शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

फिर ये प्यार इशारों से जताते क्यूँ हो? हाल ऐ दिल!

भूलना चाहते हो जब मुझको,
फिर ख़्वाबों में आते क्यूँ हो?
जब नही है मुहब्बत हमसे,
फिर ये प्यार इशारों से जताते क्यूँ हो?

हम सीख ही लेंगे जीना, तन्हा तुम्हारे बिन ऐ सनम,
तुम इस क़द्र, अपनी महफिलों पे इतराते क्यूँ हो?

करना था तो, सामना डट कर किया होता,
यूँ बेवफाई करके, मुँह को छुपाते क्यूँ हो?

मैं नही जानता, क्यूँ तेरी बात किया करता हूँ सबसे,
पर तुम उन सबसे, मुझे पूछने आते क्यूँ हो?

करके हैरान उसको, जिसने हमें मिलाया था कभी,
तुम उसकी चौखट पे, सर को झुकाते क्यूँ हो?

और जाना है तो, चले क्यूँ नही जाते,
लौटके आने का बहाना, यूँ बनाते क्यूँ हो?

भूलना चाहते हो जब मुझको,
फिर ख़्वाबों में आते क्यूँ हो?
जब नही है मुहब्बत हमसे,
फिर ये प्यार इशारों से जताते क्यूँ हो?

गुरुवार, 28 अगस्त 2008

एक गुज़ारिश! कुछ मेरी डायरी से!



एक गुज़ारिश है तुमसे, अगर इजाज़त हो,
बस इतना करदो, के अब ख्वाबों में न आया करो।

रहने दो मुझे, जिस तरह जी रहा हूँ मैं,
दूसरों से मेरा हाल, पूछने न आया करो।

हो जाता हूँ बेचैन जिस रात, तुम आ जाते हो ख़्वाब में,
मुझको यूँ उठाकर, तुम न यूँ सो जाया करो।

एक गुज़ारिश है तुमसे, अगर इजाज़त हो,
बस इतना करदो, के अब ख़्वाबों में न आया करो।

बुधवार, 27 अगस्त 2008

मेरा साया था वो तो! हाल ऐ दिल!

मसला था, न कोई हल था, मेरा यार था वो तो,
था जिसपे गुमां भी मुझे, दिलदार था वो तो।

रहता था मेरे दिल के क़रीब, धड़कन सा था कोई,
मेरे लिए मेरे हर सवाल का जवाब था वो तो।

करता था दिल पे राज, कोई राज़ था शायद,
मेरा सनम मेरे लिए हर बात था वो तो।

जाने क्या हुआ के चल दिया मुझको छोड़कर,
अब हूँ साये बिना, मेरा साया था वो तो।

मंगलवार, 26 अगस्त 2008

रात के हालत! हाल ऐ दिल!

कल फिर रात में, हमने उन्हें तड़पते देखा,
यूँही हम पर हंसते देखा, यूँही ख़ुद पर रोते देखा.

जब पूछना चाहा उनसे इसका सबब,
हमने उनकी आँखों में चश्में को उतरते देखा।

सोचते रहे जाने क्या मामला है ये भी,
मगर जितना सोचा ख़ुद की सोच को कमतर देखा।

तड़प उठी थी जो दिल में उनके ज़ख्मो को देखकर,
उनकी हंसी में इन ज़ख्मो का दर्द भी देखा।

सोमवार, 25 अगस्त 2008

आज फिर आँख में नमी चली आई....

आज फिर आँख में नमी चली आई....
तन्हाई में यार की कमी चली आई....
भाग रहे थे जिन यादों से हम......
आज फिर से वो हमे घेरे चली आई.....

सोच पे कोई ज़ोर चले...
फिर दिल को हम रोक सके...
आज फिर उससे मिलने की तलब चली आई...
आज फिर आँख में नमी चली आई...
तन्हाई में यार की कमी चली आई....

ज़िंदा हुए है कुछ मरे से जज़्बात...
फिज़ाओं में फिर से वही खुशबू चली आई...
यादों के झरोकों से कुछ धुंधली तस्वीरें चली आई...
आज फिर आँख में नमी चली आई....
तन्हाई में यार की कमी चली आई...

आज फिर मुस्कुराहट की जगह ग़म ने ली...
अपनों के बीच भी मेरे हिस्से तन्हाई की आई...
दुनिया के शोर में भी खामोशी नज़र आई...
आज फिर आँख में नमी चली आई...
तन्हाई में यार की कमी चली आई....

शनिवार, 23 अगस्त 2008

हाईकोर्ट की ग़लती क्या है? वकीलों को दी गई सज़ा या बार कौंसिल के कार्य में हस्तक्षेप?


मेरे कल और परसों के लेख पर कईं साथियों का साथ मिला और इस पर मुझे कुछ जानकारियों से भरे मेल भी प्राप्त हुए। मुझे बताया गया कि उच्च न्यायालयों को सज़ा सुनाने का अधिकार ही नही है। और किसी वकील के कार्य पर केवल बार कौंसिल ही फैसला ले सकता है। हालांकि बात मेरे गले आसानी से नही उतरती मगर क्यूंकि मैं कानून का कोई जानकार नही हूँ तो इस पर बहस नही कर सकता। मगर मैं वकील बिरादरी से ये पूछना ज़रूर चाहूँगा कि क्या उनकी परेशान ये है कि हाई कोर्ट ने उनके कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप की कोशिश की या ये कि उनके साथियों को सज़ा दी गई? क्या एक दिन की गेरहाज़री से अपना पक्ष रखने की बजाये वो हाई कोर्ट के इस फैसले जिसमें बकौल बार कौंसिल हाई कोर्ट ने उनके कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप किया है के ख़िलाफ़ कोई अपील दायर नही कर सकते थे जिससे कि देश की जनता तक एक सही संदेश जाता। और वो ख़ुद कोई ऐसी पहल क्यूँ नही करते जिससे भ्रष्ट वकीलों पर कार्यवाही हो सके।
और एक बात जिसपर कोई वकील तो कम से कम बात शायद नही करना चाहता कि आख़िर उन्हें जो सज़ा दी गई है क्या वो काफ़ी है? जब एक इंसान जो छोटी मोटी गलतियां करता है जाने या अनजाने में तो उसे बड़ी बड़ी सजाएं दी जाती है तो वहां केवल ४ माह की अदालत में घुसने पर पाबंदी और २०००/- रु मात्र का जुर्माना क्या दिखता है?
क्या वकीलों को ये दिखाई नही दे रहा और इस प्रकार के इन्साफ के खिलाफ वो कुछ क्यूँ नही करते। क्यूँ पहल नही करते कि इन और इन जैसे वकीलों को कदा दंड दिया जाए? क्यूँ नही इसको एक मुहीम बनाया जाता?

खोने का ग़म क्या जब उसे पाया ही न था

खोने का ग़म क्या जब उसे पाया ही था
हमने तो उसे अपना माना पर उसने अपना बनाया ही था

परवाने की मौत का ग़म क्या उसकी किस्मत में जल जाना ही तो था
शमा से गिला केसी आखिर उसका मकसद उसे जलना तो था

रेत के का क्या उन्हें तो ढेह जाना ही तो था
सपनो के अशिआने का क्या तुम्हे नींद से उठ जाना ही तो था

ज़िन्दगी का ग़म कैसा आखिर उसे मिटjजाना ही तो था
मौत का खौफ कैसा उसे आना ही तो था

जो किस्मत में था उसे खो जाना ही तो था.........................

शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

क्यूँ वकीलों से भिड रहे हो जज साहब? इनकी ग़लती कहाँ है? ग़लती तो आपकी है, जो इन्हे ग़लती की सज़ा दे रहे हो!


बचपन में एक कहावत सुनी थी कि उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। मगर यहाँ ये कहावत कुछ ऐसी लग रही है कि उल्टा वकील जज को डांटे। क्यूंकि कल ऐ यु खान और आर के आनंद पर जो दिल्ली हाई कोर्ट का फ़ैसला आया है उसके बाद ऐसा मालूम हुआ मनो किसीने इनकी दुम पर पैर रख दिया हो। बजाये इसके कि ख़ुद शर्मिंदा होते कि पिछले १५ महीनो में उन्होंने जिस केस को दबाकर रखा था उसपर कोर्ट ने फ़ैसला सुना दिया। जो फ़ैसला पहले बार कौंसिल को करना चाहिए था उसे कोर्ट को करना पड़ा। होना ये चाहिए था कि इस फैसले के बाद शर्मिंदा होते उन्होंने तो अदालत के अधिकार पर ही ऊँगली उठा दी। होना ये चाहिए था कि इन दोनों कानून के सौदागरों के ख़िलाफ़ और भी कड़ी सज़ा की माँगा करते उन्होंने इसके विरोध में ख़ुद खड़े होने का मन बना लिया। क्या बात है वकील बिरादरी! मुबारक हो आपको। ना जाने क्यूँ इसके बाद मुझे ऐसा लग रहा है कि कहीं इन दोनों को बचाने की कोशिश इस लिए तो नही हो रही क्यूंकि ऐसा काफ़ी वकील करते हो। वो भी इसी प्रकार बचाव और सरकारी पक्ष मिलकर आरोपियों को बचाने का "धंधा " करते हो।
और मैं धन्यवाद देना चाहूँगा उन साथियों का जिन्होंने मेरे इस ख़याल के ये सज़ा जो इन लोगों को मिली है कम है में मेरा समर्थन किया है।

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

कानून की धज्जियाँ उडाने का इनाम : चार माह की छुट्टी और मात्र २०००/-रु का जुर्माना!


आज सुबह से देश के तमाम ख़बरिया चैनल्स वरिष्ठ वकीलों और कानून की धाज्जियाँ उड़ने वाले आर के आनंद और ऐ यू खान को दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा सुनाई गई चार माह और दो हज़ार रु के जुर्माने पर ख़बर चला रहे हैं। क्या ये सज़ा काफ़ी है? इस बारे में विचार क्यूँ नही किया जा रहा। आम तौर पर यदि कोई आम नागरिक कानून को ग़लती से भी तोड़ता है तो उसे लम्बी और कड़ी सजाएं सुनाई जाती हैं जबकि उसको कईं बार अपनी हरकत के बारे में पता ही नही होता कि उसने कोई कानून तोडा भी है या नही। मगर यहाँ तो देश को दो जाने माने अधिवक्ता थे जिन्हें कानून और उसकी सज़ाओं के बारे में पूर्ण जानकारी थी। मगर फिर भी उन्होंने एक साजिश रचने की कोशिश की। क्या उन्हें और बड़ी और कड़ी सज़ा नही मिलने चाहिए थी। मैं माननिये अदालत का सम्मान करता हूँ, मगर क्या उनकी इस हरकत पर अदालत की तौहीन का एक और मामला न चलाकर उन्हें जेल में नही डाल देना चाहिए था, जिससे एक बड़ी मिसाल कायम होती। ये तो बात रही जहाँ एक बड़ा मामला था और जहाँ हर बार मीडिया की एक भीड़ इस मामले को कवर कर रही है। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस प्रकार छोटे छोटे शहरों में जहाँ कोई स्टिंग ऑपरेशन करने के लिए मीडिया मौजूद नही होती वहाँ ये वकील किस प्रकार से गवाहों को खरीदते और बेचते होंगे या डरा धमका कर आरोपियों को बचाते होंगे।
दरअसल ये मसला है संजीव नंदा नाम के एक युवक का जिसने सन् १९९९ में ७ लोगों को अपनी गाडी के नीचे कुचल दिया था। जिसमें ६ लोग मारे भी गए थे। वही मामले के तीन दिन बाद एक युवक सामने आया जिसने ख़ुद को मामले का चश्मदीद बताया। अभी ये मामला निचली अदालत में चल ही रहा था कि ये स्टिंग ऑपरेशन सामने आया जिसमें पाया गया कि किस प्रकार बचाव पक्ष और सरकारी पक्ष के वकील इस मामले को एक तरफा बनाने पर जुटे हैं और चश्मदीद को खरीदना कहते हैं।
इस ऑपरेशन ने सबकी आँखें खोल दी। ऐसे लोग सामने थे जो कि जाने माने हैं इस कानून की दुनिया में। मगर उनकी ऐसी हरक़त ने अब न्याय मिलने की आस को फिर से अमीर की चौखट पर दम तोड़ते देखा है। यदि ये स्टिंग सामने न आता और वाकई चश्मदीद बिक जाता तो एक बार फिर से इन्साफ नही होता।
क्या ऐसा करने वालों के ख़िलाफ़ की गई कार्यवाही काफ़ी है? हलाँकि उन्हें दी गई ये सज़ा केवल उनके दिल्ली की हाई कोर्ट और निचली अदालत में प्रवेश पर ही लागू होगा, ये दोनों अपनी consultancy चला पाएंगे।
क्या ऐसे में इस सज़ा के कुछ मायेने होंगे और क्या ये केवल २०००/- रु का जुर्माना काफ़ी होगा। अब क्यूंकि ये दोनों ही जाने माने और बड़े वकील है तो यह बात तय है कि ये सर्वोच्च न्यायालय जायेंगे और हो सकता है इस मसले पर ख़ुद को कुछ बचा भी पाएं। इस मसले पर मिली उन्हें सज़ा दरअसल केवल उनके लिए नही है ये एक धब्बा है जो हमारे कानून और पूरी न्याय व्यवस्था पर लगा है और जो सामने आया है, जो सामने नही आते वो अलग है।

बुधवार, 20 अगस्त 2008

फिर से याद आने लगे हैं वो! हाल ऐ दिल!


फिर से याद आने लगे हैं वो,
न जाने क्यूँ फिर से सताने लगे हैं वो,
मैं बचने की कोशिश हज़ार करता हूँ,
पर रह रह कर ख़यालों में आने लगे हैं वो।

रहने लगी हैं रातें, फिर से तन्हा मेरी,
भरी महफिल से उठाकर, तन्हाई में ले जाने लगे हैं वो।

फिर हर एक लम्हा, ज़बान पे नाम है उनका,
मेरे नाम से पहले अपना नाम, लिखवाने लगे हैं वो।

बहुत दिन से ख़ुदा से, कुछ माँगा नही था यूँ तो,
अपना नाम दुआओं में, कहलवाने लगे हैं वो।

लगता नही है दिल, अब किसी भी काम में मेरा,
और दिल में दर्द बनकर, छाने लगे हैं वो।

बड़ी मुश्किल से दिल से, निकालने कोशिश कर रहा हूँ मैं,
मगर जितना भी भूलना चाहूं, उतने ही याद आने लगे हैं वो।

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

ज़रा सुनो तो, क्या कहती है ये यमुना!

बड़े दिनों बाद बेपरवाह बह रही है ये,

के है मुश्किल थामना पानी को ज़ंजीरों में है।

पिछले दिनों बड़े दिन बाद मुझे मौका मिला यमुना किनारा देखने का और दिल बाग़-बाग़ हो गया।पानी अजी पानी का क्या,लहरें यूँ उठ रही थी मानो आज इनका इरादा रुकने का नही है। रास्ते में आने वाले झाड़ , टूटे हुए पेड़, कूड़ा कुछ भी ऐसा नही था जो कि इसको रोक सके। हवा ऐसी कि जैसी पिछले ६-7 सालों में शायद ही चली हो।और नदी ऐसे बेपरवाह के जैसे उसे किसीसे कोई मतलब ही न हो, मानो कह रही हो "बहुत मौका दिया तुम्हे के तुम मुझे साफ़ करो. तुम तो इतने सालों में कामयाब नही हुए मगर मैंने इस बार कमर कस ली है के इस बारिश के मौसम में सारा कूड़ा और करकट, सारा गंद मुझे ही बहा के ले जाना है।" सच में मुझे ऐसे लगा कि जैसे यमुना पे बहार आई हो।

हालांकि कुछ लोगों को हो सकता है मेरा ऐसा कहना बुरा लगे कि "एक तो यमुना का जल स्तर बढ़ रहा है और ख़तरा भी मगर इस बन्दे को क्या पसंद आया इसका।" तो जनाब वैसे मेरा यमुना के साथ पुराना रिश्ता है। अगर में ये कहता हूँ कि बड़े दिन बाद किनारे पर गया तो इसमें मुझे अफ़सोस भी होता है, मगर वहां जाना मैंने उस बदबू के कारण छोड़ा जो कभी आपको नाक से कपड़ा हटाने नही देती। मैं लक्ष्मी नगर में रहता हूँ और इस इलाके को जानने वालों को पता होगा कि ये यमुना के किनारे ही बसा हुआ है। कभी अपना बचपन, अपनी उदासी के लम्हे, और अपनी पढाई के दिन सब वही हुआ करते थे। जब दिल करता कि यार बैचैनी हो रही है तब साइकिल लेकर या पैदल ही उस ओर चल पड़ते। सुबह को घूमने जाना हो या शाम को दोस्तों के साथ वक्त गुजारना हो, गर्मियों की छुट्टियां तो मानों वही ख़त्म होती थी। उसी इलाके के आसपास के खेतों ओर किनारे पर जमें पेड़ों से पत्ते तोड़कर अपनी प्रयोग की पुस्तक को सजाया जाता था। जब पता चला कि उदासी नाम की भी कोई चीज़ होती है तो भी वही जा बैठते थे। इसके बाद इम्तिहान की तैयारी, सब इकठ्ठा हुए और चल दिया यमुना के तीर।मुझे आज भी याद है हम कक्षा १० कि तैयारी कर रहे थे। फरवरी के माह में शाम को किनारे बैठे - बैठे ऐसी सर्द हवाएं चलने लगी कि मानो आज ये बैठने ही नही देंगी और हमने अपनी साइकिल उठा के वापस लौटना ही बेहतर समझा।

फिर वो वक्त भी आया के जब यमुना के किनारे बैठना तो दूर, खड़े होना भी मुहाल होने लगा। ये ऐसा वक्त था जब बड़े ज़ोर शोर से यमुना बचाओ और यमुना सफाई अभियान चल रहे थे। हम ये सोचकर हैरान थे कि हो क्या रहा है। बजाये साफ़ होने के ये यमुना गन्दी क्यूँ होने लगी है। मगर कोई जवाब नही। और फिर धीरे यमुना का हाल ज़माने ने देखा और सब इस यमुना को गंदे नाले के नाम से जानने लगे। जब भी कोई इसे गन्दा नाला कहता मुझे बड़ा अफ़सोस होता था। मगर सच्चाई से मुँह फेरना काम नही देता। अपना भी मन हुआ कि किसी ऐसी संस्था से जुडा जाए जो इसे साफ़ करने का इरादा रखते हैं। कुछ संस्थाओं का पता भी चला मगर अधिकतर का इरादा सफाई से शोर ज़्यादा मचाने में था। हर कोई बस यही चाहता है कि सरकार कुछ करे और बाकी लोग बस नुक्ताचीनी करते रहे। ख़ुद का इरादा बस अखबार और टीवी पर ही आना होता था। आज भी जितनी संस्थाएं है अधिकतर अपना प्रदर्शन केवल टीवी के सामने ही करती है और उसके बाद अपने टेंट उखाड़ कर चलती बनती हैं। यहाँ भी दिल टूट गया तो फिर यमुना किनारे ही आकर बैठ गए और नाम पर एक कपड़ा रख लिया।

मगर यमुना को साफ़ करने का जो रास्ता आज यमुना ने दिखाया है हमें उसको समझना चाहिए। हमें यमुना को साफ़ करने कि ज़रूरत नही है। अपनी गन्दगी तो यमुना ख़ुद बहाकर ले जायेगी, ज़रूरत इस बात की है कि हम इसमें और गंदगी को न जाने दें। आज यमुना काफ़ी हद तक साफ़ है यदि इसमें आगे से हम गंदगी को जाने न दें तो ये दुबारा अपनी पुरानी रंगत में आ जायेगी।

रविवार, 17 अगस्त 2008

जब बॉस की खिंचाई का मौका मिल जाए!


ऐसा कितनी कम बार होता है कि आप को बात बात पर टोकने वाला आपका बॉस कहीं, खासतौर पे किसी मीटिंग में बाकी स्टाफ के पीछे पड़ा हो और उस समय आपको मौका मिल जाए उसकी खिंचाई करने का, तो सोचिये कैसा मज़ा आता है.
मेरी पहली जॉब थे। उस समय मैं एक कॉल सेंटर में था और एक बड़ी टेलिकॉम कंपनी के कस्टमर केयर में था, ज़ाहिर सी बात है कस्टमर केयर में था लोगों की सेवा मेरा कर्तव्य था। अलग बात ये है कि हम केवल लोगों की सेवा में विश्वास रखते थे, मगर अपने बॉस कि जी हुजूरी नही बजाते था। तो जनाब पहले ही हमारे अपने बॉस से ऐसे रिश्ते थे जैसे भारत और पाकिस्तान के,मतलब मिलते तो थे मगर हमें पता है उनके ह्रदय में हमारे लिए ज़बरदस्त श्लोक चल रहे होते थे। उस पर वो हमें निकल पाने में अक्षम था कारन अपना मस्त रिकॉर्ड जिसमें ऑफिस के लोगिन टाइम के अलावा सब हरे रंग से रंग होता था और साथ में बेस्ट performer में नाम भी। तो जनाब अक्सर इस चक्कर में रहते थे कि इन्हे कुछ कहने को मिल जाए, मगर हम कहाँ किसीके हाथ आने वाले।
मौका उसे तब मिल गया जब टेलिकॉम कंपनी से शिकायत आई के हमारे सेंटर में ज़्यादातर लोग CRM के एक ख़ास header से कुछ ज़्यादा ही मुहब्बत करते हैं और जो समझ नही आता उसे एक ही header में डाल कर उसकी entry कर देते हैं। हमें एक बात और बताई गई थी कि यदि किसी ग्राहक को अपना फ़ोन नम्बर याद न हो तो उसकी तकनीकी शिकायत को आगे न बढाया उससे कहा जाये को वो अपना नंबर याद करके या पता करके संपर्क करे और उसकी एंट्री CRM के अलग एक सामान्य हेडर में दर्ज कर दिया जाये.मज़े की बात ये थी कि ये बात हमारे बॉस को पता नहीं थी.
अब शिकयत के बाद हमारे बॉस ने हमें एक कक्षा में बुलाया और लगे सबकी खिंचाई में। मजेदार बात ये थी कि हमारे टीम लीडर पूरी तरह से सारे प्रोसेस को समझता था और उसके पास सबकी परफोर्मेंस रिपोर्ट भी होती थी और कौन क्या और कितना जानता है उसे पता था तो वो पहले में मेरे पास बैठा था. सब से होते हुए बात मेरे पास पहुंची कि "नदीम जी आपके पास ये कॉल आई थी और आपने लिखा है कि ग्राहक की ये परेशानी है और उसे कहा गया कि नंबर लेकर कॉल करे. जब आपको उसकी परेशानी पता थी तो पहले तो आपने उसकी शिकायत को आगे क्यूँ नहीं बढाया और उसकी CRM में एंट्री आपने इस हेडर में क्यूँ की?" इतना कहना था और हमारे बॉस साहब सीना चौडा करके सबकी तरफ देखने लगे और शायद सोच रहे हो कि आज तो मैंने नदीम को पकड़ लिया है और इसकी खिंचाई होगी. मगर मैंने आगे से एक सवाल दाग दिया कि "आप ही बताईये जब ग्राहक को अपना नंबर ही पता नहीं था और वो कॉल दुसरे नंबर से कर रहा था यदि में शिकायत को आगे बढा देता तो क्या उस पर कोई कार्यवाही होती? मैंने आगे कहाँ कि कोई और समस्या होती तो में एक dummy नंबर लेकर उस पर शिकायत दर्ज करके आगे बढा देता और alternate नंबर कि सहायता से बाद में हम उसका नंबर लेकर उसकी परेशानी को हल कर सकते थे". आगे से जनाब ने पता नहीं क्या सोचा और बोले तो कर देते dummy नंबर में शिकायत दर्ज. इतना बोलना था और सारे कमरे में ठहाके गूंजने लगे. अब भी बॉस को पता नहीं चला कि क्या हुआ है तो उन्होंने हमारे टीम लीडर को देखा और उसने कहा सर पहली ही लाइन में लिखा है टेक्नीकल प्रॉब्लम तो इसमें ये क्या करता? सही जवाब दिया और सही जगह एंट्री कर डाली.अगर ये इसकी शिकायत कर देता तो आप ही इसे पकड़ लेते. काफी देर तक कमरे में हंसी बंद नहीं हुई और बाद में उन्होंने कहा यार तुम लोग ख़ुद ही इस समस्या को discuss कर लो मुझे बाद में बता देना और वो निकाल लिए. इसके बाद क्या discuss होना था? बस यही discuss होता रहा कि बॉस के चेहरे का रंग कैसा हो गया था और वो कैसे घबराए हुए से नज़र आ रहे थे.

उस दिन के बाद वो मेरे सामने आते तो कहते नदीम जी कोई समस्या तो नहीं है, ज़रा इन नए executives को देख लिया करो और सारे नए लोगों को मुझसे ज़रूर मिलवाते थे। हाँ लड़कियों से हम पहले ही मिल लिया करते थे.:)

शनिवार, 16 अगस्त 2008

ये मेरे यार की बातें हैं! कुछ मेरी डायरी से!

ये मेरे यार की बातें हैं!
ये मेरे यार की बातें हैं!
तसव्वुर में मेरी आज भी वो बसता है,
जिसके तसव्वुर में कभी हम शामिल थे साँसों की तरह।
है अब उन्ही का नाम, जो इन लबों से निकलता है,
जिनके लबों पे हम बसते से, क़ल्मों की तरह।

बोलने वाले ने कह दिया था काफ़िर उनको,
मगर वो मिलते थे हमसे इबादत की तरह,
न जाने क्यूँ नही आए मेरी मय्यत पर भी,
जो न रहते थे हमसे दूर किसी साए की तरह।
ये मेरे यार की बातें हैं!
ये मेरे यार की बातें हैं!

शुक्रवार, 8 अगस्त 2008

वो मेरा चैन लूटकर फिर से जाएगा : कुछ मेरी डायरी से!


वो मेरा चैन लूटकर फिर से जाएगा,
ये पता भी है मगर फिर भी एतबार कर रहे हैं हम,
लगता है बहुत ज़िन्दगी खुशियों में गुज़ार ली हमने,
जो फिर ग़मों को सलाम कर रहे हैं हम।


कर रहे हैं उसी बेवफा पे यकीन फिर से,
के फिर से उसे बवफा कह रहे हैं हम.


मेरी ग़लतियों को माफ़ कर देना दोस्तों,
के मौत से पहले आखिरी सलाम कर रहे हैं हम।


यूँही बैठा हुआ था तो फिर ख़याल उनका आगया यारों,
वरना यूँही नही दिल उदास कर रहे हैं हम।


कल कर रहा था शोर कौवा छत पर भी हमारे,
हमने कहा अब मेहमां का नही, मौत का इन्तेज़ार कर रहे है हम।

बुधवार, 6 अगस्त 2008

वो कभी अपने तो कभी पराये दिखाई देते है.....

यादों से भरी इस दोपहरी में
खिड़की से आती रोशनी के बीच
कुछ धुंधले से साए दिखाई देते है.....
वो कभी अपने तो कभी पराये दिखाई देते है...

दिन की रोनक के बीच भी
आज कुछ अकेल सी महसूस होती है
आस पास गूंजती आवाजों में वो गीत पुराने सुनाई देते है...
वो कभी अपने तो कभी पराये दिखाई देते है.....

दिन की तपती धुप में भी
इश्क के ठंडे साए है
दिन के उजाले में भी उन्हें दुनिया से छुपाये बेठे है...
वो कभी अपने तो कभी पराये दिखाई देते है.....

सुबह से शाम हो गई
और फ़िर यह दिन भी ढल जाएगा
हम भुजती शमाओं के बीच इन्तेज़ार की लौ जलाये बैठे है...
वो कभी अपने तो कभी पराये दिखाई देते है.....

उनके पैगामों के इन्तेज़ार में पलके बिछाये बैठे है...
आस पास होती हर दस्तक पे दिल धड्काए बैठे है....
कहने को तो कोई रिश्ता नही बाकी...
पर क्यों वो आज भी कुछ पराये तो कुछ अपने दिखाई देते है.......

रविवार, 3 अगस्त 2008

plz vacate the seats for physically challenged, senior citizen and ladies.........

कई दिनों से मैं की metro के interiors की शोभा बढाती एक नई हरी पट्टी को देख रही हूँ....जो कहती है केवल महिलाओ के लिए........इससे पहले भी अक्सर यह घोषणा सुनने को मिल जाती है की ..... plz vacate the seats for physically challenged, senior citizens and ladies.........काफी दिन यह देखने के बाद बात साफ़ हो गई की न तो लोगो पर उस घोषणा का कोई असर होता दिखता देता है और न ही इस नई हरी पट्टी का.....वैसे जहाँ आज की नारी समानता की गुहार लगा रही है वहां इस प्रकार का छोटा सा आरक्षण भी उसे कहीं न कहीं दिखा जाता है की वो जो मांग कर रही है वो उसका अधिकार नही.......और इस तरह का आरक्षण किस प्रकार किसी महिला की उन्नति या प्रगति में सहायता करता है यह बात भी मुझे तो समझ नही आती क्यूंकि आजतक महिलाओ को न तो संसद में कोई आरक्षण प्राप्त है और न ही सरकारी नौकरियो में तो यह आरक्षण क्यों??.....और जहाँ तक बात रही की छेड़ छाड़ से बचने की तो यह उपाए किसी तरह से कारगर होता मुझे तो नही दिखता....क्यूंकि आज भी मुझे उन सीट्स पे महिलाओ से ज़्यादा पुरूष ही बैठे दिखाई देते है.....पता नही या तो उन्हें हिन्दी या अंगेजी पढने में कठिनाई होती है या उनको ख़ुद के पुरूष होने पर शक है.......मैंने अक्सर देखा है की मदद मांगने वाले को मदद मिल ही जाती है सीट मांगने पर अक्सर लोग उठ जाते है.......पर यहाँ तक यह बात सच है वहीँ यह बात भी सच है की कुछ इतने महान सज्जन किसम के लोग होते है जो यह देखते हुए भी की कोई महिला चकरा रही है महिला -सीट का मोह नही त्याग सकते....फ़िर इस हालातो में मेट्रो में एक छाप मात्र लगा देने का क्या लाभ....जब तक लोग उसका अर्थ न समझे.....मैंने अक्सर देखा है की अगर कोई महिला बढ कर किसी पुरूष को सीट खाली करने को बोलती है तो हालाँकि उसे उठाना तो पढता है पर चहरे के हाव भाव से पता चल जाता है की जनाब को बात ज़रा भी पसंद नही आई.....और हाँ कुछ लोग उसे महिलाओ की दादागिरी का भी नाम दे देते है......तो जहाँ एक बड़ा ही गैर ज़रूरी सा आरक्षण महिलाओ को दे दिया जाता है वहीँ अगर वो उसे आगे बड़ के मांगे तो वो दादागिरी कहलती है.... यह कुछ पुरूषप्रधान समाज में रहने के कुछ नियम है शायद.......जिन्हें मानना ही पड़ता है....

शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

अगर है, तो ये मुहब्बत क्यूँ है ? हाल ऐ दिल!

इन्तेज़ार मुहब्बत की किस्मत क्यूँ है?
और अगर है, तो ये मुहब्बत क्यूँ है ?

क्यूँ नही मिलता जवाब इन सवालों का,
मुहब्बत के बिना ये जिंदगी अधूरी क्यूँ है?

करता हूँ ये सवाल मैं इस सारे जहान से,
ये मुहब्बत के साथ जुदाई, हकीक़त क्यूँ है?

क्यूँ नही रह सकता कोई मुहब्बत के बिना,
जब पता है इसकी किस्मत में बस ग़म ही ग़म हैं?

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