कोतुहल मेरे दिमाग में उठता हुआ एक छोटा सा तूफ़ान है.जिसमें में अपने दिल में उठा रही बातों को लिख छोड़ता हूँ.और जैसा की नाम से पता चलता है कोतुहल.
शनिवार, 23 अगस्त 2008
हाईकोर्ट की ग़लती क्या है? वकीलों को दी गई सज़ा या बार कौंसिल के कार्य में हस्तक्षेप?
मेरे कल और परसों के लेख पर कईं साथियों का साथ मिला और इस पर मुझे कुछ जानकारियों से भरे मेल भी प्राप्त हुए। मुझे बताया गया कि उच्च न्यायालयों को सज़ा सुनाने का अधिकार ही नही है। और किसी वकील के कार्य पर केवल बार कौंसिल ही फैसला ले सकता है। हालांकि बात मेरे गले आसानी से नही उतरती मगर क्यूंकि मैं कानून का कोई जानकार नही हूँ तो इस पर बहस नही कर सकता। मगर मैं वकील बिरादरी से ये पूछना ज़रूर चाहूँगा कि क्या उनकी परेशान ये है कि हाई कोर्ट ने उनके कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप की कोशिश की या ये कि उनके साथियों को सज़ा दी गई? क्या एक दिन की गेरहाज़री से अपना पक्ष रखने की बजाये वो हाई कोर्ट के इस फैसले जिसमें बकौल बार कौंसिल हाई कोर्ट ने उनके कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप किया है के ख़िलाफ़ कोई अपील दायर नही कर सकते थे जिससे कि देश की जनता तक एक सही संदेश जाता। और वो ख़ुद कोई ऐसी पहल क्यूँ नही करते जिससे भ्रष्ट वकीलों पर कार्यवाही हो सके।
और एक बात जिसपर कोई वकील तो कम से कम बात शायद नही करना चाहता कि आख़िर उन्हें जो सज़ा दी गई है क्या वो काफ़ी है? जब एक इंसान जो छोटी मोटी गलतियां करता है जाने या अनजाने में तो उसे बड़ी बड़ी सजाएं दी जाती है तो वहां केवल ४ माह की अदालत में घुसने पर पाबंदी और २०००/- रु मात्र का जुर्माना क्या दिखता है?
क्या वकीलों को ये दिखाई नही दे रहा और इस प्रकार के इन्साफ के खिलाफ वो कुछ क्यूँ नही करते। क्यूँ पहल नही करते कि इन और इन जैसे वकीलों को कदा दंड दिया जाए? क्यूँ नही इसको एक मुहीम बनाया जाता?
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कोई भी व्यक्ति किसी भी पेशे से हो, कितने ही ऊँचे पद पर बैठा हो उसे अपराध की सजा मिलनी ही चाहिए। कानून में सजा कम पड़ती हो तो कानून को बदलना चाहिए। उच्चन्यायालय सजा दे सकता है। भारत में तीन तरह की सजाएँ दी जा सकती हैं। जिस में मृत्यु दंड, कारावास और अर्थ दण्ड सम्मिलित है। ये सजाएँ अदालत दे तो कोई आपत्ति नहीं है। जिस को आपत्ति होगी वह अपील करेगा। लेकिन किसी नौकरी करने वाले की नौकरी केवल उस का नियोजक छीन सकता है। उसी तरह किसी व्यक्ति को वकालत करने की अनुज्ञप्ति केवल बार काउँसिल ही जारी कर सकती है और वही उसे निरस्त या निलम्बित कर सकती है। ऐसा करने पर गलती करने पर बार काउँसिल के निर्णय को उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती दी जा सकती है। यहाँ न्यायपालिका ने बार काउंसिल के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप किया है। निश्चित ही वकीलों की आपत्ति उचित है। अदालत बार काउंसिल को निर्देश दे सकती थी कि वह ऐसे वकीलों के खिलाफ कार्यवाही करे। यदि स्वयं न्यायालय ही कानून की पालना नहीं करेंगे तो उन की खुद की गरिमा क्या रह जाएगी?
जवाब देंहटाएंदिनेशराये जी आपके द्वारा प्रदान की गयी जानकारी के लिए मैं आपका धन्यवाद देता हूँ. मगर मेरी बेचैनी ये है कि बार काउंसिल के पास ये मामला पिछले १५ महीनो से पड़ा हुआ था उस समय क्या इस पर कार्यवाही नहीं की जा सकती थी? और ये भी मैं मान लेता हूँ कि हाई कोर्ट ने फैसला देते समय अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर का काम किया है मगर क्या विरोध स्वरुप बाकी वकीलों का अदालत न जाना एक सही क़दम है? क्या बार कौंसिल हाई कोर्ट के इस फैसले को चुनौती नहीं दे सकती थी किसी अदालत में.मुझे परेशानी इस बात से हो रही है कि इस जघन्य अपराध के लिए अभी तक बार कौंसिल ने कोई निर्णय इन वकीलों के विरूद्ध क्यूँ नहीं लिया.और अभी भी कोई इस बारे में बात नहीं कर रहा कि उन्हें और ये सज़ा नहीं मिली है, इससे उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ेगा अगर वो ४ माह अदालत न जाये और जुर्माना भर भी दें और लोग भी इस बात को कुछ दिनों में भूल जायेंगे.क्या हमारा कानून ऐसा लोगों के दरवाज़े पर दम तोड़ता रहेगा? बार कौंसिल क्यूँ ऐसा प्रावधान नहीं करती कि ऐसे वकीलों को हमेशा के लिए अदालत जाने से रोका जाये.मुझे ऐसा लग रहा है जैसे ये इन्साफ कि नहीं बल्कि बार काउंसिल और अदालत के अहम् का सवाल बन गया है.
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