मुहब्बत का फ़र्ज़ न निभा पाओगे,
गर रूठ गया कोई तो न मना पाओगे,
ये मुहब्बत नही है बोझ है काँटों का,
ज्यादा देर तलक ऐ दोस्त इसको न उठा पाओगे।
हो जायेंगे छलनी ये पैर यूँही चलते चलते,
ये गरम पत्थरों का रसता है तुम भी झुलस जाओगे।
यूं तो होता है असर दुआओं में भी सुना हमने भी है,
मगर जब माशूक को ख़ुदा कहोगे तो ख़ुदा को क्या मुँह दिखाओगे।
हज़ारों ग़म हैं इस इश्क में समझा रहा हूँ मैं,
क्या मेरे पाँव के छालों से कुछ सबक न पाओगे।
कोतुहल मेरे दिमाग में उठता हुआ एक छोटा सा तूफ़ान है.जिसमें में अपने दिल में उठा रही बातों को लिख छोड़ता हूँ.और जैसा की नाम से पता चलता है कोतुहल.
गुरुवार, 8 मई 2008
मुहब्बत का फ़र्ज़ न निभा पाओगे,गर रूठ गया कोई तो न मना पाओगे: कुछ मेरी डायरी से!
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
हज़ारों ग़म हैं इस इश्क में समझा रहा हूँ मैं,
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही समझा रहे हैं आप !
बहुत उम्दा!!
जवाब देंहटाएं------------------------
आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.
शुभकामनाऐं.
-समीर लाल
(उड़न तश्तरी)