गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

फिर कोतुहल

बहुत दिनों से कुछ लिखना चाहता हूँ। कुछ पंक्तियाँ लिखता हूँ और फिर झुंझलाहट के साथ उन्हें डिलीट कर देता हूँ। ये समझ ही नही आ रहा है के ऐसा क्यूँ हो रहा है। आजकल लगता है के अपने आपसे ही अजीब सी ज़ंग कर रहा हूँ। इधर ब्लोग्वानी या चिट्ठाजगत पर आता हूँ के कुछ अच्छा सा पढने को मिल जाए मगर ऐसा लगता है के मेरी ही तरह यहाँ भी लोग कुछ असमंजस में दिखाई देते हैं। ये बात मानूंगा के इधर पिछले कुछ दिनों में कुछ अच्छे रचनात्मक ब्लॉग शुरू हुए हैं। जिनका ध्यान कुछ रचनात्मक लिखने का करता है। बाकी दुआ मेरी ये है के वो लोग आगे भी मन लगाकर लिखते रहे और कुछ अच्छा पढने को मिलता रहे। हालाँकि इस दुआ में भी मेरी ही स्वार्थ ज़्यादा है आखिर पढने को तो मुझे ही मिलेगा।
इधर बात मैं कुछ अपनी कर रहा था। ख़ैर जाने दो।
वैसे ये पोस्ट इस बात के लिए ज़्यादा है के किसी तरह फिर से लिखने की आदत पड़ जाए।

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

अब इराकियों को अफ़सोस होगा क्रिकेट न खेलने का!

पिछले दिनों सुबह उठते ही जब एक जूते को उछलते हुए देखा तो ऐसा लगा मानो किसी भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी ने stumps पे निशाना साधा हो और जब stump को हिलते हुए देखा तब पता चला वो stump नही था बल्कि दुनिया के सबसे ताक़तवर मुल्क के राष्ट्रपति थे वो भी बुश। जब तक मैं कुछ और सोच पाता इतने में एक और जूता दिखाई दे गया इस बार भी निशाना सही नही। तभी मुझे लगा के आज इराकी लोगों को अफ़सोस हुआ होगा के क्यूँ उनका देश क्रिकेट नही खेलता अगर उस पत्रकार ने क्रिकेट खेला होता तो हो सकता है उसका निशाना न चूकता । मैं तो कहता हूँ के आईसीसी और बीसीसीआई को क्रिकेट को बढावा अगर देना है तो इराक जाकर वहां के पत्रकारों और बच्चों को क्रिकेट सिखाये ताकि वो हिलते हुए और एक stump पे भी निशाना लगा सके जैसे हमारे खिलाड़ी दौड़ते हुए विकेट उखाड़ देते हैं बाल मार कर। और अगर निशाना अगली बार लग गया तो समझ जाना चाहिए के अभी तो ये जूता जो निशाना चूक गया ५० करोड़ का बिक रहा है ज़रा सोचो निशाना लगने के बाद तो अरबों का होता
और सलाह अमेरिकी राष्ट्रपति को के इस आर्थिक मंदी के दौर में लोगों को करोड़ों कमाने का मौका दें। भला जहाँ काम धंदे चौपट है वह कम से कम जूता उद्योग को तो तरक्की का मौका मिलना ही चाहिए।

सोमवार, 8 दिसंबर 2008

आओ ज़रा खुद से बात करें दोस्तों! हाल ऐ दिल!

आओ ज़रा खुद से बात करें दोस्तों,
अपने गुज़रे वक़्त को याद करें दोस्तों।


के पाया तो है बहुत, हमने ज़िन्दगी में,
जिनकी वजह से पाया, उन्हें याद करें दोस्तों।


गुज़रता वक़्त भी ये हमें, पीछे छोड़ जायेगा,
हम जिनको छोड़ आये हैं, उनकी बात करें दोस्तों।

ज़माना यूँ भी तो, हमारा नही था कभी,
हम जिनके थे ज़रा, उनसे मुलाक़ात करें दोस्तों।


ख्वाहिशें हमारी हैं, ज़रा मासूम सी अभी तक,
अपनों की भी ख्वाहिशों का, ख्याल करें दोस्तों।

बुधवार, 3 दिसंबर 2008

ये ज़िन्दगी अदब को आदाब नही देती। हाल ऐ दिल !

कुछ सोचता हूँ, तो ज़हन साथ नही देता,
कुछ लिखता हूँ, तो कलम साथ नही देती,

चलता हूँ कभी उठकर, अपने घर की तरफ़ जब भी,
क़दम तो चलता है, पर राह साथ नही देती।

करने लगा हूँ शिकायत, ख़ुद से मैं आज फिर,
हर सज़ा जो दी है ख़ुद को, वो राहत नही देती।

है हैरान वो भी, मुझको देखकर,
जिनसे मेरी बरसों तक, बात नही होती.

अच्छी थी या जैसी भी थी, थी मेरी ज़िन्दगी,
फिर इंतज़ार में खड़ा हूँ, पर आवाज़ नही देती।

होता है कभी मुझको भी ग़म, दूर जाने का,
क्या हो गया, के करीब वालों से भी अब बात नही होती।


मंज़र तबाही का, मेरा देखा तो था सबने,
क्यूँ फिर भी उसके कलेजे को राहत नही होती?

आदाब ज़िन्दगी के सीखे तो बहुत,
पर ये ज़िन्दगी, अदब को आदाब नही देती।

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

क्या ज़िन्दगी यही है? एक सवाल!

आज सोमवार है और मैं फिर से अपने clients से appointments ले रहा हूँ। और साथ ही साथ अपने ऑफिस को रिपोर्ट भी कर रहा हूँ। मुंबई दहला, हमने कुछ खामोशी अपनाई, उसपे नज़र बनाई, कुछ दुखी हुए और देखते रहे। और आज से फिर से सभी की ज़िन्दगी उसी पुराने ढ़र्रे पर चल पड़ी है। हम सभी ज़िन्दगी की तरफ़ चल पड़े हैं। और एक सवाल मेरे मन में उठ खड़ा हुआ है।

क्या ज़िन्दगी यही है?

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