रविवार, 29 जून 2008

वो मुस्कुराकर बोले कि एक और आशिक का जनाज़ा चल दिया। हाल ऐ दिल !


यूँ शाम है, तन्हाईयाँ और तेरी याद है,

बस कमी जाम की थी, ये काम आंसुओं ने कर दिया।

वो तो बैठे थे के रुसवा करके जायेंगे हमें,

उनकी कोशिश तो क्या होती, ये काम तेरी बेवफाई ने कर दिया।

हम हैं के मरे जाते हैं खुशियों पर उनकी,

और वो हैं जिन्होंने कब्र का इंतेज़ाम भी कर दिया।

हर किसीको आ रही थी सदा हमारी,

और वो मुस्कुराकर बोले कि एक और आशिक का जनाज़ा चल दिया।

सोमवार, 23 जून 2008

याद तो रहेगी ही..........

कुछ दूरियों का एहसास है



वो पहले जैसी बात है



बंदिशे
महसूस होने लगी है



जाने इसके पीछे क्या राज़ है



दिल कुछ परेशा तो



क्या इन सवालों का जवाब किसी के पास है?



या यह सिर्फ़ उन बीते हुए लम्हों की याद है



जो बीतेंगे दोबारा बस रह जायेंगे याद बन कर



हसाएंगे तो रुलायेंगे भी।



तुम रहो हमारे पास,



यादें तो ज़िंदा रहेंगी ही,



हम रहे या रहे।



हमारी याद तो रहेगी ही........




शनिवार, 21 जून 2008

क्या गुनाह किया है कोई जो नसीब में बस,तन्हाईयाँ और सिर्फ तन्हाईयाँ ही लिखी है। हाल ऐ दिल!

तन्हाई में जीने की आदत ना थी,

ना खवाहिश कभी चुप रहने की, की,

चाहतें तो घिरे रहने की थीं दूसरों से हमेशा,

पर मुमकिन नहीं कि हो हर सपना पूरा हमेशा।

कभी जो रहते थे दिल क करीब,

आज उन्हें हमारी मौजूदगी भी नागवार गुज़रती है,

बातों में हमारी सौ बुराइयां और बस खामियां ही खामियां दिखती है,

क्या सच में बदल दिया वक़्त ने इतना कुछ कि,

कि हमारी परछाईयाँ भी हम से डरती है।

क्या गुनाह किया है कोई जो नसीब में बस,

तन्हाईयाँ और सिर्फ तन्हाईयाँ ही लिखी है।

निदा अर्शी

शुक्रवार, 20 जून 2008

कुछ इन्तेज़ार कभी ख़त्म नही होते! हाल ऐ दिल!

हम चल दिए थे मंज़िल की तरफ़,
और सोच रहे थे उसे पाने की,
पर हमको क्या पता था, पागल थे हम भी,
क्यूंकि कुछ फासले कभी कम नही होते।

हम यही सोचकर चलते रहे,
के वो भी यही सोचता होगा,
जितना हम इंतज़ार में तड़प रहे हैं,
वो भी तो तड़प रहा होगा,
पर हमको क्या पता था, पागल थे हम भी,
क्यूंकि तड़पाने वाले तो होते हैं, पर तड़पने वाले लोग, अब नहीं होते।

सारी ज़िन्दगी इंतज़ार उसका करते रहे हम,
सुबह से शाम ज़िन्दगी, करते रहे हम,
सोचते रहे के वो अब आएगा, वो आएगा,
कभी तो ये इन्तेज़ार मिटाएगा, वो अब आएगा
पर हमको क्या पता था, पागल थे हम भी,
क्यूंकि कुछ इन्तेज़ार कभी ख़त्म नही होते।

तेरा वो ख़त आखिरी वाला! हाल ऐ दिल !

वो ख़त मुहब्बत का आखिर वाला,
के जिसमें तुमने अपने दिल की सारी बातें मुझे इशारों में समझाई थी,
वो ख़त जो मैंने आज भी संभल कर रखा है,
जिसमें तुमने मुझे आखिरी बार याद किया था।

कभी कभी सोचता हूँ जला दूँ उसे,
फिर सोचता हूँ, आखिरी याद है सहेजकर रख लूँ उसे,
वो ख़त आज भी मुझे तुम्हारी याद दिलाता है,
जिसमें तुमने मुझे आखिरी बार याद किया था।

बार बार पढता हूँ आज भी उसे,
फिर उसे दुबारा उठा के दिल के करीब ले जाता हूँ,
वो ख़त आज भी मुझे तुम्हारे होने का एहसास दिलाता है,
जिसमें मैंने तुम्हे आखिरी बार महसूस किया था।

अगर नही कहूं तो झूठा बन जाऊंगा मैं,
के आज भी इन्तेज़ार तेरा कर रहा हूँ मैं,
आज भी मेरे सिरहाने रखा होता है वो ख़त,
जिसमें मैंने आखिरी बार तेरे अक्स को महसूस किया था।

गुरुवार, 19 जून 2008

कैसे कहें किस्मत साथ नही देती: एक ग़ज़ल!

तो जनाब कल जैसे हमने फ़रमाया था। निदा अर्शी के बारे में उन्होंने अपनी एक और रचना भेजी है। उम्मीद है आपको पसंद आयेगी। और हाँ अब हमने उनसे ये वादा भी ले लिए है कि वो अब बराबर लिखती रहेंगी। उम्मीद है आगे भी उन्हें पढने का मौका मिलेगा।
पेश-ऐ-खिदमत है, निदा अर्शी की एक और रचना।

काफिले तो कई मिले ज़िन्दगी के सफ़र में,
पर हमने सब से किनारा कर लिया।


गुमनामी में जीने की ख्वाहिश जगी,
और हमने अंधेरो में बसेरा कर लिया।


बागों में चलने का मौका मिला,
पर हमने सफ़र-ए-सेहरा चुन लिया।


खुशियों ने दरवाज़े पर दस्तक दी,
पर हमने अपना घर ही बदल लिया।


तो अब भला किस मुँह से कहें कि क़िस्मत साथ नहीं थी,
जब हमने ख़ुद ही अपनी क़िस्मत का फैसला कर लिया।

निदा अर्शी

रात, तन्हाई, थोड़ा अँधेरा और मेरा दोस्त, मेरा रेडियो!

रात, तन्हाई, थोड़ा अँधेरा और मेरा दोस्त, मेरा रेडियो!

परसों सभी कामों से फारिग होकर घर के एक कोने में जा बैठा, अचानक गली से रेडियो की अवाज़ कान में पड़ गई, फिर क्या दौड़कर अपना छोटा सा रेडियो ले आया। कुछ शोर मचाते stations को बदलने के बाद एक रेडियो स्टेशन पर आकर उंगलियाँ रुक गई, कोई अपना सपना बता रहा था! फिर रेडियो jockey की मधुर आवाज़ सुनाई दी जो उन जनाब के सपनो के सच होने की दुआ कर रही थी। फिर इसके बाद उन जनाब का पसंदीदा गाना बजाया गया। तन्हाई, रात, हल्का अँधेरा और रेडियो का साथ जिसपर मधुर गीत बज रहे हों, कभी-कभी क्या, हमेशा ही माहौल को रंगीन बना देता है। साथ इस पर आने वाले हर jockey, हर फरमाईश करने वाले और उसकी पसंद के बजते गानों के साथ मन अपने आप को पता नही क्यूँ जुड़ा हुआ सा महसूस करता है।

कभी हमारे एक teacher हुआ करते थे जिनकी उम्र हमसे कुछ खास ज़्यादा नही थी, लगभग हमारी ही उम्र के उनका नाम शिशु है, उनसे एक बार किसीने पूछा कि इंसान का सबसे अच्छा दोस्त कौन होता है, उन्होंने कहा "रेडियो" । इस जवाब की किसीको उम्मीद नही थी। फिर उन्होंने बताया कि किस तरह इंसान अपने आप को इससे जुड़ा हुआ महसूस करता है। अपने दिल कि हर एक बात रेडियो पर कॉल करके बताते है और किस तरह रेडियो पर बोलने वाले सबकी बातों को ध्यान से सुनते हैं और अपनी राये देते हैं। और सबसे बड़ी बात ये ऐसा दोस्त हैं जिसपर अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, किसी भी चीज़ का फ़र्क नही पड़ता। इसको एक रिक्शा चलने वाला भी सुनता है और इसको उच्च पदों पर बैठने वाला भी सुनता है। और वाकई आज जब मनोरंजन के इतने साधन हैं वहाँ अभी भी रेडियो का अपना महत्व और पसंद करने वाले हैं।

आज भी ऐसे लोगों को कमी नही है जो रेडियो पर ख़त लिखकर अपनी पसंद के गाने बजने का इन्तेज़ार करते हैं और अभी भी सुनने वालों कि जब लिस्ट होती है तो अपने पूरे मुहल्ले का नाम लिखते हैं और हाँ जब वो गाने बजें तो पूरा मोहल्ला या कहूँ गाँव बैठकर उसको सुनता है और अपना नाम भी सुनता है। हाँ भले ही अब खतों की जगह काफ़ी हद तक फ़ोन ने लेली हो मगर सुनने वालों की उत्सुकता कम नही हुई है। शायद रेडियो आज भी आम आदमी से जुड़ने का सबसे आसान तरीका है। बस कमी ऐसे रेडियो stations की है जो शोर को कम रखें और लोगों से जुड़ने वाले प्रोग्राम बनाये।

बाक़ी रेडियो से जुड़ी तो काफ़ी बातें हैं जो आगे भी जारी रहेंगी।

बुधवार, 18 जून 2008

पानी एक एहसास !


आज मैं यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ अपनी एक मित्र निदा अर्शी की लिखी एक कविता जिसमें पानी के बारे में बताया गया है। के ये पानी हमारी जिंदगी में कहाँ शामिल है। मुझे उम्मीद है इन्हे भी सराहा जाएगा।



आँखों की नमी है पानी, नदी की लहर भी पानी,


पानी ज़म-ज़म है तो, गंगा जल भी है यही पानी,


हर किसी की आस्था का निशान भी है पानी,


ज़िन्दगी की शुरुआत है पानी तो,


इसका अंत भी है यही पानी,


पानी शीतल है, पर,


नाली में बद-शक्ल भी हुआ है यही पानी,


आँखों से गिरा तो जज़्बात है बना यह पानी,


और कभी मोती की माला बन कर सजा भी यही पानी,


खुद तो बे-रूप और बे-रंग है पानी,


जिस दिशा धरा ले चली उसी ओर मुडा यह पानी,


जिस रंग में मिलाया उसी रंग में रंगा भी यही पानी,


आकाल में तरसाए भी यही पानी,


और बाढ़ में क़हर ढाये भी यही पानी,


लोगो को बनाये और मिटाए भी यही पानी,


लोगो को मिलाये और दूर भी ले जाये यह पानी


बारिश की ठंडी बूंदे भी है पानी,


और इन्द्रधनुष के रंग भी है यही पानी,


आज मैला और गद्दिला हुआ है यह पानी,


पर आज भी ज़िन्दगी की डोर है यही पानी,


ख़ुशी में आँख से झलका वो भी पानी,


और जब दिल रोया तो वो भी पानी,


इस तरह ……आँखों की नमी भी पानी……और नदी की लहर भी पानी……


निदा अर्शी


मंगलवार, 17 जून 2008

फिर इन आंखों में नमी चली आई। हाल ऐ दिल!

तू तो आया नही, तेरी याद चली आई,
फिर इन आंखों में नमी चली आई।


हँस रहा था यूं तो मैं तस्वीर खुशगवार देखकर,
फिर क्या हुआ जो इस तस्वीर में तेरी झलक नज़र आई,
फिर इन आंखों में नमी चली आई।



कल पूछ रहा था डाकिया मुझसे जाते-जाते,
क्या हुआ आपकी कईं दिनों से चिठ्ठी नही आई?
फिर इन आंखों में नमी चली आई।


अब तो आईना भी मुझे चिढाने लगा है,
मुझको मेरी तस्वीर ही उसमें धुंधली नज़र आई,
फिर इन आंखों में नमी चली आई।


नज़र उठा के आसमान को जो देखा मैंने,
बादलों से झांकते हुए फिर तू नज़र आई,
फिर इन आंखों में नमी चली आई।


यूं तो सुना था बदकिस्मत है वो, जिनके हिस्से में ग़म नही होते,
मगर अपने हिस्से में ये खुशकिस्मती दामन भरके आई,
फिर इन आंखों में नमी चली आई।


हमने सोचा था के अब अश्क भी सूख चुके हैं हमारे,
मगर आज फिर एक लहर लबों तक उठ आई,
फिर इन आंखों में नमी चली आई।

सोमवार, 16 जून 2008

पापा!

प्यारे पापा,
मैं जानता हूँ कि ये ख़त मैं आपको सीधे नही लिख रहा हूँ, मगर इसकी वजह क्या है आप जानते है कि मैं आपसे सीधे बात नही कर सकता। मुझे ये भी पता है कि शायद इस ख़त के बारे में आपको थोडी देर से पता चले या शायद पता ही न चले। पता नही क्यों बहुत दिन से आपसे कहना चाहता था कि मैं आपसे बहुत प्यार करता हूँ। मम्मी को तो ये बात पता है क्यूंकि वो मेरे साथ हमेशा रहती हैं और उनसे बात भी होती रहती है मगर पता नही क्यों आज तक आपसे कहने कि हिम्मत नही हुई है। और मैं ये भी जानता हूँ कि आप भी मुझसे इतना ही प्यार करते हैं या शायद उससे भी ज़्यादा। मुझे आज भी याद है बचपन में ईद से पहले जब आपको पैसे कम मिला करते थे तो आप कभी भी अपने लिए कपड़े लेकर नही आए, मगर कभी हमारी ईद को सूखा नही जाने दिया आपने।
मुझे पढाई के लिए जब भी पैसे की ज़रूरत होती आप अपना सब काम छोड़कर या टालकर मेरा काम किया करते थे। मेरा ही नही हम सभी बहन-भाइयों का। और आज भी कर रहे हैं। हाँ आज हम कितने भी बड़े हो गए हों मगर आपसे बड़े नही हो सकते। आप हमेशा हमारे लिए सबकुछ है और रहेंगे। आज से एक साल पहले २९ जून के दिन जब मैं बीमार पड़ा था और कईं दिनों तक हॉस्पिटल में था तब आपने अपनी रातें जाग जाग कर गुजारी है जबकी आप दिन भर काम से थक कर आया करते थे।
सुना है माँ अपने बच्चों से कह देते है कि वो उनसे कितना प्यार करती है, मगर बाप नही कह पाता। और शायद बच्चे भी हमेशा बस माँ से ही कह पाता हैं अपने दिल की बात मगर बाप से नही कह पाते। मगर आपकी आँखें जो रात भर हमारे बारे में सोचते सोचते पथरा सी गई हैं सब कह जाती है। पहले जब mother's डे था हमने बड़ा शोर शराबा मचाया था मगर कल जब father's डे था तो हम सब चुप चाप सो गए और आपसे कुछ कहा ही नही।
मैं आज आपसे, आपने जो कुछ भी हमारे लिए किया उसका शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ। और आपसे वादा करना चाहता हूँ कि पहले कि तरह आपका दिल नही दुखाऊंगा।
अल्लाह हाफिज़
आपका मिन्टू

के पड़ रही हैं बारिश की बूँदें और तुम याद आ रहे हो! : हाल ऐ दिल

फिर चल रही हैं महकती ठंडी हवायें ,
के पड़ रही हैं बारिश की बूँदें,
और मुझे, तुम याद रहे हो

हो रहा है दिल मोर की तरह बैचैन,
उठ रही हैं दिल में हसरतें,
और मुझे, तुम याद रहे हो

कर रहा हूँ महसूस खुशबुओं को मिटटी की,
बस रही हैं मेरी साँसों में सीरत इनकी,
और मुझे, तुम याद रहे हो

सामने देख रहा हूँ किसी को लड़ते हुए,
के हो रही हैं शिकायतें बारिश में निकलने पर,
और मुझे, तुम याद रहे हो

के बैठा हुआ हूँ हाथ में चाए का कप लिए,
सामने से तुम्हारे मनपसंद पकोडों की खुशबू रही है,
और मुझे, तुम याद रहे हो

जब भी चल रही है ठंडी हवा,
देख रहा हूँ उड़ती हुई जुल्फें किसीकी,
और मुझे, तुम याद रहे हो

जब कम हो रही हैं बूँदें, सामने से कोई कह रहा है,
मौका अच्छा हैं अब निकलने दो,
और मुझे, तुम याद रहे हो


रविवार, 15 जून 2008

चेतावनी : पढने वाले अपनी ज़िम्मेदारी पर पढ़ें! लेख तकनीकी तौर पर सही होने की ज़िम्मेदारी नही है!

आजकल लेखन के तकनीकी तौर पर सही होने का ज़माना सा लग रहा है। मुझे मेरे एक मित्र ने बताया कि तुम्हारी ब्लॉग की कुछ पोस्ट पढीं और पाया उसमें लेखन की कुछ तकनीकी खामियां थीं। अब ये सुनते ही मेरे कान खड़े हो गए। मैंने कहा अरे भाई हिन्दी में लिखता हूँ, मात्राओं की गलती कम करता हूँ और कौनसी तकनीक लगानी है। अब मुझे वो सब समझाने की कोशिश की जिसमें हमारे हिन्दी के उस्ताद तक परेशान हो गए थे।

उन्होंने मुझे बता कि जनाब आप हिन्दी लिखते वक्त उर्दू का प्रयोग बहुत करते हैं, कहीं कहीं भोजपुरी और पंजाबी भी चली आती है। सबसे ज़्यादा शिकायत आई हमारी तुकबंदी को लेकर, अब मुझे क्या पता था इसमें भी तकनीक लगती है। बहरहाल हमारी कक्षा घंटो तक चली और अंत में हमसे पूछा गया कि क्या सीखे? अब जवाब के मौके पर अपनी मुंडी फिर नीचे।
इसके बाद हिम्मत करके हमने भी पूछ ही लिया की पहले ये बताओ बात समझ आ गयी न क्या लिखा था पोस्ट में? उन्होने हाँ में सर हिला दिया और फँस गए। मैंने कहा, "बस तो फिर अपना काम है अपनी बात को समझाना। और जो भाषा लिखता हूँ अधिकतर लोगों की समझ में आ जाती है. "अब ये सुनकर जनाब खामोश हो गए। और वैसे भी अभी लेखन शुरू किया है। कोई साहित्यकार नही हूँ, हो सकता है समय के साथ सुधार आजाये। वैसे इसकी उम्मीद काफ़ी कम है।बाकि कोशिश जारी रहेगी।
मैंने भी सोचा कि क्यूँ न एक चेतावनी के तौर पर एक बार ब्लॉग पर पोस्ट कर दूँ।

चेतावनी : पढने वाले अपनी ज़िम्मेदारी पर पढ़ें! लेख तकनीकी तौर पर सही होने की ज़िम्मेदारी नही है!

शनिवार, 14 जून 2008

चंद अशआर : कुछ मेरी डायरी से !

हमें ऐतबार था के वो लौटकर आएगा,

बस इसी इंतज़ार में सांस को रोके रखा हमने।

हर एक वक़्त आता है ख्याल उनका हमें,

क्या उनका भी हाल यही होता होगा?

वो मुस्कुरा रहा है मेरे ज़ख्म देखकर,

के जिसके ज़ख्मो पे कभी हमने अपना दिल रख दिया था।

एक लम्हे ने बदल दी दुनिया,

के जो अपना था अब वो पराया हो गया है।

मैं आज फिर ख्वाब से डरकर उठा ,

के आज फिर तेरी बेवफाई को ख्वाब में देखा मैंने.....


मुश्किलात से बचकर कब तक भागेगा,

जब कोई याद आएगा तो तड़प जायेगा।

उसको आदत है रोकर लोगों को रुला देने की मगर,

उसके रोने का असल दर्द मालूम तो करना होगा।

हंसने की चाहत में रोना सिखा दिया,

तेरी बेवफाई ने आंसुओं का झरना बना दिया॥


करूं कैसे इज़हार ए मोहब्बत किसी और से,

के हर जगह तेरा ही चेहरा नज़र आता है।

कहने को तो खुददार मैं भी हूँ वो भी है,

मगर इस खुददारी का सिला शायद मुझे न मिले।

ये भी एक तुकबंदी से ज़्यादा कुछ नही है। पता नही किसी को पसंद आएगी भी नही।

हम ब्लागरों के स्वास्थ्य की चिंता अब पत्रकारों को! और मेरा सवाल डॉक्टर ब्लागरों से.

कल का अख़बार पढ़, वैसे कुछ नया नही था हाँ अक्सर की तरह कल भी ब्लॉग का ज़िक्र अखबार में हुआ मगर कैसे ? इस बार पढ़ा की अब पत्रकार भाईयों को ब्लागरों के स्वास्थ्य के चिंता सता रही थी। अब उन्होंने ब्लोगेरी को एक मानसिक बीमारी क़रार दे दिया और ये बताया गया है कि ब्लोग्गिंग कि वजह से दो बड़े तकनीकी ब्लागरों की मृत्यु हो चुकी है। साथ में कुछ डॉक्टरों से की गई बात भी छपी गई है कि ब्लॉगर सदा अपने कंटेंट के बारे में सोचते रहते हैं जिससे उन्हें मानसिक बीमारी होने का ख़तरा बढ़ गया है। साथ में ये भी बताया गया कि इसकी वजह सो ब्लॉगर मोटापे के शिकार भी हो सकते हैं। जहाँ तक मुझे समझ आया।
अब इन लक्षणों को अपने पर आजमाने कि बारी आई में भी ज़रा अपनी हालत देख लूँ। हाँ अक्सर सोचता तो रहता हूँ कंटेंट के बारे में, तो क्या ये बीमारी है ?
ब्लॉग को दिल भी लगाया है, तो क्या ये भी एक दिल की बीमारी बन गई है?
मोटापा, नही यार अभी नही आया है। यहाँ विचारणीये कुछ नही है।

बाकी जब डॉक्टरों का ज़िक्र हुआ तो मुझे याद कि हमारी ब्लोगेर बिरादरी में भी तो कुछ डोक्टर हैं क्यों न उनसे ही इस विषय में पूछ लिया जाए।
तू क्यों भाई ब्लॉगर डॉक्टरों क्या विचार है इस विषय में आपका?
या ये अब कुछ और ही चक्कर है?????

शुक्रवार, 13 जून 2008

हम हिन्दी में लिखने वाले, किसीसे कमतर हैं क्या?

यूँही बैठे हुए अपने ब्लॉग पर कुछ कोतुहल उतार रहा था इतने में एक पढ़े लिखे जनाब आ गए। बोले," क्या कर रहे हैं हिन्दी में लिख रहे है आप तो"। ये कहकर जनाब ने हँसना शुरू कर दिया। अब जनाब हिन्दी भाषी है तो हमने भी बता दिया के, "भइया मैं उस भाषा में लिखता हूँ जिसे मेरे देश के करोड़ों लोग बोलते और समझते हैं।"

अब अगला सवाल क्या आपको अंग्रेज़ी नही आती है? अब इस सवाल का जवाब उसे मेरे आलावा मेरे पास बैठे सभी लोगों ने दे दिया।

फिर मैं सोचने लगा यार इसके पूछने का मतलब क्या था और वजह क्या थी? क्या ये मुझे या हम हिन्दी में लिखने वालों को कुछ कमतर समझ रहा है? फिर तो मैंने मन बना ही लिया जय अब तो जनाब को हिन्दी साहित्य से अवगत कराना ही पड़ेगा। बस फिर क्या है धीरे धीरे हिन्दी ब्लॉग पढने की लत लगा दी है, अब किसी न किसी दिन जनाब का भी ब्लॉग पढने को मिलने वाला है..वो भी हिन्दी में।

१६ मई २००८ के बाद देश में कोई क़त्ल नही हुआ!

पता नही क्यों मुझे ऐसा लगता है कि जैसे १६ मई २००८ के बाद से देश में कोई भी क़त्ल नही हुआ है। अब या तो ये मेरी समझ का फेर है या मुझे किसी अख़बार या टीवी चैनल पर कुछ और दिखता ही नही नही।
ऐसा नही है कि मुझे आरुषी या हेमराज से सहानुभूति नही है, मगर मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि हम एक को इन्साफ दिलाने पर ज़्यादा ज़ोर से रहे हैं और इस बीच कई लोगों को इन्साफ मिलने में देर आ रही है। हम अपने न्यूज़ चैनल्स कि जितनी चाहे आलोचना करें मगर ये सच है कि इनके दबाव के कारण बहुत से मामले जल्दी सुलझाए गए हैं।
इस बीच एक और मामला है जो कि गाजियाबाद का जहाँ कई बच्चे पिछले कई दिनों से गायब हो रहे है और उनकी सुध लेने वाला कोई नही है। बच्चों से संबंधित सभी संस्थाएं केवल आरुषी मामले को ही देख रही हैं मगर उन बच्चों का क्या उन्हें कौन देखेगा? हाँ ये ख़बर मुझे एक अंग्रेज़ी अखबार से मिली मगर वो भी भीतरी पन्नों में थोडी सी।

मंगलवार, 10 जून 2008

मेरा हमसाया मेरा दरख्त! : कुछ मेरी डायरी से

देता है तू साया हमको, कभी हमारा हमराज़ होता है!
कभी हमारे हाथ के खंजर के लिए, तू तख्ती का काम करता है!!
होता हूँ जब परेशां तो तेरी गौद में बैठ जाता हूँ मैं!
और कभी माँ से छुपने में तू मददगार होता है!!

मैं देता हूँ तुझे ज़ख्म जब अपनी मुहब्बत का इजहार करता हूँ!
हाथ में लेकर खंजर महबूबा का नाम लिखता हूँ!
मगर तू फिर भी मेरा दोस्त बनकर!
अपने उस ज़ख्म में उभार देता है!!

होती है जब ज़रूरत उनके घर में झांकने की!
तू मेरे लिए सीढ़ी का काम करता है!!
और जब सामने आजाते हैं उनके अब्बा!
तो तू डाली झुकाकर उनका रस्ता थाम लेता है!!

होता जब कोई उदासी का सा आलम!
तू अपने साए में सुलाकर मुझे सकूं देता है!!
और जब नाराज़ होता हूँ में किसी बात पर!
तू अपनी ठंडी हवाओं से मुझे नरमी देता है!!

तूने देखी है मेरी वो पहली मासूम सी मुहब्बत भी!
तुने ही देखी हर वो बात जो मैं माँ से कह नही सकता!!
मेरे हर एक राज़ का राज़दार है तू!
फिर क्यों मैं तुझे माँ कह नही सकता!!

बेशक है तू एक दरख्त !
बेजान कहते हैं लोग तुझे!!
लेकिन मैं जानता हूँ!
तू बेजान हो नही सकता!!

सोमवार, 9 जून 2008

बारिश से मेरी गुज़ारिश! कुछ मेरी डायरी से

बारिश का इंतज़ार!

के आती नही है तो तेरे आने का इंतज़ार रहता है!
कभी फूल पूछते हैं, कभी पत्ता बेक़रार होता है!!

पड़ती है जब पहली बूँद बारिश की!
उस खुशबू का एहसास बेमिसाल होता है!!

ये आती है तो आ जाती है खुशी सबके चेहरे पर!
और इसके जाने से मन उदास होता है!!

बड़ी दुआओं से मिलती है रहम की बारिश!
वरना बारिश में भी तबाही का सामान होता है!!

मेरी दुआ है के जब बरसे तो संभल कर बरसना,
क्यूंकि हर झोपडे में टपकने के लिए एक सुराख होता है!!
के सोता है जहाँ पर एक बच्चा ,
जिसको तेरे गुस्से से डर लगता है!!
बूँद डालना तो यूं डालना उसके चहरे पर,
जैसे माँ का हल्का सा एहसास होता है!!

शुक्रवार, 6 जून 2008

शरीफ का आन्दोलन: मीडिया है, लोग हैं और पुलिस है। गुंडों का आन्दोलन : मीडिया है, लोग हैं और पुलिस नही है।

शरीफ का आन्दोलन: मीडिया है, लोग हैं और पुलिस है।
गुंडों का आन्दोलन : मीडिया है, लोग हैं और पुलिस नही है।
यूँही विरोधों के बारे में सोच रहा था अजीब सा संयोग सामने आया। यदि कोई नौकरी की माँगा के लिए आन्दोलन करता है, महंगाई के लिए आन्दोलन करता है, या किसी भी अच्छे काम के लिए आन्दोलन करता है है तो वहाँ मीडिया तो होता है, लोग भी होते हैं मगर साथ में पुलिस भी लाठियाँ भांजने पहुँच जाती है।
मगर यदि कई गुंडे अपने राजनीतिक आन्दोलन को अंजाम देते हैं, सबसे पहले इसकी ख़बर सबको कर देते हैं, जिससे वहाँ मीडिया का बड़ा जमावाडा हो जाता है, लोग भी काफ़ी इकठ्ठा हो जाते हैं, मगर ये पुलिस क्यों नही आती और यदि आती भी है तो लाठियाँ थाने छोड़ के क्यों आती है?
और बाद में पुलिस का बयान आ जाता है कि दोषियों को बख्शा नही जायेगा और कुछ देर बाद ५०-६० में से ५-६ लोग गिरफ्तार भी कर लिए जाते हैं जिन्हें कुछ घंटों में ही छोड़ दिया जाता है, मगर यदि कोई सही कारण से सही व्यक्ति आन्दोलन करता है तो ५०-६० लोगों में से पता नही कैसे १००-११० लोग गिरफ्तार हो जाते हैं जो सालों अदालत के चक्कर लगाते रहते हैं.
क्या ये वाकई कोई संयोग है या कुछ और ? या ये मेरे दिमाग का फिर कोई फतूर इस पर साथियों की सलाह चाहूँगा।

गुरुवार, 5 जून 2008

जैसा व्यक्तित्व वैसा विरोध! क्या गुजरात और क्या महाराष्ट्र!

आज सुबह से समाचार चलाया जा रहा है कि महाराष्ट्र में किसी अखबार के सम्पादक के घर का घेराव किया गया और पत्थर बाजी भी की गई। सुनकर बड़ा अफ़सोस हुआ और उसके बाद कुछ दिन पहले के अखबार की ख़बर याद आ गई जिसमे गुजरात के एक आला पुलिस अफसर ने एक सम्पादक पर देशद्रोह का केस दर्ज करवा दिया।
अब मंथन शुरू हुआ पहले तो ये कि क्या हमारे देश में किसी के बारे में लिखना इतना जोखिम भरा है?
इन दोनों में से किसी भी सम्पादक ने ये नही सोचा होगा कि उनके साथ इतना बुरा हो सकता है।

मगर विरोध करने का तरीका क्या हो और कौन क्या तरीका अपनाता है? थोड़ा बहुत सोचने पर पता चला कि विरोध भी व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। जिसका व्यक्तित्व पुलिसिया था उसने उसी तरह दिखाया और अपनी वर्दी का रॉब भी झाड़ दिया। अब जो गुंडा है उससे किस तरह के विरोध की उम्मीद की जा सकती है। उसने उसी प्रकार विरोध जताया अब बच गए शरीफ लोग उनको वैसे भी भूखा मरना है वो लोग मेघा पाटकर की भांति भूखे रहकर विरोध जताते हैं।

अब मुझे लगता है बाकी लोगों के बारे में यदि में चुप रहूँ तो शायद मेरी सेहत के लिए भी बेहतर रहेगा। [:)]
क्यूंकि आजकल बोलने और लिखेने वालों का ही अधिक विरोध हो रहा है।

सोमवार, 2 जून 2008

IPL को मिली कामयाबी के लिए मेरी ओर से ICL को मुबारकबाद!

तो जनाब कल रात को हमने देखा IPL का शानदार final मैच जिसमें राजस्थान के रणबाँकुरों ने जीत हासिल की ओर ये प्रतियोगिता कामयाबी के साथ समाप्त हुई। बेशक इसमें बीसीसीआई ओर IPL के अधिकारियों का बड़ा हाथ है। ओर इसका श्रेय लेने वालों की कोई कमी नही है। मगर सवाल ये उठता है कि जब इतनी मेहनत बीसीसीआई ने की है तो मैं ICL को इसका श्रेय क्यों दे रहा हूँ? तो जनाब यदि ICL अपनी लीग लेकर नही आता तो बीसीसीआई इतनी जल्दी अपनी ये महा लीग लेकर नही आती। यदि कपिल देव जी ओर सुभाष चंद्र ने बगावत नही की होती हमारे इन नए चेहरों जिनका हम आजकल गुणगान कर रहे हैं, ये इसी तरह मैदान की गर्त में कहीं खोये रहते। क्यूंकि हमारी महाधनी बीसीसीआई को खिलाड़ियों को न तो धनी बनाने में कोई दिलचस्पी थी ओर न ही इनको कामयाब बनाने का शौक ही। बीसीसीआई की ये लीग तो केवल अपने एक छत्र वर्चस्व को बनाये रखने की ही कोशिश थी जिसमें वो कामयाब भी हो गई।
इसीलिए मेरी नज़र में हमें बीसीसीआई के साथ साथ ICL को भी इसका श्रेय देना चाहिए।
हाँ अब अगर ये बात बीसीसीआई माने तो उसे उन खिलाड़ियों पर लगा बन हटा देना चाहिए जो ICL में खेलते हैं ताकि उनके लिए भी भारत की राष्ट्रिये टीम में जगह पाने की उम्मीद बने। हालांकि ये बात तय है कि बोर्ड ऐसा करने वाला नही है। मगर इस बारे में विचार तो करना ही चाहिए।

रविवार, 1 जून 2008

हर एक लम्हा तुम ही हो निगाहों में!ऐसा कोई पल नही जब तुम याद न आए!! कुछ मेरी डायरी से!

हुआ जब सवेरा मुझे तुम याद आए!
जब तन्हाई में दिल धड़का मुझे तुम याद आए!!

बैठा था मैं कोई शिकवा दिल में लिए!
और जब इसे दूर किया मुझे तुम याद आए!!

करता है आफताब यूं तो रोशन जहाँ को!
मगर जब आफताब खिला मुझे तुम याद आए!!

हर आता हुआ लम्हा मुझे मौत के करीब ले जाता है!
हुआ जब ज़िक्र मौत का मुझे तुम याद आए!!

हर एक लम्हा तुम ही हो निगाहों में!
ऐसा कोई पल नही जब तुम याद न आए!!





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