गुरुवार, 24 अप्रैल 2008

कब तलक तुझको याद करता रहूँगा मैं?:कुछ मेरी डायरी से!

कब तलक तुझको याद करता रहूँगा मैं?

बस यही सवाल है जिसने मुझे परेशां किया है।


वो मुस्कुरा रहा है मेरी तड़पन देखकर,

जिसके ज़ख्मों पे मरहम मैंने लगाया है।


संभल जाता अगर होता कोई दुश्मन मारने वाला,

मेरा तो दिल था जिसने खंजर इस सीने में उतारा है,

भूल जाता है क्यूँ कोई ज़ख्म देकर भी,

और हमने क्यूँ तेरा ग़म इस सीने से लगाया है?


इबादत है मुहब्बत लोगों से सुना था हमने,

मगर वो क्या करे जिसको इस मुहब्बत ने काफिर बनाया है।


हज़ारों बार तेरा ख्याल मुझे रात को उठाकर गया,

और जागते हुए भी नींद सा आलम तेरे ख्याल में पाया है।

मंगलवार, 22 अप्रैल 2008

ज़िंदगी का फन: कुछ मेरी डायरी से!

ऐ मेरे दोस्त न समझना मुझको नादां,

के हमने भी दिल में उतरने का फन सीखा है।

एक तुम्ही नही हो हर चीज़ पे हावी,

हमने भी ज़िंदगी का तमाशा देखा है,

वो तेरे कहने से मान जाएगा मैं जानता हूँ,

उसको मनाने के लिए मैं नही कहने वाला,

उसने अगर तडपाने का हुनर सीखा है,

हमने भी तड़पने का हुनर सीखा है।

हर जगह है वो मौजूद,

इसमें कहने की क्या ज़रूरत है?

वो तो ख़ुदा है तुम्हें पता नही?

उसको न किसी ने देखा है।

कह रहे हैं हम अब सुबह-शाम, रात-दिन ये,

हम भी बन्दे हैं तेरे, ऐ रब तेरे चाहने वाले हैं,

पर ऐसा है क्यों के तू ,

कुछ चुनिंदा लोगों के ही घरों में ही बैठा है?

मुझे कुछ लोग कहते हैं,

के बस मैं शिकवा ही किया करता हूँ,

पर तेरे दर के सिवा,

न कोई दूसरा दर मैंने देखा है।

गर दर्द दिया है तो तूही दवा देगा,

ऐसा मैंने तेरे कलाम में कहीं देखा है।

सोमवार, 21 अप्रैल 2008

मन नही कर रहा लिखने का!!!!!!!!क्या करूं?

पिछले कुछ दिनों से जब भी लिखने के लिए बैठता हूँ कोई सूझता ही नही कि क्या लिखूं। आज बड़ी मुश्किल से चंद पंक्तियाँ अपनी डायरी से उतारी भी मगर मज़ा नही आया कुछ उसमें से मिटा दीं और जो कुछ बचा पोस्ट कर दिया। पता नही क्या वजह है आजकल लिखने का मन नही करता। कभी-कभी लिखने के लिए कोई विषय नही मिलता तो कभी न जाने क्यों सोचता हूँ कि इस विषय पर न लिखूं। पहले मैं सोचता था कि जब भी मन करे लिख डालो मन थोड़ा हल्का हो जाता है, अपने दिल से बात भी निकाल जाती है, मगर आजकल मन नही लग रहा।
क्या करें जब लिखने का मन भी न करें?

उसकी गलियों में भी जाना छुट गया: कुछ: मेरी डायरी से!

उसकी गलियों में भी जाना छुट गया,

एक बहाना था उसे निहारने का वो छुट गया।

जाने क्या जिद थी कि हम चले जाते थे उन्हें देखने,
जिन्होंने खिड़की पे आना कब का छोड़ दिया।

वो परेशां हो जाता था हमें अपनी गली में देखकर,

उसका अब यूं घबराना भी छुट गया।

गुरुवार, 17 अप्रैल 2008

उसके हाल ऐ दिल पूछने की वजह क्या है?:कुछ मेरी डायरी से!

वो पूछते हैं हाल ऐ दिल हमारा,
हम सोचते हैं उनके ऐसा पूछने की वजह क्या है?

जिसने सालों नही देखा पलटकर ख़ुद के दिए हुए ज़ख्मों को,
आज उनका ज़ख्मों पे मरहम रखने की वजह क्या है?

शायद फिर से कोई धोखा आया होगा दिल में उनके,
वरना अपनी गलती पे उनके रोने की वजह क्या है?

युनके उन्ही की वजह से हमने आंसुओं पे यकीन करना छोड़ दिया,
ये जानते हुए भी आंसुओं को बहाने की वजह क्या है?

मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

तेरे इंतज़ार में इस चोखट पे एक चिराग जलाकर रखा है:कुछ मेरी डायरी से!

तेरे इंतज़ार में इस चोखट पे एक चिराग जलाकर रखा है,

तेरी याद को अब तक सीने से लगाकर रखा है।

हम तो अब हँसते भी नही खुलकर किसीके सामने,

इस हंसी को बस एक तेरे वास्ते संभाल रखा है।

गुलाबी होती है जब डाली फूलों के भर जाने से,
हमने तेरा चेहरा उसमें मुस्कुराते देखा है।

तड़प देखी है तेरी यादों में, अंधेरे में उजाला देखा है,

एक तूने ही नही देखा, सारे आलम ने ग़म मेरा देखा है।

सोमवार, 14 अप्रैल 2008

आरक्षण: फायेदा किसका?

पता नही आरक्षण से किसका फायेदा होने वाला है। शायद केवल हमारे कुछ नेताओं का। क्यूंकि जिनके लिया वो आरक्षण की मांग कर रहे हैं उस गुट में से शायद कुछ एक ही होंगे जिन्हें इसका फायेदा मिलेगा मगर ज़्यादा बुरा उन लोगों के साथ होगा जिन्हें अब अपने ही साथियों के बीच बैठने में परेशानी आयगी। सरकार ने जिन लोगों को फायेदा दिया है उसमें कमज़ोर तबका इसका लाभ ले नही पायेगा क्यूंकि केवल आरक्षण मिलने भर से जो इन बड़े बड़े संस्थानों के खर्चे हैं वो कम नही होंगे और उन गरीब घरों के बच्चे जो कक्षा १० से आगे बढ़ने के बारे में सोचते ही नही और सोचते भी हैं तो उन्हें सुविधाएं या कहें कि पैसे ही नही मिलते कि अच्छी जगह जाकर पढाई कर सकें और मोटी मोटी फीस का बोझ उठा सकें। हाँ जो लोग उठा सकते हैं उन्हें इसमें शामिल नही किया गए क्यूंकि वो इतने साधन संपन्न हैं कि उन्हें किसी आरक्षण की ज़रूरत नही है। यानी वो क्रेमी layer में आते हैं। अब सवाल ये उठता है कि ये आरक्षण है तो किसके लिए? ये केवल नेताओं के लिए ही है जो इतना शोर मचाते हैं और लोगों को केवल दिखाना चाहते है कि उन्होंने कुछ किया है।

पहले सरकारी नौकरियों में आरक्षण,अब पढाई में आरक्षण इरादा तो अब ये है कि निजी कंपनियों में भी आरक्षण किया जाए। आज हम किसी सरकारी कम्पनी में काम सरकारी कम्पनी में काम मांगने जाते हैं तो वहाँ सब से पहले अपनी जाती लिखनी पड़ती है, यदि आरक्षण निजी कंपनियों में आएगा तो वहाँ भी वही जाती का घिनौना संसार बन जाएगा जो हम कभी कभी सरकारी दफ्तरों में देखते है जहाँ अगडी जाती और पिछड़ी जाती के लोगों की कैंटीन तक अलग अलग होती है। यानि यहाँ भी ये नेता लोग हमें बांटने की साजिश कर रहे हैं। आज नौकरी के लिए जाते वक्त हमसे नही पूछा जाता की हमारा धर्मं कौनसा है और क्या जाती है इतने प्रोफ़स्सिओनल् ज़माने में भरती विभाग केवल योग्यता ही देखता जिसकी वजह से आज हमारे देश कि कंपनियां दुनिया भर में नाम कम रही हैं। मगर यदि आरक्षण लागू हो गया तो इन कंपनियों को उसके अनुसार कार्य करना पड़ेगा जिसमें इनसे कायं अच्छे कामगार छूट जायेंगे । क्यूंकि आरक्षण लागू होने के बाद इन्हे इसका हिसाब रखना पड़ेगा कि कम्पनी में कितने छोटी जाती के लोग हैं और कितने अगडी जाती के मतलब यदि पिछड़ी जाती का कोटा पूरा होगया और एक ऐसा उम्मीदवार आया जिसकी योग्यता बहुत अच्छी है तो भी ये लोग उसे नही रख पाएंगे क्यूंकि कोटा पूरा हो गया है और उसका नंबर कट गया है। जिसका सीधा सीधा असर कंपनियों की सेवाओं पर पड़ेगा। साथ ही जिन काम करने वालों पर इसका बुरा आसार पड़ेगा उनमें नफरत और भी बढ़ जायेगी। यानी लोग साथ रहने की बहाए एक दूसरे से कट कर रहने लगेंगे।

रविवार, 13 अप्रैल 2008

आखिर अब ये बात सारी दुनिया को पता चल ही गई की भारत में लोग पोस्टमार्टम क्यों नही करते?

अंत मैं ये बात अब जग ज़ाहिर हो ही गई की भारतीये किसी के मरने के बाद शरीर का पोस्ट मार्टम क्यों नही कराते। और ये पता चला भी तो ब्रिटिश पुलिस को स्कारलेट हत्या काण्ड के बाद। उनकी जांच के अनुसार वो लोग इस हत्या काण्ड की जांच नही कर सकते क्यूंकि जांच के लिए शरीर में ज़रूरी अंग हैं ही नही। यानी न तो कोई किडनी है, नही ही uterus और न ही stomach है। इतने संवेदन शील मामले में भी हमारे एक्सपर्ट अपनी करतूत से बाज़ नही आए और उन्होंने ऐसा किया. साथ ही उन्होंने ये चीज़ कि अंग हटाये गए है अपनी रिपोर्ट में दिखाया भी नही। अब किडनी की कमी से दृग्स की जांच में मुश्किल होगी, stomach की कमी से अल्कोहल और uterus की कमी से ये बात पता लगाने में समस्या आएगी कि किसने उसे बेईज्ज़त किया। ये ऐसा शायद पहला मामला दुनिया के सामने है जिससे पता चलता है कि हमारे देश में पोस्ट मार्टम किस तरह से किए जाते हैं।
यही वो कारण है जिसकी वजह से यदि किसी कि मौत हमारे देश में किसी हादसे से होती है तो लोग उसका पोस्ट मार्टम कराने से डरते हैं। क्यूंकि उन्हें ये लगता है कि ये लोग uske सभी ज़रूरी अंग निकाल लेंगे जोकि सच भी है। अब देखना ये है कि कितने लोग इस मुद्दे को उठाते है और इसका क्या होता है?
जहाँ तक मीडिया का सवाल है तो मुझे कुछ ख़ास उम्मीद नही है क्यूंकि ये ख़बर मैंने एक अंग्रेज़ी channel पर केवल flash होते हुए देखी कोई रिपोर्ट नही देखी बाकी हिन्दी चैनल्स को ये ख़बर कितनी ज़रूरी लगती है ये देखना बाकी है क्यूंकि उनकी तरफ़ से इस बारे में कोई सूचना नही है।

गुरुवार, 10 अप्रैल 2008

तलब न होती मुहब्बत की तो ज़िंदगी मुश्किल होती.:कुछ मेरी डायरी से

तलब न होती मुहब्बत की तो ज़िंदगी मुश्किल होती,
किसी को भी दुआ की ज़रूरत न होती।

अगरचे नही होता दिल में किसीके लिए प्यार,
तो इस दुनिया में इबादत की ज़रूरत नहीं होती।

के इनकार कर नही सकते मुहब्बत के दुश्मन कभी भी,
वो भी नही होते अगर इस जहान में मुहब्बत नही होती।

मैं जानता हूँ मेरे मुंह से उसे ये बात पसंद न आएगी,
मगर हर दिल की बात किसीको मालूम नही होती।

मंगलवार, 8 अप्रैल 2008

कुछ सवाल: कुछ मेरी डायरी से!

जब तलक इस जान में रूह रहेगी,
दिल में किसी बात की कमी सी रहेगी,

कर तो सकते थे मोहब्बत में बहुत कुछ,
पर कर न सके कुछ भी इसकी तकलीफ रहेगी।

इनसां जितना भी चाहे , ख़ुदा से लड़ नही सकता,
ये कैसा इन्साफ है ख़ुदा का, इस सवाल को पूछने ज़रूरत रहेगी।

मकसद ज़िंदगी का है क्या ख़ुदा जाने,
इस बात को जानने की तफ्तीश चलती ही रहेगी।

हर वक्त वो जो मुझे नज़र आता है क्यों,
जब उससे मेरा कोई नाता ही नही है,
करता है दिल उसे याद क्यों
जब वो मेरा नही है।

सोमवार, 7 अप्रैल 2008

कमी कंटेंट की है या अभी हमने ईमानदारी से लिखना ही शुरू नही क्या?

मेरे एक हिन्दी ब्लॉगर मित्र की चिंता मैंने पढी ..उनकी चिंता बिल्कुल जायज़ थी की अभी भी

हिन्दी ब्लोग्गिंग एक दूसरे के कंधे पर चल रही है।

मगर एक बात जो मुझे लगती है वह ये है कि अभी हमने ईमानदारी से लिखना ही शुरू नही किया है।

अभी हम भी मीडिया समूह के जैसी ही सोच पाले हुए हैं और वही लिखने कि कोशिश करते हैं जिन्हें हम सोचते है कि लोग पढेंगे। हम वो नही लिखते जो हमें लिखना चाहिए इसमें मेरा नाम भी शामिल किया जा सकता है। अक्सर लिखने से पहले मैं भी सोचता हूँ कि मैं लिख तो रहा हूँ मगर क्या कोई पढ़ेगा भी। मगर इसका अपवाद यदि मैं ईमानदारी से देखूं तो मेरी ख़ुद कि ही एक पोस्ट थी जो कि मैंने अपनी चप्पलें चोरी होने के बारे में लिखी थी जो कि काफ़ी पसंद कि गई। मतलब ये कि यदि आप अपनी ईमानदारी से लिखते हैं बजाये इस बात की परवाह के कि कोई पढ़ेगा या नही तो जो कंटेंट कि कमी है वो पूरी हो जायेगी।

कंटेंट सब जगह होता है मगर इस पर विचार करने कि आवश्यकता है। यदि हम अपनी ईमानदारी बरतें और हर कंटेंट पर विस्तार से सोचें और थोडी रिसर्च करें तो हर वो लेख जो हम लिख रहे हैं ज़रूर पसंद किए जायेंगे। बाकी सब जो भी विवाद या उल्टा सीधा हम कभी न कभी लिख लेते हैं उससे छुटकारा भी मिल जाएगा।

आखिर क्या समानता है अमिताभ बच्चन और ब्लोग्वानी में?

कभी कभी सोचता हूँ कि आखिर क्या समानता है अमिताभ बच्चन और ब्लोग्वानी में?
तभी मेरा ध्यान जया बच्चन के बयान पर गया जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि किसी को अपनी बात दुनिया के सामने लानी हो तो वो इंसान अमिताभ बच्चन का नाम जोड़ देता है और इसी के साथ साथ अपने एक ब्लॉगर मित्र का एक लेख भी याद आ जाता है जिसमें उन्होंने वर्णन किया था कि किस प्रकार अपनी पोस्ट के आगे या पीछे ब्लोग्वानी जोड़ देने से उस पर देखने वालों की संख्या बढ़ जाती है।
यदि यदि किसी को अपना कोई समान या विचार बेचना होता है तो वो अमिताभ बच्चन का नाम इसमें शामिल कर देता है चाहे विवाद के तौर पे या चाहे विज्ञापन के तौर पे। मसलन यदि आपको लगे कि आपका समान नही बिक रहा है तो आप सोचेंगे कि किसी प्रकार इसमें अमिताभ बच्चन को शामिल कर इसके प्रचार किया जाए?
और यदि आप किसी राजनितिक दल के सदस्य हैं और आपको लगता है कि कोई आपको नही सुनता और आपकी राजनीति नही चल रही है तो आप अपने साथ अमिताभ बच्चन का नाम जोड़ सकते हैं चाहे प्रचार के तौर पर या चाहे विवाद के तौर पर आपकी राजनीति चल निकलेगी।
अब इसके उदाहरण यदि किसीको समझ न आया हो तो देख सकता है कि प्रचार के तौर पर अमिताभ जी का सबसे अधिक प्रयोग किया है समाजवादी पार्टी ने और विवाद पैदा कर अपनी राजनीति चमकाई है राज ठाकरे ने।
कहने का सार ये की अमिताभ के नाम पर उत्पाद और विवाद दोनों ही बिक सकते हैं।
ठीक इसी प्रकार से यदि किसीको लगता है उसके ब्लॉग पर पाठकों की संख्या नही बढ़ रही है तो वह व्यक्ति ब्लोग्वानी का नाम इसमें शामिल कर सकता है। पाठकों की संख्या अपने आप ही बढ़ जायेगी। इसके अनेक उदाहरण है॥ जिसका ज़िक्र हमारे कईं ब्लॉगर मित्र कर चुके है। वैसे इसका एक उदाहरण कोतुहल पर ही फालतू द्वारा लिखी गई पोस्ट हैं जिसमें ब्लोग्वानी का ज़िक्र था और उन पोस्ट को सबसे अधिक हिट्स प्राप्त हुए मगर जिस समस्या के लिए लिखे गए थे वो हल नही हो पाई। हाँ एक बात और यदि किसी को अपनी ब्लोगारी और चम्कानी है तो वह व्यक्ति इसमें भडास का ज़िक्र भी कर सकता है। मैंने ऐसी कईं पोस्ट देखीं हैं जिनका भडास से दूर दूर तक कोई लेना देना नही होता मगर भडास का ज़िक्र कर देने भर से चल पड़ती हैं। हाँ एक बात और यदि कोई पाठक ये समझता है की मैंने भी ऐसा ही किया है तो ये उसकी राये है जो की सही भी ही सकती है। मैं इससे इनकार नही करता।

रविवार, 6 अप्रैल 2008

आज फिर परेशां हूँ क्यों : कुछ मेरी डायरी से!

आज फिर परेशान हूँ क्यों?
जब पता है कि वो नही आने वाला,
उसके इंतज़ार में इन आंखों को मैंने बिछाया है क्यों?

न जाने क्या है जो मुझे मजबूर करता है तुझे देखने के लिए
जब पता है कि अब तेरी तस्वीर भी मुझसे मुंह चुराने लगी है,
फिर तेरी निगाहों के दीदार को तरसता हूँ क्यों?

है तो सदमा मुझे तुझसे बिछड़ने का सनम,
पर इस ज़माने के सामने कैसे कहूं,
अपने इस दुश्मन ज़माने से दिल का शिकवा करूं क्यों?

शनिवार, 5 अप्रैल 2008

आखिर कितना बड़ा है ख़बरों का बाज़ार? कितनी मांग और कितनी पूर्ति?

एक ख़बर पढी और देखी कि अब आकाशवाणी भी अपने श्रोताओं को फ़ोन के माध्यम से खबरें उपलब्ध कराएगा। सुनकर अच्छा लगा मगर एक सवाल भी मन में उठ आया कि कितना बड़ा है ख़बरों का संसार और कितना बड़ा है इसका बाज़ार?और क्या इस सेवा को प्रारम्भ करने से पहले आकाशवाणी ने कोई रिसर्च किया था? बाज़ार में कितने ही खबरिया चैनल्स और अखबार पहले से ही मौजूद हैं। और साथ ही विभिन्न टेलीफोन कंपनियां फ़ोन पर ख़बरों की सेवा वौइस् पोर्टल और sms दोनों द्वारा उपलब्ध करा रही हैं। तो कितना सफल होगा ये नया क़दम जो कि आकाशवाणी ने उठाया है। हो सकता है कि इसका खर्च उपभोक्ता को कम सहना पड़े मगर क्या उपभोक्ता इस सेवा का लाभ लेगा? या ये भी अन्य सरकारी खर्चों की ही तरह एक और घाटे का सौदा साबित होने वाला है। जहाँ तक मुझे लगता है कि उपभोक्ता शायद इस सेवा को लाभ नही ले पायेगा क्यूंकि पहले तो इस सेवा के बारे में अधिकतर लोगों तक जानकारी नही पहुँचाई गई है और न ही पहुँचने वाली और दूसरी और जहाँ शहरों में इसका पता चला है वहाँ के लोग इसमें दिलचस्पी दिखायेंगे इसमें भी मुझे शक ही है।
मेरी राये यही है कि एक और बहतरीन योजना जोकि काफ़ी देर से आई है इसी तरह दम तोड़ देगी जैसे अन्य सरकारी योजनायें तोड़ती रही है।

गुरुवार, 3 अप्रैल 2008

भारतीये क्रिकेट टीम का प्रदर्शन:कभी का दिन बड़ा कभी की रात बड़ी.

हाँ तो जब सब लोग लगे हुए हैं लंगडे की टांग खींचने मैंने भी सोचा में भी हाथ लगा दूँ। तो आज हुआ ये की ऊँट पहाड़ के नीचे आगया। जहाँ मुर्दा पिच पर हम शेर होते हैं वहीं जानदार पिच पर हम बिल्ली। और दोस्ती इतनी पक्की कि किसी भी दोस्त को ड्रेसिंग रूम में अकेला नही रहने देते। तभी तो तू चल मैं आता हूँ कविता गई जाती है। वैसे ज़यादा बुरा कुछ भी नही था कोई भी हमेशा अच्छा नही खेल सकता इसी लिए कहा जाता है कि कभी का दिन बड़ा कभी की रात बड़ी। और कुछ नही. कमी हम चाहने वालों ही की है जो इन लोगों को एक अच्छे प्रदर्शन पर आसमान देते हैं इसी लिए इनके ख़राब खेलने पर हमें गुस्सा आता है। अच्छा यही है कि इन्हें खेलने दो और आसमान पर मत बिठाओ।
ये टेस्ट मैच है और इसमें कुछ भी हो सकता है। दरअसल ये खेल एक एक session का होता है जिसमें कुछ भी हो सकता है। एक session उनका अच्छा और एक session हमारा सब बराबर हो जाएगा।

हर तरफ़ आग है दामन को बचाएँ कैसे?:कुछ मेरी डायरी से.

हर तरफ़ आग है दामन को बचाएँ कैसे,
इस तेरे दर्द को दामन में छुपायें कैसे?

यूँ तो तेरी अमानातें और भी हैं मेरे पास,
बस एक दर्द का ही बता दे इसको छुपायें कैसे?

मुश्किलात ज़िन्दगी का सरमाया है सुना था किसी से,
इस सरमाये के साथ ज़िन्दगी को बिताएं कैसे?

न जाने क्यूँ अब भी तेरे आने की उम्मीद ज़िन्दा है,
इस ग़लतफ़हमी को दिल से बाहर निकालें कैसे?

बुधवार, 2 अप्रैल 2008

हमको माफ़ कर दीजिये हमारी वजह से देश में महंगाई हो गई!

ये वो पंक्तियाँ हैं जो की शरद यादव दरअसल कहना चाहते थे मगर साफ साफ कह नही सके। चलो शुक्र है उन्होंने ये माना तो सही कि बढ़ती महंगाई में कुछ हाथ पिछली सरकार का भी है। क्यूंकि उन्होंने ही कमोडिटी बाज़ार कि शुरुआत की थी, जिसकी मार इस समय देश देख रहा है। शरद यादव ने अपने बयान में ये बात मानी है कि कमोडिटी बाज़ार NDA सरकार की भूल थी। अब शायद अपनी पिछली एक पोस्ट में मेरे द्वारा लिखी बात शायद लग रहा है कि सही थी। जिसे अन्य लोगों का भी समर्थन मिल रहा है।
यदि इस बढ़ती हुई महंगाई के पीछे इस अदद बाज़ार का हाथ है तो इसे बंद किया जा सकता है बशर्ते सरकार इस और थोड़ा ध्याम दे और हिम्मत जुटाए। वरना जिस प्रकार हमारे योजना आयोग के अध्यक्ष महोदय मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने कह दिया है कि बढ़ती हुई महंगाई सारी दुनिया की समस्या है और चीन में तो ये दर भारत से अधिक है केवल अपना पल्ला झाड़ने वाली बात है।
हाँ लेकिन अभी भी ऐसा क्यों लग रहा है कि विपक्ष इस मसले को बड़ा मुद्दा क्यों नही बनाना चाहता। क्या उसे ये कोई बड़ा मुद्दा नही लगता जबकि इसी मुद्दे कि वजह से उनकी सरकार गई थी। हाँ मुद्दे इसको जसपाल भट्टी जी ने अपने दिलचस्प अंदाज़ में बनाया जिसने शायद सरकार को कुछ शर्म ज़रूर दिलाई होगी। हालांकि सरकार ने इस विषय पर कल कुछ क़दम ज़रूर उठाये मगर उस पर मोंटेक जी का बयान गैर ज़िम्मेदाराना लगता है।

ये अब दुश्मनों : कुछ मेरी डायेरी से!

अक्सर यूं तन्हाई में ख़ुद से जब बात होती है,
वो बस तेरी ही तस्वीर इन निगाहों में होती है।

अब तो दुश्मन भी पूछते हैं आते जाते,
क्या अब भी हमारी तुम से बात होती है?

किस किस को मना करूँ, के तंग न किया करो मुझे,
वो क्या करें के जिनके लबों पे तेरी ही बात रहती है।

अब लगता है ख़ुदा भी दुश्मन सा हो गया,
जिसकी बारगाह में मेरी फरियाद रहती है।

टिकैत साहब की गिरफ्तारी: कभी हाँ हाँ कभी न न.

अब लगता है ये कोई व्यंग हो गया कि कभी ख़बर गिरफ्तार हो गए तो कभी नही हुए। कभी पुलिस कहती है कि गिरफ्तार करेंगे तो कभी कहती है हम पीछे हट गए। कभी टिकैत साहब के समर्थक कहते हैं कि वो अदालत में आत्म समर्पण करेंगे कभी कहते हैं हम ऐसा नही होने देंगे। यार कुछ तो करो। हुआ क्या और क्या होगा समझ नही आ रहा।
वैसे एक बात है जहाँ टिकैत साहब ने मायावती को अपशब्द कह कर अपनी छवि बिगाडी थी उसे पुलिस और किसानों ने आसमान पर बैठा दिया। ऐसा लगता है मानों टिकैत साहब किसी दांडी यात्रा पर जाना चाहते हों और लोग उनके साथ में लग गए वहीं पुलिस है कि उन्हें रोकना चाहती है।
यार ये क्या ड्रामा है।
क्यों लोग जीरो को हीरो और हीरो को जीरो बनते हैं?

मंगलवार, 1 अप्रैल 2008

मुश्किल नही कुछ भी अगर ठान लीजिये! महंगाई पर सरकार की नीयत.

यूं ही बैठे -बैठे एक गीत के बोल याद आ गए
कि ' मुश्किल नही है कुछ भी अगर ठान लीजिये'
कईं दिनों से महंगाई के बारे में लिख और पढ़ रहा था मगर सरकार कि तरफ़ से इस विषय पर किसी बयान कि कंजूसी बड़ी खटक रही थी। मगर कल रात सरकार ने चुप्पी तोडी और किसी कोशिश कि तरफ़ इशारा किया ये बात हम सब जानते हैं कि इस बढ़ती हुई महंगाई को रोकना काफ़ी मुश्किल है मगर यदि सरकार ठान ले तो इसे कम कर ही सकती है।
कम से कम सरकार और रिज़र्व बैंक को फिक्की और BSE से आगे सोचना पड़ेगा। इसी बात का शक था कि क्या सरकार ऐसा कोई कठोर क़दम उठा पायेगी, अब सरकार ने कुछ करों को कम और निर्यात पर नियंत्रण की कोशिश दिखा कर इस ओर इशारा ज़रूर दिया है।
अब सब कुछ सही चलता रहे तो आम आदमी को रहत मिले।

चीन पर अपनी स्थिति स्पष्ट करे लेफ्ट!

लेफ्ट की स्थिति आज भी नही बदली है वही है जो कि पिछले भारत चीन युद्ध के समय थी। उसे चीन का कोई अवगुण नही दिखाई देता। ऐसा लगता है जैसे कि लेफ्ट को चीन से पैसा मिल रहा हो अपनी पार्टी चलने के लिए। उसे भारत का तिब्बत को समर्थन बुरा लगता है। और ऐसे समय उसे नागालैंड और जम्मू- कश्मीर याद आते हैं। लेफ्ट को ये नज़र नही आता कि कैसे चीन ने भारत कि सेकडों एकड़ ज़मीन अपने कब्जे में ले रखी है। क्या लेफ्ट चीन को इसे माफ़ कर सकता है। मुझे तो ऐसा लगता है कि लेफ्ट खाना भारत का खाता है और गुण चीन का गाता है। लेफ्ट ये भूल जाता है कैसे तिब्बत मसले पर भारत की राजदूत को रात के २ बजे बुलाकर झाडा गया। इस बात पर आजतक लेफ्ट की ओर से कोई अफ़सोस तक नही आया विरोध तो छोडिये। ये सब देखकर बड़ा अफ़सोस होता है कि कैसे अपने ही देश के लोग किसी अन्य देश के समर्थन में सामने अ जाते है ओर उस देश के अपने देश पर किए गए ज़ुल्म को याद नही रखते।

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