बुधवार, 2 अप्रैल 2008

ये अब दुश्मनों : कुछ मेरी डायेरी से!

अक्सर यूं तन्हाई में ख़ुद से जब बात होती है,
वो बस तेरी ही तस्वीर इन निगाहों में होती है।

अब तो दुश्मन भी पूछते हैं आते जाते,
क्या अब भी हमारी तुम से बात होती है?

किस किस को मना करूँ, के तंग न किया करो मुझे,
वो क्या करें के जिनके लबों पे तेरी ही बात रहती है।

अब लगता है ख़ुदा भी दुश्मन सा हो गया,
जिसकी बारगाह में मेरी फरियाद रहती है।

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