गुरुवार, 29 मई 2008

पंडित जी! एक कहानी!

आज किसी ने देहरादून जाने का ज़िक्र छेड़ दिया। और फिर से पंडितजी का चेहरा मुझे याद आगया।


उनका चेहरा आज भी निगाहों से जाता नही है। वो सर्दी की एक रात उसपर देहरादून का कुछ ठंडा सा मौसम अचानक मन हुआ उनसे मिल आऊँ, ये सोचकर अपना शाव्ल उठाया और उसे लपेटकर उनके घर की ओर चल दिया। जाते जाते मन में ये विचार उठने लगा कि किस प्रकार ऐसे लोग अपनी ज़िन्दगी बिताते हैं, अपने परिवार से अलग होकर। सोचते-सोचते ही उनका घर आ गया. थोडा खांसने के बाद उनके घर में क़दम बढाया, हालांकि खांसना कोई ज़रूरी नहीं था क्यूंकि पता था की उनके घर में कोई महिला नहीं होगी, मगर जैसे की बचपन की आदत है कर दिया. अन्दर जाने के बाद उनके कमरे में दाखिल हुआ, जहाँ वो अक्सर बैठा करते थे. जाकर देखा तब वो सो रहे थे, मगर उनकी आखें थोडी सी खुली हुई थी, सोच कि अक्सर कमजोरी में ऐसा हो जाया करता है।

फिर ये सोचकर कि उन्हें उठाना सही नही होगा, मैंने वहीं बैठने का निश्चय किया। तभी मेरी नज़र उनके हाथ में रखी उस तस्वीर की और चली गई, जिसमें वो थे साथ में उनकी धरम पत्नी थी जिनकी तस्वीर वो पहले भी मुझे दिखा चुके थे। हाँ एक चेहरा उसमें नया था जिसको के मैंने पहले नही देखा था, मगर जिस प्रकार से उनकी एक तिरछी नज़र उस चेहरे पर जा रही थी तो ऐसा लग रहा था कि वो उनका बेटा ही होगा। मतलब इस तस्वीर के अन्दर एक भरा पूरा परिवार था। मगर ये तस्वीर आज अचानक उनके हाथों में क्या कर रही थी ये सवाल मन में उठ खड़ा हुआ मगर फिर सोचा कि उनका मन कर रहा होगा उसे देखने का। तो देख लिया। इसी बीच उनका नौकर आगया. और अब वो भी मेरे ही पास में बैठ गया.
उनकी खुली हुई आंखें लगातार पंखे को निहार रही थी जो कि सर्दी के कारण बंद पड़ा हुआ था। ऐसा लग रहा था मानो अपनी यादों के समंदर में गोते लगा रहे हों। अब मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने उनके नौकर से ही उनके बारे में पूछने का मन बना लिया। नौकर बोला "आखिर क्या नही था उनके पास उनकी पत्नी, उनका बेटा और एक अच्छी सी सरकारी नौकरी जिसकी तनख्वाह इतनी थी जिससे उन्होंने अपना एक घर बनाया और अपने बेटे को पढ़ा लिखकर उन्होंने डॉक्टर बनाया। पत्नी ऐसी कि यदि रूखी सूखी भी मिल जाए तो आह न करे, और अपने पति की हाँ में हाँ मिलाती रहे, स्वाभाव से धार्मिक किसी भी आम भारतीये महिला कि तरह, मगर हाँ अपने बेटे के लिए कुछ भी कर गुज़रे। पहले तो पंडित जी अपनी पत्नी की ही बिमारी से परेशान रहा करते थे मगर बुरा हो इस ह्रदय रोग का जिसने उन्हें भी अपनी गिरफ्त में ले लिया।" ये कहकर नौकर चुप हो गया और में अभी भी उसे देख रहा था.

मगर उसने दुबारा बोलना शुरू किया "अब उनके पास अपनी पत्नी के अलावा भी एक शख्स बढ़ गया फिक्र करने के लिए, मगर ये सोचकर दिल को तसल्ली दे दिया करते थे कि बेटा डॉक्टर बनकर आने वाला है। उनकी उम्मीदों पर तब पानी फिर गया जब पता चला कि बेटे को बंगलोर में किसी बड़े अस्पताल में नौकरी मिल गई है, मगर फिर सोचा की कम से कम बेटा तरक्की तो कर ही रहा है, यहाँ देहरादून के इस छोटे से गाओं में आकर उसे क्या मिल जाता, और वो भी अपने ही पिता की ही तरह एक साइकिल चलाते चलाते बुड्ढा हो जाएगा। मगर दिल के हालात तो केवल वो ही जानते थे, अपनी पत्नी की गिरती हुई सेहत को वो कब तक देख पाते, और इलाज भी अगर करायें तो भला कहाँ से क्यूंकि अपनी ज़िंदगी भर की कमाई तो बेटे को डॉक्टर बनाने में लगा दी थी। वो तो भला हो उनके पड़ोसी और उनके बेटे के बचपन के दोस्त का जिसने उनके बेटे को इस बारे में सूचना दे दी। एक दिन अचानक उनके बेटे का फ़ोन आया की वो अब अपनी क्लिनिक गाओं में ही बनाएगा और वहीं उनके साथ रहेगा भी। पंडित जी, आख़िर अंधे को क्या चाहिए एक आँख ख़ुदा ने तो उन्हें दोनों ही देने का मन बना लिया था। अब पंडित जी लगातार उस दिन का इंतज़ार करने लगे कि कब वो सुबह हो और कब उनका बेटा उनसे मिलने और साथ रहने के लिए आए। " नौकर ने आगे कहना शुरू किया

"इसी इंतज़ार में वो दिन भी आगया जब उनके बेटे को गाओं में लौटना था, मगर उस दिन उपरवाले को शायद कुछ और ही मंज़ूर था, खबर आई की जिस बस में उनका बेटा घर वापस लौट रहा था उसकी दुर्घटना हो चुकी है और वो बस एक गहरी खाई में जा गिरी है, किसी के बचने की भी उम्मीद कोई नहीं थी। अब ये सूचना पंडित जी तो दिल पर पत्थर रखकर सह गए और सोचने लगे कि ये ख़बर किस प्रकार से अपनी पत्नी को सुनाएं, जबकी उनकी पत्नी तो पहले ही काफ़ी बीमार थी, मगर कहते हैं न माँ को अपने बच्चे के हर दुःख दर्द की ख़बर लग ही जाती है। लगता है ऐसा ही कुछ हुआ। जब पंडित जी अपनी पत्नी के कमरे में पहुंचे तो वहाँ का द्रश्य देखकर उनके पाऊँ के नीचे की ज़मीन सरक गई। उनकी पत्नी अब इस दुनिया में नही थी।" इतना कहना था और नौकर की आँखों के आँसू, आँखों से बाहर झांकते दिखाई दे गए.
मैं तो ये सोचकर ही हैरान रह गया कि किस प्रकार एक इंसान इतने बड़े सदमे को सह सकता है, अपने जीवन भर की पूँजी अपनी औलाद और अपनी जीवन संगिनी
को एक साथ खोने के बाद इंसान कैसा महसूस कर सकता है, शायद मैं इसकी कल्पना भी नही कर सकता। मुझे तो ये सुनकर ऐसा लगो मानो पंडितजी को किसी ने ठग लिया हो!

और फिर से सवाल मेरी ज़बान से निकला कि उनका नौकर बोलने लगा " इसके
कुछ दिन बाद से मैं पंडितजी के साथ रहने लगा तब से उनका ध्यान मैं ही रखता हूँ।" फिर मैंने पूछा कि इस बात को कितने दिन हो गए हैं तो उसने जवाब दिया " आज इस बात को पूरे पाँच साल बीत गए।"

नौकर का ये जवाब सुनकर उनके हाथ में रखी तस्वीर का कारण समझ आने लगा। इतनी बात करते करते काफी देर हो गयी और नौकर पंडितजी को उठाने के लिए खडा हो गया बोला " ये समय पंडितजी की दवा खाने का है." उसने जैसे ही पंडितजी का कन्धा हिलाया, वैसे ही उनकी गर्दन दूसरी और गिर गयी इतना देखते ही मुझे ये एहसास हो गया की अब पंडितजी भी इस दुनिया में नहीं रहे. मगर हाँ अब भी उनके हाथों में रखी तस्वीर उनके हाथों में जकड गयी थी मानो कह रही हो मुझे इनसे अलग मत करो. आखिरकार अब तो ये दिन आया है कि पंडितजी अपने बेटे और पत्नी के साथ में रह सकेंगे................

मंगलवार, 27 मई 2008

आज उनको दुल्हन बने देखा मैंने: कुछ मेरी डायरी से!

आज उनको दुल्हन बने देखा मैंने,
दिल के अरमानों को अश्कों से निकलते देखा मैंने।

यूं तो बैठे थे वो दामन को दबाये हुए,मगर,
उस दामन में अपने कफ़न को देखा मैंने।

तड़प उठा दिल ये सोचकर के वो कहीं और जा रहे हैं,
अपने घर को आंखों के सामने उजड़ते देखा मैंने।

होता कोई और मंज़र तो आंखें फेर लेता मैं भी,
मगर क्या करूँ एक पत्थर जो हूँ,सब देखा मैंने।

उनकी आंखों में नजाने कैसी उदासी सी छाई थी,
एक बेवफा को आखरी बार दिलरुबा देखा मैंने।

काश इस मंज़र से पहले ख़ुदा मुझको बुला लेता,
के मौत से पहले, मौत का मंज़र देखा मैंने।

मगर एक बात है जिसको तस्लीम करना चाहता हूँ,
एक तेरे सिवा तेरे बाद न किसी और को देखा मैंने।

रविवार, 25 मई 2008

हाँ मुझे मुस्कराहट चाहिए थी: कुछ मेरी डायरी से!

कल फिर से तुझे याद किया मैंने,
कुछ सुहाने लम्हों को निगाहों से गुज़ारा मैंने,
माना के अब गैर हो चुका है तू, मगर क्या करूं,
हाँ मुझे मुस्कराहट चाहिए थी।

वो वक्त भी कुछ और था और वो दौर भी कुछ और था,
के जब साथ बैठते थे हम दोनों,
के नज़दीकियों का आलम था
और धूप में भी बेबाक मौसम था,
हर एक पल को फिर से जिया मैंने,
हाँ मुझे मुस्कराहट चाहिए थी.

मैं जानता हूँ लोग फिर से इल्ज़ाम देंगे मुझे,
फिर से मुझे शर्मिंदा किया जाएगा,
बैठेगे फिर लोग मेरी मज़ाक बनाने के लिए,
क्यों मैंने तुझे याद किया,
मगर उनको क्या पता क्या हाल था मेरा,
हाँ मुझे मुस्कराहट चाहिए थी।

हाँ मुझे पता है वो वक्त लौटके ना आएगा,
हाँ मुझे पता है तू चला गया है तनहा छोड़कर,
वो यादें शायद अब मेरी नही है,
मगर मैं क्या करूं?
के रोने के लिए भी और हँसने के लिए भी
मुझे तेरी ही ज़रूरत है।
मैं तुझसे, तुझे याद रखने का हक मांगता हूँ।
मैं फिर से रोना चाहता हूँ,
मैं फिर से मुस्कुराना चाहता हूँ।

गुरुवार, 22 मई 2008

क्या आपने देव आनद साहब और दिलीप कुमार साहब को साथ नाचते देखा है?नही? तो यहाँ देखें.

क्या आपने देव आनद साहब और दिलीप कुमार साहब को साथ नाचते देखा है?नही? तो यहाँ देखें।
जब दो महान कलाकार साथ में काम करते हैं।

मंगलवार, 20 मई 2008

हमेशा चाहता रहा, शायद प्यार करना न आया! कुछ मेरी डायरी से!

उसके बारे में जब भी सोचा मैंने,
तो उसको उस दिन के बाद दूर ही पाया।
वो जो कभी मेरा हमसाया हुआ करता था,
अब तो ख्वाब में भी मैंने उसे गैर पाया।
बड़ा नादान था मैं भी शायद,
हमेशा चाहता रहा, शायद प्यार करना न आया।

उसने हमेशा खेला जज़्बातों से हमारे,
मगर इस दिल को हमेशा उसी पे प्यार आया,
उसने सोचा मुहब्बत के नाम पर जो चाहेगा करवालेगा हमसे,
सच भी था, उसके जाने के बाद हमने ख़ुद को ठगा सा पाया।
बड़ा नादान था दिल जिसे पता सब था,
मगर न ख़ुद पे ऐतबार आया,
हमेशा चाहता रहा, शायद प्यार करना न आया।

के मंजिलें और भी थीं जो साथ तय कर सकते थे हम,
उसे न था मालूम के सफर ज़िन्दगी लम्बा होता है,
हमने हमेशा चाहा के उसे सारी खुशियाँ मिले,
मगर उसे बस कुछ पल की खुशियों पर ही सब्र आया।
मैं सोचता रहा उसके लिए सब कुछ करने की,
वो बेसब्र न मेरे पास आया,
हमेशा चाहता रहा, शायद प्यार करना न आया।

सोमवार, 19 मई 2008

शर्तिया लड़का ही होगा!

ये पंक्तियाँ देखकर अचानक क़दम रुक से जाते हैं। पहले तो मैं केवल वैद्य जी का ये बोर्ड देखकर हँस कर निकल जाता था। मगर बाद मैं जब भी मैं सहारनपुर में होता और बाज़ार जाना होता तो वैद्य जी के बोर्ड को देखने के बाद आसपास गुजरने वाले लोगों को ज़रूर देखता, सहारनपुर के आम बाशिंदों को इसकी आदत है मगर वहाँ से कमी के साथ गुजरने वाले इस बोर्ड को ध्यान से ज़रूर देखते। और उनमे अधिकतर महिलाये जिनमें थोडी बूढी महिलाये जिनको देखकर ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि इनकी या तो कोई बहु है या बेटी है। ऐसे लोग ध्यान से इसको देखते हैं और कुछ सोचते हैं या अपने पास कागज़ पर इसको नोट ज़रूर करते हैं।

इसे देखकर थोड़ा अफ़सोस क्या काफ़ी अफ़सोस होता है कि इस वक्त भी कुछ लोग हैं जो बेटे और बेटी में फर्क महसूस करते हैं। थोडी बेचैनी हुई तो पता किया कि ये दवाई खाता कौन है। मुझे बताया गया ऐसे लोग जिनको कईं बेटियाँ हो गई है वो इस दवाई को अपनी बहुओं को खिलाते हैं। अब ये जवाब सुनकर सर और चकरा गया। ये नही कि बेटियों वाले लोग मगर बहुए या कहूं की महिलाये दवा खाती हैं और दावा ये की बेटा ही होगा? मगर कैसे जितना विज्ञान मैंने पढ़ा है मुझे बताया गया है कि महिलाओं में केवल एक ही गुणसूत्र होता है जिसको X कहते है और मर्द के पास दो यानी X और Y। यानि मर्द के पास ही वो गुणसूत्र होता है जिसके मिलने से महिला के गर्भ में एक लड़के की पैदाईश कि गुन्जायिश हो। यानी लड़का यदि होगा तो उसके लिए मर्द जिम्मेदार होगा और यदि लड़की तो उसके लिए भी मर्द। यानी इसमें मर्द की ज़िम्मेदारी बन जाती है कि क्या पैदा हुआ। अब सवाल ये उठता है कि यदि महिला को ये दवा दी जायेगी तो लड़का कैसे पैदा होगा? जो काम उसका है ही नही तो दवा उस पर क्या असर करेगी? तो ये वैद्य जी या जो हकीम साहब बैठे हैं और दावा दे रहे हैं वो तो पक्का उल्लू बना ही रहे हैं। मगर सरकार की इतनी महनत के बाद भी लोग अब भी लड़की पैदा होने का दोष किसी महिला पे कैसे डाल सकते है?
यदि इस प्रकार की कोई दवा है तो उसे मर्द को खिलाया जाना चाहिए। मगर इतने साल में मुझे कोई वैद्य या हकीम ऐसा नही मिला जो कहे कि ये दवा मर्द के लिए बनी है और इसे खाने के बाद बेटा होगा। मेरी एक रिश्तेदार है जिनके दो बेटे पैदा हुए उसके बाद वो चाहते थे कि अब उनके घर लड़की आये मगर इसी खावाहिश में उनके घर चार बेटे पैदा हो गए. और अब तक लड़की नहीं आई है उन्हें तो आजतक कोई ऐसा वैद्य नहीं मिला जो उनकी लड़की की ख्वाहिश को पूरा कर सके. क्या वैद्य और हकीम साहब को ऐसी कोई बूटी नहीं मिलती जिससे लड़की पैदा हो सके.
अब एक और रिश्तेदार हैं जिनके पहले से २ लडकियां है और सुना है कि इस बार उन्होंने अपनी पत्नी को यही किसी हकीम साहब की दवा खिलाई है और लड़के की चाहत में पहले जहाँ पत्नी पर जुल्म किया करते थे आजकल बर्तन और झाडू तक पति महोदय ख़ुद ही किया करते हैं। वो नही चाहते कि उनके बेटे को कोई तकलीफ भी हो। मगर ये बात सिचकर और उनके पिछले ईतिहास को देखकर दिल दहल उठता है पहले लड़की होने पर किस प्रकार उन्होंने अपनी पत्नी पर ज़ुल्म किया और वो भी अपने घरवालों के सा मिलकर और यदि इस बार भी हकीम साहब की दवा फ़ैल हो गई तो उनका क्या होगा?
आखिर कब तक ऐसे वैद्य या हकीम लोगों को पागल बनाते रहेंगे और कब तक लोग इस अन्तर को छोडेंगे?
आज मैं अपनी ज़िंदगी के सबसे दुखद अनुभव को बांटना चाहूँगा कि जब मैं tuition पढाया करता था तो एक बच्चा मुझेसे पढ़ा करता था एक दिन मैंने उसके घरवालों के सामने उससे कहा कि यदि नहीं पढ़ेगा तो तुझे कहीं और छोड़ आयेंगे तो उस केवल ८ साल के लड़के ने मुझे जवाब दिया ऐसा नहीं होगा सर मैं अपने घर का इकलौता लौंडा हूँ, बाकी तो तीनों लौंडियाँ हैं. उसका ये जवाब सुनकर मैं हैरान रह गया कि किस प्रकार इतना छोटा बच्चा ये बात सोच सकता है? जिसके बाद मुझे उसके माँ बाप की क्लास लगानी पड़ी. और जब बैठकर सोचा तो ध्यान आया कि किस प्रकार उसकी माता उस पर अपनी बेटियों से ज़्यादा ध्यान देती है और उसी के सामने बेटियों को डांटती हैं. शायद ये मेरा ज़िंदगी का सबसे बुरा दिन था जो मेरे घरकी परम्परा के लगभग उल्टा था।
बात वैद्य जी की हो रही थी तो इस बार मेरा इरादा बन रहा है कि वैद्य जी से ये राज़ पूछकर ही आऊंगा कि कैसे मर्द के गुन महिलाओं में पैदा किए जा सकते हैं ?आख़िर कौनसा विज्ञान है जो यहाँ काम करता है?

शुक्रवार, 16 मई 2008

जयपुर धमाके: क्या ख़बर के नाम पर आतंकियों की मदद की गई?

जयपुर में धमाके हुए हम सभी देशवासियों को अफ़सोस हुआ और दिल दहल उठता। ऐसा कही भी और किसी के साथ हो सकता है। मगर जिस तरह से न्यूज़ चैनल्स ने ख़बर के साथ साथ पुलिस द्वारा की जा रही जांच की ख़बर दिखायी उससे मुझे ये महसूस हुआ कि इन चैनल्स ने कहीं न कहीं आतंकियों की मदद ही की है। जिस प्रकार सारे देश को पता था , उसी प्रकार आतंकियों को भी ये बात पता थी कि पुलिस कहाँ हाथ पाँव मार रही है। जिससे हो सकता है कि वो और भी सजग हो गए हों। खंबर के नाम पर ऐसा लगा कि कहीं न कहीं आतंकियों की मदद ही हो रही है।
अब सवाल ये उठता है कि क्या उन्हें ये ख़बर नही चलानी चाहिए थी? बिल्कुल चाहिए और यही उनका काम भी है मगर ज़रूरी नही कि वो भी पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों के साथ साथ अपनी जांच भी करें और उसे लगातार टीवी पर चलाया जाए? ये बात तो जग ज़ाहिर है कि मीडिया में ऐसे कईं लोग है जिनका दिमाग बहुत तेज़ चलता है और यदि उन्हें ऐसा कुछ दिखाई भी देता है जो जांच में मदद करता है तो उन्हें इसे जांच एजेंसियों के साथ बांटना चाहिए।ना कि टीवी पर चलाकर आतंकियों की मदद की जाए।
हो सकता है कि ये मेरा केवल भ्रम मात्र हो मगर क्या इससे आतंकियों को मदद नही मिलती ? मीडिया का कार्य ख़बर दिखाना है और अपने स्तर पर जांच भी करना हो सकता है मगर इस प्रकार अनजाने ही सही आतंकियों की मदद तो हो ही रही होती हैं।
मेरा केवल इतना मानना है कि यदि मीडिया को कुछ देखाई दे जो की जांच में मदद करे तो उसे पहले जांच एजेंसियों के साथ बांटे ना कि उसे पहले चैनल पर चला दिया जाए। टीवी इस समय दुनिया के कोने कोने में पहुँच रहा है और उसका असर सही भी होता है और ग़लत भी। तो लोगों को इस ग़लत असर से बचाना भी मीडिया का ही काम है।
और इसी प्रकार शायद इसी बहने पुलिस के कुछ अफसरों को भी अपने चाहेरा टीवी पर दिखाने का मौका मिल जाता है और वो जांच से जुड़े कईं तथ्य मीडिया के साथ बांटने लगते हैं। उन्हें भी चाहिए कि इस प्रकार कि संवेदनशील सूचनाएं मीडिया के साथ जांच पूरी होने से पहले न बांटे।

बुधवार, 14 मई 2008

क्या अपने ब्लॉग पर अपनी राये रखना एक बेवकूफी है?

कल मैंने चीन के मसले पर जो कुछ भी लिखा वो मेरे मन में आया। इसका मतलब ये कतई नही की मैं किसी को नीचा दिखाना चाहता था। और उसमें कितनी समझदारी या बेवकूफी की बातें मैंने लिखी मैं जानता हूँ। इसका जवाब मुझे मेरे साथियों की टिप्पणियों से मिल गया.ये मेरे मन का भाव था, जो मैंने उतारा और इसपर उन सभी साथियों की राये मुझे पसंद आई जिन्होंने टिपण्णी द्वारा मुझे इस पर दुबारा विचार करने के लिए प्रेरित किया मगर हिन्दी ब्लॉग जगत के एक माहन महारथी हैं जिन्हें यहाँ सब जानते हैं यदि उन्हें इस विषय में कुछ कहना था तो एक टिपण्णी डाल देते, ना की मेरे इस लेख को एक मखोल बना कर उन्होंने अपने ब्लॉग पर पोस्ट किया।

जब मैंने ब्लोगरी नई नई शुरू की गई थी तब मुझे बताया गया कि इन मठाधीशों के बारे में कुछ न लिखें, तब मैंने इस बात को हँसी में उडा दिया क्युकी मुझे पता था कि मुझे किसी और के बारे में लिखने की ज़रूरत ही नही है न ही मैं किसी पंगे में पड़ने और बेवजह बदनाम होकर नाम कमाने आया हूँ मगर अपने इन साथी महोदय की टिपण्णी का अंदाज़ मुझे ज़रा भी नही भाया और मैं चाहूँगा कि यदि किसी को लेख के बारे में कुछ भी कहना हो , चाहे मज़ाक ही उडानी हो तो टिपण्णी द्वारा कह सकता है मगर इस प्रकार अपने ब्लॉग पर मखोल की भाँती उसे ना पेश करे।

मैं कोई पेशेवर पत्रकार नही हूँ जो अपने शब्दों को संभाल संभाल के लिखे, हाँ कोशिश करता हूँ कि भाषा भद्दी न होने पाये। ये ज़रूरी नही कि हर एक व्यक्ति कि राये आपस में मेल खाए और ये भी ज़रूरी नही कि अलग ही हो।
मैंने ये पन्ना केवल अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए बनाया है। क्यूंकि हमें सिखाया गया है विचारों का मंथन करने से विचार शुद्ध होए हैं और अगर विचार अलग अलग हो तो और भी बहतर है इससे अच्छा नजीता निकलता है। बस।
अंत में निवेदन एक बार फिर कि यदि लेख पसंद आए या ना आए तो इस विषय में टिपण्णी अवश्य करें मुझे मेरी गलती से टिपण्णी द्वारा ही अवगत करायें ना कि एक मखोल बनाकर अपने ब्लॉग पर पोस्ट करें।
धन्यवाद।
नदीम

मंगलवार, 13 मई 2008

चीन में भूकंप: क्या चीन पर तिब्बत का क़हर पड़ा है?

अचानक ये बात सुनकर मेरे कान खडे हो गए। हम चीन के भूकंप की अभी बात कर ही रहे थे और अफ़सोस ही जाता रहे थे तभी मेरी बहन बोल पड़ी और हम उसका चेहरा देखने लगे. मेरी बहन ने कहा भाई ये तिब्बत का क़हर है न जो चीन पर टूटा है? मैं इस सवाल का जवाब केवल मुंडी हिलाकर ही दे पाया क्यूंकि मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या कहूं. चीन में इतना बड़ा भूकंप आया और हजारों लोग मारे गए उन सभी को हमारी श्रद्धांजलि और परिवारवालों से हमदर्दी तो है मगर इस सवाल का जवाब मुझे सुझाई नहीं दे रहा. हमारे यहाँ कहावत है कि अल्लाह की लाठी बेआवाज़ होती है और बुरा करने वाले को उसका सिला इसी दुनिया में ही मिलता है.तो क्या ऐसा इसलिए हुआ कि चीन ने तिब्बत के लोगों पर ज़ुल्म किये थे?इस सवाल को कुछ देर छोड़ देता हूँ और अमेरिका के बारे में सोचता हूँ.

अमेरिका इराक और अफगानिस्तान के बाद अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रहा है। इस बीच उसने अनेकों तूफ़ान देखे, जंगलों में आग देखी और साथ ही देखी आर्थिक मंदी जिसने उसे सबसे ज्यादा चोट पहुँचाई है.अगर में अपनी छोटी बहन की बात याद करूं तो क्या उसे भी अपने द्वारा इराक और अफगानिस्तान में किया कामों का फल मिल रहा है? क्या जैसे उसने इन देशों की जनता के साथ जो किया उसी का फल मिल रहा है और उसकी भी जनता को झेलना पड़ रहा है?
अब यदि मैं अपनी सोच को इसी तरह रखता हूँ तो शायद रूढिवादी या अंधविश्वासी का तमगा मुझे दे दिया जायेगा. मगर मैं इस सवाल का क्या जवाब दूं मुझे समझ नहीं आया. मैं हमेशा से महनत के साथ साथ किस्मत को भी मानता हूँ. और मेरा ये भी मानना है कि बुरे लोगों के साथ हमेशा बुरा नहीं होता मगर जब होता है तो बहुत बुरा होता है. हम अपनी ताक़त के जोश में अच्छा बुरा और सही गलत भूल जाते हैं मगर हमें याद रखना चाहिए कि हमें अपने किये का फल यहीं अदा करना है.

सोमवार, 12 मई 2008

विजय माल्या:ग़लत नौकरी में फँसे हैं?

शराब के बादशाह विजय माल्या क्या गलत नौकरी में फँस गए हैं इस बार?लग तो कुछ ऐसा ही रहा है। बड़े चाव से उन्होने IPL में क्रिकेट की टीम खरीदी मगर नतीजा उनकी उम्मीद के अनुसार नहीं आया. शायद ऐसा ही हाल डेकन chargers का भी होगा, मगर ऐसा क्यूँ है ये सभी उद्योगपति मुझे लगता है एक गलत काम में शामिल हो गए हैं, जहाँ इन मुनाफा कमाने वालों से रह पाना मुश्किल हो रहा है. दर असल यदि ये लोग खिलाडी होते तो शायद इन्हें पता होता कि IPL को हम जितना भी व्यापारिक कहें खेला ये खेल की ही भाँती जायेगा. यानी इसमें एक टीम हारेगी और एक टीम जीतेगी भी. और केवल चार टीमे ही सेमी final में पहुँचेंगी. और कुछ टीमे ऐसी होंगी जो अत्यधिक मैच जीतेंगी और कुछ ऐसी भी रहेंगी जो अन्तिम स्थान पर रहेंगी ऐसे में केवल एक सीज़न को देखते हुए अपनी टीम पर ऊँगली उठा देना और खिलाडियों और टीम प्रबंधन को बाहर का रास्ता दिखा देना क्या सही होगा? मेरा ख़याल से नहीं. हमेशा कोई अच्छा नहीं खेल सकता. खेल के अन्दर अच्छा और बुरा दौर आता जाता रहता है. ऐसे में केवल खिलाडी ही अपने आप को समझा सकता है. मगर अफ़सोस की बात ये है कि जितनी भी ये टीमे बिकी हैं उसमें मालिकों में खिलाडी कोई नहीं है. हाँ शाहरुख़ खान क्यों के अपने school और कॉलेज के ज़माने में खेला करते थे तो शायद वो इस बात को बहतर समझ सकते हैं शायद यही वजह थी की अपनी टीम के लगातार ३ मैच हारने के बावजूद वो खिलाडियों से यही कहते दिखाई दिए कि हारकर जीतेने वाले को बाजीगर कहते हैं.

और जिन खिलाडियों पर ये लोग ऊँगली उठा रहे हैं क्या उनपर ऊँगली उठायी जा सकती है. सभी कह रहे हैं माल्या के पास टेस्ट टीम हैं मगर क्या आप जक्क़ुएस् काल्लिस और राहुल द्रविड़ के खेल पर ऊँगली उठा सकते हैं और प्रवीण कुमार के साथ मिस्बाह वो किस टेस्ट टीम का हिस्सा रहे हैं माल्या की टीम एक बहतर और शानदार टीम हैं. हमने ऐसी कईं गाडियाँ देखि हैं जो रफ़्तार पकडे में समय लगाती हैं मगर उनके रफ़्तार में आने के बाद कोई उनसे आगे नहीं रह पाता. और यही बात डेकन chargers पर भी लागू होती है.उनके पार ऐडम गिक्रिस्ट और शाहिद अफरीदी है जो यदि १/२ घंटा भी खडे हो जाएँ तो रनों का अम्बार लगा सकते हैं उन्हें अभी और वक़्त देना पड़ेगा.और ये खेल केवल एक सीज़न का नहीं है.टीम के मालिकों से उम्मीद यही है की वो खेल का जिम्मा खिलाडियों और कोच पर छोड़ दें जैसा की मुकेश अम्बानी ने किया है.

शनिवार, 10 मई 2008

माँ-बस तेरे लिए. : माँ तुझे सलाम!

ऐ माँ मैं तेरे आँचल में पला बढ़ा,
न जाने किस रास्ते पर खोने चला।
फिर ज़रूरत है तेरी हथेली की मालिश की,
के बहुत दिन हो गए चैन से सोये हुए।

खो गया हूँ मैं
फिर से जाने किन राहों में,
भटक सा गया हूँ
मैं अकेले चलते हुए।

हर एक लम्हा
मैं तेरा शुक्र गुज़ार हूँ माँ,
जानता हूँ के मेरी तकलीफ में
कईं शब गुज़री तुझे न नींद लिए,

मुश्किलात हैं कड़ी राहों में मेरी,
है मुझे तेरी ही दुआओं का सहारा ऐ माँ,
मुझे फिर गले से लगाले,
मुझे भी अब इस बेचैनी से चैन मिले।

पता नही मैंने क्या लिखा जो भी तुक बना मैंने लिख डाला। सुना है, कल माँ का दिन है।

मेरी माँ को मेरा सलाम।
सबकी माँओं को भी सलाम।

गुरुवार, 8 मई 2008

मुहब्बत का फ़र्ज़ न निभा पाओगे,गर रूठ गया कोई तो न मना पाओगे: कुछ मेरी डायरी से!

मुहब्बत का फ़र्ज़ न निभा पाओगे,
गर रूठ गया कोई तो न मना पाओगे,
ये मुहब्बत नही है बोझ है काँटों का,
ज्यादा देर तलक ऐ दोस्त इसको न उठा पाओगे।

हो जायेंगे छलनी ये पैर यूँही चलते चलते,
ये गरम पत्थरों का रसता है तुम भी झुलस जाओगे।

यूं तो होता है असर दुआओं में भी सुना हमने भी है,
मगर जब माशूक को ख़ुदा कहोगे तो ख़ुदा को क्या मुँह दिखाओगे।

हज़ारों ग़म हैं इस इश्क में समझा रहा हूँ मैं,
क्या मेरे पाँव के छालों से कुछ सबक न पाओगे।

हिन्दी ब्लोगरों के लिए ओरकुट पे चौपाल!

दिन प्रति दिन हिन्दी ब्लोगरों की संख्या बढ़ती जा रही है। मगर मुझे ऐसा कोई मंच नज़र नही आया जहाँ पर लोग अपने विचारों को नि संकोच रख सकें और पुराने और दिग्गज ब्लोगरों से कुछ पूछ और सीख सकें। अब क्यूंकि हर कोई मेरी तरह बेशर्म नही हो सकता न कि ब्लॉग लिखकर लोगों से जानकारी मांगे। जब मैंने ब्लोगरी शुरू की थी तब अधिक जानकारी नही थी तो जानकारी जुटाने के लिए ख़ुद ही ऐसी पोस्ट लिखकर अन्य ब्लोगर भाइयों से जानकारी जुटा लेता था। मगर सोचा क्यों न ऐसा मंच बनाया जाए जहाँ सभी ब्लोग्गर मिलकर बतियाएं और जिससे हमें भी कुछ सीखने का मौका मिले।

तो मैंने ओरकुट पे एक नई community शुरू की है, उम्मीद करता हूँ साथियों का इसमें साथ मिलेगा।

पता है

http://www.orkut.com/Community.aspx?cmm=51878774&refresh=१

शुक्रवार, 2 मई 2008

इंसानों को काम देते नही जानवरों को काम करने नही देंगे!

आज एक ख़बर पढी के हमारे प्यारे यानी के vodafone के प्यारे से कुत्ते के बारे में हमारे कर्तव्य निष्ठ पशु सेवकों को कुछ शिकायत है सुनकर वैसे कोई अचम्भा नही हुआ क्यूंकि ये कोई नई बात नही है मगर थोड़ा अफ़सोस ज़रूर हुआ कि इनकी तकलीफ क्या है? जहाँ इंसानों को काम नही मिलता वही यदि ये कुछ कमा रहे हैं तो क्या बुरा है। और रही बात महनत ओर तकलीफ की तो इंसानों को काम करते वक्त क्या कम तकलीफ झेलनी पड़ती है?
वहाँ तो कोई मदद के लिए नही आता।
अब तो मैं सोच रहा हूँ कि अपने पडोसियों से कहूं कि अपने कुत्ते के साथ खेलते हुए उससे गेंद पकड़कर लाने के लिए न कहें क्यूंकि कहीं ये बात हमारे पशु सेवकों ने दीख ली तो समझ लीजियेगा कि अदालत के चक्कर काटने पड़ेंगे।

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails