तमाशा है ज़िन्दगी,
और उस तमाशे का,
मैं कोई बन्दर सा हूँ,
लोग आते हैं,
चंद सिक्के उछलकर चले जाते हैं,
और मैं उन सिक्कों को,
समेटता रह जाता हूँ।
गुज़र जाती हैं,
मेरी ज़िन्दगी की, कुछ घड़ियाँ,
यूँही उछलते कूदते,
मगर जब शाम होती है,
खुद को तनहा,
किसी रस्सी से बंधा पाता हूँ,
मैं सिक्को को समेटता रह जाता हूँ।
कल जब मैं मिला था अपने आप से,
उस अँधेरे कोने में,
जहाँ रहती थी तनहाई,
रहती ग़मों को पिरोने में,
पाया खुद को किसी धागे में बंधा,
उलझा हुआ सवालों में,
न जाने क्यूँ खुद को अब तक,
उन बंदिशों से आज़ाद करा न पाता हूँ,
मैं सिक्को को समेटता रह जाता हूँ।
क्या कहने, वाह जी वाह।
जवाब देंहटाएं1. Facebook Comment System को ब्लॉगर पर लगाना
2. गुलाबी कोंपलें
Shukriya Vinay ji..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर...
जवाब देंहटाएंI agree with you, Tamasha hai zindagi. Really like your post. Yes life is Tamasha. I really like this post. I work in Towing Des Moines company. Thanks for sharing. Keep posting.
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