकी तरफ देखने लगे और शायद सोच रहे हो कि आज तो मैंने नदीम को पकड़ लिया है और इसकी खिंचाई होगी. मगर मैंने आगे से एक सवाल दाग दिया कि "आप ही बताईये जब ग्राहक को अपना नंबर ही पता नहीं था और वो कॉल दुसरे नंबर से कर रहा था यदि में शिकायत को आगे बढा देता तो क्या उस पर कोई कार्यवाही होती? मैंने आगे कहाँ कि कोई और समस्या होती तो में एक dummy नंबर लेकर उस पर शिकायत दर्ज करके आगे बढा देता और alternate नंबर कि सहायता से बाद में हम उसका नंबर लेकर उसकी परेशानी को हल कर सकते थे". आगे से जनाब ने पता नहीं क्या सोचा और बोले तो कर देते dummy नंबर में शिकायत दर्ज. इतना बोलना था और सारे कमरे में ठहाके गूंजने लगे. अब भी बॉस को पता नहीं चला कि क्या हुआ है तो उन्होंने हमारे टीम लीडर को देखा और उसने कहा सर पहली ही लाइन में लिखा है टेक्नीकल प्रॉब्लम तो इसमें ये क्या करता? सही जवाब दिया और सही जगह एंट्री कर डाली.अगर ये इसकी शिकायत कर देता तो आप ही इसे पकड़ लेते. काफी देर तक कमरे में हंसी बंद नहीं हुई और बाद में उन्होंने कहा यार तुम लोग ख़ुद ही इस समस्या को discuss कर लो मुझे बाद में बता देना और वो निकाल लिए. इसके बाद क्या discuss होना था? बस यही discuss होता रहा कि बॉस के चेहरे का रंग कैसा हो गया था और वो कैसे घबराए हुए से नज़र आ रहे थे.

उस दिन के बाद वो मेरे सामने आते तो कहते नदीम जी कोई समस्या तो नहीं है, ज़रा इन नए executives को देख लिया करो और सारे नए लोगों को मुझसे ज़रूर मिलवाते थे। हाँ लड़कियों से हम पहले ही मिल लिया करते थे.:)

शनिवार, 16 अगस्त 2008

ये मेरे यार की बातें हैं! कुछ मेरी डायरी से!

ये मेरे यार की बातें हैं!
ये मेरे यार की बातें हैं!
तसव्वुर में मेरी आज भी वो बसता है,
जिसके तसव्वुर में कभी हम शामिल थे साँसों की तरह।
है अब उन्ही का नाम, जो इन लबों से निकलता है,
जिनके लबों पे हम बसते से, क़ल्मों की तरह।

बोलने वाले ने कह दिया था काफ़िर उनको,
मगर वो मिलते थे हमसे इबादत की तरह,
न जाने क्यूँ नही आए मेरी मय्यत पर भी,
जो न रहते थे हमसे दूर किसी साए की तरह।
ये मेरे यार की बातें हैं!
ये मेरे यार की बातें हैं!

शुक्रवार, 8 अगस्त 2008

वो मेरा चैन लूटकर फिर से जाएगा : कुछ मेरी डायरी से!


वो मेरा चैन लूटकर फिर से जाएगा,
ये पता भी है मगर फिर भी एतबार कर रहे हैं हम,
लगता है बहुत ज़िन्दगी खुशियों में गुज़ार ली हमने,
जो फिर ग़मों को सलाम कर रहे हैं हम।


कर रहे हैं उसी बेवफा पे यकीन फिर से,
के फिर से उसे बवफा कह रहे हैं हम.


मेरी ग़लतियों को माफ़ कर देना दोस्तों,
के मौत से पहले आखिरी सलाम कर रहे हैं हम।


यूँही बैठा हुआ था तो फिर ख़याल उनका आगया यारों,
वरना यूँही नही दिल उदास कर रहे हैं हम।


कल कर रहा था शोर कौवा छत पर भी हमारे,
हमने कहा अब मेहमां का नही, मौत का इन्तेज़ार कर रहे है हम।

बुधवार, 6 अगस्त 2008

वो कभी अपने तो कभी पराये दिखाई देते है.....

यादों से भरी इस दोपहरी में
खिड़की से आती रोशनी के बीच
कुछ धुंधले से साए दिखाई देते है.....
वो कभी अपने तो कभी पराये दिखाई देते है...

दिन की रोनक के बीच भी
आज कुछ अकेल सी महसूस होती है
आस पास गूंजती आवाजों में वो गीत पुराने सुनाई देते है...
वो कभी अपने तो कभी पराये दिखाई देते है.....

दिन की तपती धुप में भी
इश्क के ठंडे साए है
दिन के उजाले में भी उन्हें दुनिया से छुपाये बेठे है...
वो कभी अपने तो कभी पराये दिखाई देते है.....

सुबह से शाम हो गई
और फ़िर यह दिन भी ढल जाएगा
हम भुजती शमाओं के बीच इन्तेज़ार की लौ जलाये बैठे है...
वो कभी अपने तो कभी पराये दिखाई देते है.....

उनके पैगामों के इन्तेज़ार में पलके बिछाये बैठे है...
आस पास होती हर दस्तक पे दिल धड्काए बैठे है....
कहने को तो कोई रिश्ता नही बाकी...
पर क्यों वो आज भी कुछ पराये तो कुछ अपने दिखाई देते है.......

रविवार, 3 अगस्त 2008

plz vacate the seats for physically challenged, senior citizen and ladies.........

कई दिनों से मैं की metro के interiors की शोभा बढाती एक नई हरी पट्टी को देख रही हूँ....जो कहती है केवल महिलाओ के लिए........इससे पहले भी अक्सर यह घोषणा सुनने को मिल जाती है की ..... plz vacate the seats for physically challenged, senior citizens and ladies.........काफी दिन यह देखने के बाद बात साफ़ हो गई की न तो लोगो पर उस घोषणा का कोई असर होता दिखता देता है और न ही इस नई हरी पट्टी का.....वैसे जहाँ आज की नारी समानता की गुहार लगा रही है वहां इस प्रकार का छोटा सा आरक्षण भी उसे कहीं न कहीं दिखा जाता है की वो जो मांग कर रही है वो उसका अधिकार नही.......और इस तरह का आरक्षण किस प्रकार किसी महिला की उन्नति या प्रगति में सहायता करता है यह बात भी मुझे तो समझ नही आती क्यूंकि आजतक महिलाओ को न तो संसद में कोई आरक्षण प्राप्त है और न ही सरकारी नौकरियो में तो यह आरक्षण क्यों??.....और जहाँ तक बात रही की छेड़ छाड़ से बचने की तो यह उपाए किसी तरह से कारगर होता मुझे तो नही दिखता....क्यूंकि आज भी मुझे उन सीट्स पे महिलाओ से ज़्यादा पुरूष ही बैठे दिखाई देते है.....पता नही या तो उन्हें हिन्दी या अंगेजी पढने में कठिनाई होती है या उनको ख़ुद के पुरूष होने पर शक है.......मैंने अक्सर देखा है की मदद मांगने वाले को मदद मिल ही जाती है सीट मांगने पर अक्सर लोग उठ जाते है.......पर यहाँ तक यह बात सच है वहीँ यह बात भी सच है की कुछ इतने महान सज्जन किसम के लोग होते है जो यह देखते हुए भी की कोई महिला चकरा रही है महिला -सीट का मोह नही त्याग सकते....फ़िर इस हालातो में मेट्रो में एक छाप मात्र लगा देने का क्या लाभ....जब तक लोग उसका अर्थ न समझे.....मैंने अक्सर देखा है की अगर कोई महिला बढ कर किसी पुरूष को सीट खाली करने को बोलती है तो हालाँकि उसे उठाना तो पढता है पर चहरे के हाव भाव से पता चल जाता है की जनाब को बात ज़रा भी पसंद नही आई.....और हाँ कुछ लोग उसे महिलाओ की दादागिरी का भी नाम दे देते है......तो जहाँ एक बड़ा ही गैर ज़रूरी सा आरक्षण महिलाओ को दे दिया जाता है वहीँ अगर वो उसे आगे बड़ के मांगे तो वो दादागिरी कहलती है.... यह कुछ पुरूषप्रधान समाज में रहने के कुछ नियम है शायद.......जिन्हें मानना ही पड़ता है....

शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

अगर है, तो ये मुहब्बत क्यूँ है ? हाल ऐ दिल!

इन्तेज़ार मुहब्बत की किस्मत क्यूँ है?
और अगर है, तो ये मुहब्बत क्यूँ है ?

क्यूँ नही मिलता जवाब इन सवालों का,
मुहब्बत के बिना ये जिंदगी अधूरी क्यूँ है?

करता हूँ ये सवाल मैं इस सारे जहान से,
ये मुहब्बत के साथ जुदाई, हकीक़त क्यूँ है?

क्यूँ नही रह सकता कोई मुहब्बत के बिना,
जब पता है इसकी किस्मत में बस ग़म ही ग़म हैं?

गुरुवार, 31 जुलाई 2008

मायावती की मूर्ती न गिराओ! एक मज़दूर की गुहार!

कल जब से सुना है कि मुलायम सिंह ने कहा है यदि वो सत्ता में आएंगे तो मायावती की मूर्तीयों को गिरा दिया जाएगा। ये बात सुनते ही मुझे उन मूर्तिकारों का ख़याल आ गया जिनके पास आजकल इस प्रकार की भव्य मूर्तियाँ बनने का मौका नही होता। और ये जो एक दो मौके साल में उन्हें मायावती उपलब्ध कराती है तो जनाब भाई मुलायम सिंह जी उम्हे तुड़वाने पर तुल गए हैं, जबकी अभी मायावती का इरादा ऐसी और कईं मूर्तियाँ लगवाने का है। अब बेचारे मज़दूर क्या करेंगे। पहले तो आजकल ऐसे नेता नही है जिनकी मूर्तियाँ बनाकर किसी चौराहे या पार्क में लगायी जायें और जो एक-दो नेता ऐसे है जो कि ख़ुद को महान साबित करना चाहते हैं तो उन्हें उनके राजनीतिक दुश्मन मूर्ती बनाने नही देते। नुक्सान किसका है? इन मज़दूरों का। जहाँ सारा देश अच्छे नेताओं के लिए दुआ मागता है और अपने रब से शिकायत करता है कि तूने ऐसे नेता बनाने क्यूँ बंद कर दिए वहीँ शायद ये मज़दूर ये दुआ करते होंगे ऐ रब तूने पहली बार तो ऐसे नेता बनाये हैं जो जीते जी अपनी मूर्ती बनवा के लगवाना चाहते है तू इन्हे और हौंसला दे कि ये तमाम विरोध के बावजूद अपनी मूर्ती लगवाते रहे।

रही मूर्तिकारों की तो इनकी परवाह है किसे? जो पहले बड़े और महान नेताओं की मूर्तियाँ बनाते थे वही अब केवल भगवान् की मूर्ती बनते है जिससे इनका हौसला बढ़ता है या फिर कुछ सजावटी वस्तुएं जिनसे शायद ही इनका कुछ खास भला होता होगा।

बुधवार, 30 जुलाई 2008

मेरे दोस्त के लिए! हाल ऐ दिल

कुछ तो दोस्तों के लिए भी बनना पड़ेगा,
कुछ उनका ख़याल भी करना पड़ेगा,
कब तलक गुज़रा पल याद करते रहे?
हमें आज को भी तो जीना पड़ेगा

रूठ जायेंगे वो भी खुशियों की तरह,
उनको भी तो दामन में भरना पड़ेगा

हैं अगर नाराज़ मेरा वो दोस्त तो क्या,
मैं जानता हूँ उसे मेरी खुशियों की खातिर हँसना पड़ेगा

गलतियां होती तो इंसान से ही हैं, समझ ले मेरे यार,
मैं जानता हूँ मुझे इंसान से ऊपर तेरे लिए उठाना पड़ेगा

मान भी जा अब, कब तलक रूठेगा मुझसे,
अब क्या तेरे आगे भी मुझे झुकना पड़ेगा।




मेरे दिल की बातों का जो असर हुआ होता। हाल ऐ दिल!

मेरे दिल की बातों का जो असर हुआ होता,
तो न मैं तन्हा होता और न तू तन्हा होता,
करते यूँही दीदार एक दूसरे का क़रीब से हम,
न दूर मैं आया होता और न दूर तू गया होता।


ज़िन्दगी में नही रहता हमेशा साथ कोई तो क्या,
हमें एक और पल तो साथ में मिला होता,
कोई फूल तो इस चमन में भी खिला होता,
मेरे दिल की बातों का जो असर हुआ होता।


यूँ तो दुनिया की क़ामयाबी के लिए दिमाग़ से सोचना ज़रूरी होता है,
पर मुहब्बत में इसका काम नही होता,
काश उस एक पल हमने दिमाग़ से न सोचा होता,
मेरे दिल की बातों का जो असर हुआ होता।


है फिर कमी सी इस चमन में,
जहाँ मिलकर किया था गुलशन को गुलज़ार हमने,
इसमें यूँ मातम सा न पसरा होता,
मेरे दिल की बातों का जो असर हुआ होता।

रविवार, 27 जुलाई 2008

मेरा क्या क़सूर? हाल ऐ दिल!

फिर वही चीख़ पुकार,
फिर वही रोते बिलखते बच्चे,
फिर उन ज़ख्मों पर नमक छिड़कते लोग,
फिर वही लाशों का ढेर और उस पर बैठे ठेकेदार,
फिर वही बेबस सी नज़रें किसीका इन्तेज़ार करती हुई,
फिर से ख़ुद को ठगा सा महसूस करते माँ- बाप,
फिर वही नफरत की नज़र से मेरी तरफ़ देखते लोग

ये वो तोहफा है जो मुझे, अपना भाई कहने वालों ने फिर से दिया है।
नफरत, ढेर सी नफरत बिना कुछ किए हुए। मेरा क्या क़सूर?

शनिवार, 26 जुलाई 2008

ग़मो को खुशियो का नाम देते है....

ग़मो को खुशियो का नाम देते है
चाहते हुए भी उन्हें बाँट लेते है
ज़ख्म मिले है हमे अपनों से इतने
की अब गैरों से अपनों का काम लेते है
अपनों की वजह से ज़िन्दगी में गवाया बहुत है
गैरों ने भी अपना बन के रुलाया बहुत है
अकेले रह के खुशी का एहसास लेते है
तन्हाई में भी अब ग़म ही साथ देते है
ग़मो को खुशियो का नाम देते है
चाहते हुए भी उन्हें बाँट लेते है

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

ज़िन्दगी.....

तमाशबिनो सी हो गई है ज़िन्दगी॥
बीच रस्ते में कहीं खो गई है ज़िन्दगी॥
कोई रास्ता कोई मकसद दिखाई देता है॥
खानाबदोशों सी हो गई है ज़िन्दगी॥


सहरो की मोहताज बनी है ज़िन्दगी॥
अपनों का ही शिकार बनी है ज़िन्दगी॥
कोई अपना सहारा दिखाई देता है॥
बंजर सी हो गई है ज़िन्दगी॥


खौफनाक खवाब सी लगती है ज़िन्दगी॥
अँधेरी रात सी अब डसती है ज़िन्दगी॥
कोई उम्मीद रौशनी दिखाई देती है॥
रोते रोते अब तो सो गई है ज़िन्दगी॥


फूलों की चादर सी चाही थी ज़िन्दगी॥
काँटों की सेज सी पाई है ज़िन्दगी॥
कोई महक मरहम दिखाई देता है॥
एक कशमकश सी हो गई है ज़िन्दगी॥


दर दर भटकती है ज़िन्दगी॥
बस गमो को ही जगह देती है ज़िन्दगी॥
कोई खुशी मंजिल दिखाई देती है॥
बिल्कुल गैर ज़रूरी सी हो गई है जिन्गदी..

बुधवार, 23 जुलाई 2008

तन्हाई..

रात की तन्हाई बहुत कुछ कह जाती है,
दुनिया सो जाती है और यह तन्हाई रह जाती है
यादों का बड़ा गहरा याराना लगता है तन्हाई से
हमेशा तन्हाई में ही हमे घेरे चली आती है

फ़िर न आंखों में नींद और न सपने बसर करते है
उनकी जगह बस आंखों में आंसू ही बसेरा करते है....
चाहत हमे भी है खुशनुमा रातें बीतने की
पर हम इसी कागज़ और कलम का सहारा करते है
वो कहते है की सपने न देखा करो वो टूट जाते है
पर हम कहते है कम से कम वहां तो उनके दीदार हो जाते है
पर कमबख्त उनकी मसरूफियत का तो आलम ये है
की वोह सपनो में भी कम ही आते है

और हम जाग जाग के उनकी याद में रातें बिताते है................

मंगलवार, 22 जुलाई 2008

बहुत दिनों से कुछ माँगा नही है तुमसे! हाल ऐ दिल!



बहुत दिनों से कुछ माँगा नही है तुमसे,
सोचता हूँ आज कुछ मांग कर देखूं

यूँ तो देख चुका हूँ हर दर्द जिंदगी का मैं,
सोचता हूँ एक और मांग कर देखूं

है वैसे तो मुश्किल तुम्हे भूल जाना मगर,
सोचता हूँ इसको भी एक मौका देकर देखूं

था मैं भी कुछ बदनसीब के बस खुशियाँ ही मांगी दुआओं में,
अब सोचता हूँ कुछ और ग़म मांग कर देखूं




सोमवार, 21 जुलाई 2008

कह दो उनसे..................

कह दो फ़िर की खवाबो में न आया करे
रह रह कर हमे न सताया करे
रो चुका हूँ उनके लिए बहुत आज तक
जीने का मौका मुझे भी मिले कुछ पल अपने लिए....

हसीनो की तो जैसे आदत ही है हमे सताना
पहले हँसा के फ़िर रुलाना
कह दो उनसे की शिकारी की नजरो से न देखा करे हमे
इस दिल ने नही सिखा किसी को अपना बना के फ़िर भुलाना.....

तड़प तड़प के मरना न था मंज़ूर हमे
पर अब तो मौत भी मयस्सर नही
वादा किया है उनके बिना जीने का उनसे ही
कह दो उनसे की न सिखा हमने वादा करके मुकर जाना

आज भी जलाते है वो यादों में आके
कभी मुस्कुरा के तो कभी पलके झुका के
न भूलेगा वोह तुम्हारा बालों का मेरे चेहरे पे गिरना...
पर कहदो उन यादों से जा के की अब मुझे न सताना


न मेरे खवाबो में आना और न मुझे रुलाना
दिल से पत्थर बना है यह इसे फ़िर से दिल बना के न दुखाना...........


रविवार, 20 जुलाई 2008

सपने............

सपनो की अपनी अजब कहानी
बचपन में बड़े प्यार से दिखाती थी नानी दादी
सपना वो जो कहने को एक छलावा था
पर कहीं कहीं वो हमारा था
सपनो में जो चाह वो पाना था
और जो खोया उसे खोने का डर जाना था
सपनो की डोर अपने हाथ तो थी
सपनो की कहानी अपने साथ तो थी
सपना एक आहात से टूट गया
एक पल में ही उससे नाता छुट गया
सपनो की दुनिया निराली थी
कभी खुशियो की हरियाली थी
तो कभी ग़मो की लाली थी
सपने हो तो जीने का मज़ा हो
सपना क्या है? ज़रा सोचो तो-
मुट्ठी से फिसलती रेत, या विचारो की बहती नदी-
जिंदगी को कभी सपनो में जिया करते थे
तो कभी मेहनत से सपनो का सिया करते थे
पर आज कल सपनो की भी बोली लगती है
सपनो की भी अपनी मंदी सजती है
पर जीने के लिए सपना ज़रूरी है
एक प्यारे से सपने के बिना जिंदगी अधूरी है
सोने और मौत का अन्तर भी यही
और मेरी और आपकी जिंदगी का भी अन्तर यही .......

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails