कुछ सोचता हूँ, तो ज़हन साथ नही देता,
कुछ लिखता हूँ, तो कलम साथ नही देती,
चलता हूँ कभी उठकर, अपने घर की तरफ़ जब भी,
क़दम तो चलता है, पर राह साथ नही देती।
करने लगा हूँ शिकायत, ख़ुद से मैं आज फिर,
हर सज़ा जो दी है ख़ुद को, वो राहत नही देती।
है हैरान वो भी, मुझको देखकर,
जिनसे मेरी बरसों तक, बात नही होती.
अच्छी थी या जैसी भी थी, थी मेरी ज़िन्दगी,
फिर इंतज़ार में खड़ा हूँ, पर आवाज़ नही देती।
होता है कभी मुझको भी ग़म, दूर जाने का,
क्या हो गया, के करीब वालों से भी अब बात नही होती।
मंज़र तबाही का, मेरा देखा तो था सबने,
क्यूँ फिर भी उसके कलेजे को राहत नही होती?
आदाब ज़िन्दगी के सीखे तो बहुत,
पर ये ज़िन्दगी, अदब को आदाब नही देती।
आप ने अच्छा लिखा है...भाव भी खूब हैं लेकिन रचना में रवानी नहीं है...लिखते रहिये एक दिन बहुत खूब लिखेंगे...देख लेना.
जवाब देंहटाएंनीरज
चलता हूँ कभी उठकर, अपने घर की तरफ़ जब भी,
जवाब देंहटाएंक़दम तो चलता है, पर राह साथ नही देती।
--बहुत गहरी बात कह दी, वाह!!