मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

कुछ वक्त अपने लिए भी तो होना चाहिए न.

बहुत दिनों से मन की स्थिति कुछ अजीब सी है। सारा दिन काम, या पढाई, या कुछ वक्त मिला तो दोस्त, और कुछ वक्त मिला तो इन्टरनेट और यहाँ पर भी दोस्तों से ही बातें। इसके अलावा दिन में जो काम से जुड़े हुए लोगों और दोस्तों के संपर्क में फ़ोन से बने रहता हूँ वो अलग है। एक अंदाजा लगाया तो जागने का सारा समय मैं लोगों से जुड़ा रहता हूँ। शायद यही हालत मेरे बाकी साथियों की भी होती होगी। यूँही सोचा के कितने दिन गुज़र गए हैं अपने बारे में सोचे हुए। कुछ वक्त ख़ुद को दिए हुए। कभी तनहा बैठे हुए।
पहले जब भी कभी वक्त मिलता था तो कहीं किसी पार्क या यमुना किनारे जाकर बैठ जाता था। घर में अकेला बैठ नही सकता था। क्यूंकि अकेला बैठे देखते ही माँ को लगता कि किसी बात से परेशां है। और फिर सवालों की बरसात तो तन्हाई के पल बाहर ही खोजा करता था। मगर जब से फ़ोन और इन्टरनेट का साथ पकड़ा है। लगता है। मेरी ज़िन्दगी बाकि लोगों की सी हो गई है। अपने बारे में सोचने का वक्त नही मिलता और दोस्तों का हाल चाल रोज़ पूछ लेता हूँ।
फिर यही सोचते सोचते ख्याल आया कि मेरे जैसे और भी तो मेरे साथी हैं जो मुझसे इसी प्रकार जुड़े रहते हैं।
आखिर क्या वजह है के हम अब तनहा रहने से डरते हैं। ये तन्हाई या अकेलापन कोई डर कि तरह बन गया है।
तो अब क्यूँ न अपने लिए भी कुछ वक्त निकला जाए ख़ुद के बारे में भी सोचा जाए। और थोड़ा तनहा रहा जाए।
तन्हाई को भी साथी बनाया जाए।

4 टिप्‍पणियां:

  1. क्षमा करें, हम तो आपको घर से बुलाकर लाए नहीं ब्लॉग लिखने के लिए .

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  2. विवेक जी बताने के लिए आपका धन्यवाद. वैसे मैंने शायद ये शिकायत किसी से कि नहीं थी. ये मेरी ख़ुद से शिकायत है. इस बेहतरीन टिप्पणी के लिए आपका आभारी रहूँगा.

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  3. मजाक को मजाक की तरह लो यार सीरियस क्यों होते हो .

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  4. हाहाहा,
    मित्र इसमें सीरियस वाली कोई बात नहीं है. आखिर सबको हक है अपनी टिप्पणी देने का.

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