वो ज़िन्दगी है क्या के कोई राज़दार ही नहीं,
मर जाऊंगा अगर तो कोई रोने वाला भी नहीं।
वो मेरा दोस्त होता जो रोता मेरे जनाज़े पे,
यूँ चल रहा हूँ तनहा के अब साया भी नहीं।
यूँ तो तन्हाई काटती है कभी कभी,
कैसे जीते हैं वो लोग जिनका कोई सहारा ही नही।
ऐ ख़ुदा ज़रा ज़मीन को एक बार फिर से देख,
साथी तो सभी है सबके, मगर कोई साथ है ही नही।
इंसान न जाने क्यूँ इंसानियत भूलता जा रहा है अब,
जेब में पैसा तो है बहुत मगर, बदन में दिल है ही नही।
बहुत अच्छी और सच्ची बात कही है आपने अपनी इस रचना में...भाव बहुत शशक्त हैं सिर्फ़ शब्दों में रवानी थोडी खटकती है जो लगातार लिखने के प्रयास से ठीक हो जायेगी...लिखते रहें.
जवाब देंहटाएंनीरज
वाह!!! बहुत सही है...लिखते रहिये,,बहाव बन पड़ेगा!!
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