बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

कभी अपनाती है, कभी ठुकराती है। हाल ऐ दिल!


कभी उठाकर, गिराती है,
और कभी गिराकर, उठाती है,
ये ज़िन्दगी भी अजब चीज़ है यारों,
कभी अपनाती है, कभी ठुकराती है।

कभी इन निगाहों को, देती है, सपना कोई,
कभी हकीक़त की, खुशियों में भी आग लगाती है,
ये ज़िन्दगी भी एक आतिश है, अजीब सी,
कभी देती है ठंडक, और कभी इंसान को ही, जलाती है।

न जाने कितने, गुज़र गए, सुलझाते ये पहेली,
पर ये नही, किसीकी समझ में आती है,
ये ज़िन्दगी भी एक, अनसुलझी है पहेली,
इसको जितना सुलझाओ, ये उतना ही उलझ जाती है।

कभी उठाकर, गिराती है,

और कभी गिराकर, उठाती है,

ये ज़िन्दगी भी अजब चीज़ है यारों,

कभी अपनाती है, कभी ठुकराती है।

4 टिप्‍पणियां:

  1. ये ज़िन्दगी भी अजब चीज़ है यारों,

    sahi hai...ise samajhna bada mushkil hai. achchi kavita hai.

    जवाब देंहटाएं
  2. इसको जितना सुलझाओ, ये उतना ही उलझ जाती है।

    sulajhaate raho bhaai zulf-e-jaanaa ki tarah.

    bahut sundar

    जवाब देंहटाएं
  3. न जाने कितने, गुज़र गए, सुलझाते ये पहेली,
    पर ये नही, किसीकी समझ में आती है,
    ये ज़िन्दगी भी एक, अनसुलझी है पहेली,
    इसको जितना सुलझाओ, ये उतना ही उलझ जाती है।

    बेहतरीन...

    जवाब देंहटाएं

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