सोमवार, 25 जून 2012

Tamasha hai Zindagi aur main ek bandar: तमाशा है ज़िन्दगी,


तमाशा है ज़िन्दगी,
और उस तमाशे का,
मैं कोई बन्दर सा हूँ,
लोग आते हैं,
 चंद सिक्के उछलकर चले जाते हैं,
और मैं उन सिक्कों को,
समेटता रह जाता हूँ।


गुज़र जाती हैं,
मेरी ज़िन्दगी की, कुछ घड़ियाँ,
यूँही उछलते  कूदते,
मगर जब शाम होती है,
खुद को तनहा,
किसी रस्सी से बंधा पाता  हूँ,
मैं सिक्को को  समेटता रह जाता हूँ।


 कल जब मैं मिला था अपने आप से,
 उस अँधेरे कोने में,
जहाँ रहती थी तनहाई,
रहती ग़मों को पिरोने में,
पाया खुद को किसी धागे में बंधा,
उलझा हुआ सवालों में,
न जाने क्यूँ खुद को अब तक,
उन बंदिशों से आज़ाद करा न पाता हूँ,
मैं सिक्को को समेटता रह जाता हूँ।

शुक्रवार, 8 जून 2012

ज़िन्दगी को एक बोझ की तरह, जी कर ही रवानगी ले लूँगा.


शाम ज़रा मुख़्तसर सी होकर,
सिकुड़कर बैठी है,
और मैं सोच रहा हूँ,
शायद कुछ ज़िन्दगी के बारे में,
पता नहीं मिलेगी भी मुझे,
या फिर यूँही तन्हा,
कुछ हसरतों को लिए,
ज़िन्दगी को एक बोझ की तरह,
जी कर ही रवानगी ले लूँगा.

लोग कहते हैं,
तू मायूसी मिटा देता है,
जहाँ भी जाता है.
मैं हँस देता हूँ,
ये सोचकर,
के मेरे दिल की मायूसी भी,
क्या कभी मिट पायेगी,
या फिर यूँही तन्हा,
कुछ हसरतों को लिए,
ज़िन्दगी को एक बोझ की तरह,
जी कर ही रवानगी ले लूँगा.

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