मंगलवार, 10 जून 2008

मेरा हमसाया मेरा दरख्त! : कुछ मेरी डायरी से

देता है तू साया हमको, कभी हमारा हमराज़ होता है!
कभी हमारे हाथ के खंजर के लिए, तू तख्ती का काम करता है!!
होता हूँ जब परेशां तो तेरी गौद में बैठ जाता हूँ मैं!
और कभी माँ से छुपने में तू मददगार होता है!!

मैं देता हूँ तुझे ज़ख्म जब अपनी मुहब्बत का इजहार करता हूँ!
हाथ में लेकर खंजर महबूबा का नाम लिखता हूँ!
मगर तू फिर भी मेरा दोस्त बनकर!
अपने उस ज़ख्म में उभार देता है!!

होती है जब ज़रूरत उनके घर में झांकने की!
तू मेरे लिए सीढ़ी का काम करता है!!
और जब सामने आजाते हैं उनके अब्बा!
तो तू डाली झुकाकर उनका रस्ता थाम लेता है!!

होता जब कोई उदासी का सा आलम!
तू अपने साए में सुलाकर मुझे सकूं देता है!!
और जब नाराज़ होता हूँ में किसी बात पर!
तू अपनी ठंडी हवाओं से मुझे नरमी देता है!!

तूने देखी है मेरी वो पहली मासूम सी मुहब्बत भी!
तुने ही देखी हर वो बात जो मैं माँ से कह नही सकता!!
मेरे हर एक राज़ का राज़दार है तू!
फिर क्यों मैं तुझे माँ कह नही सकता!!

बेशक है तू एक दरख्त !
बेजान कहते हैं लोग तुझे!!
लेकिन मैं जानता हूँ!
तू बेजान हो नही सकता!!

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