रविवार, 13 जुलाई 2008

मेरा अक्स! हाल ऐ दिल!

आदत तो है मुझे भी कि हँसता हुआ चलूँ,
मगर इस हंसी के पीछे के दर्द को वो जान लेता है.

मिलता तो है मुझसे किसी दुश्मन कि तरह मेरा अक्स,
ये अक्स ही तो जो मुझे हर ग़म से उबार लेता है.

मैं यही सोचकर चलता हूँ के मिलेगा वो कहीं,
उसको पता चले तो वो रस्ता काट लेता है.

होता जो कोई और तो निकाल बाहर करता उसको,
ये मेरा अक्स है जो मेरे खिलाफ रहता है.

ये मेरा दर्द है जो ज़िन्दगी को जीने नहीं देता,
और वो मेरा दर्द है जो ज़िन्दगी का होसला भी देता है.

हमेशा सोचता रहता हूँ कैसे ग़म से बचूं मैं,
और ख़ुदा है के ग़म को मेरा नसीब बना देता है।


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3 टिप्‍पणियां:

  1. होता जो कोई और तो निकाल बाहर करता उसको,
    ये मेरा अक्स है जो मेरे खिलाफ रहता है.
    bhut sundar. bhut badhiya likh rhe hai. jari rhe.

    जवाब देंहटाएं
  2. ये मेरा दर्द है जो ज़िन्दगी को जीने नहीं देता,
    और वो मेरा दर्द है जो ज़िन्दगी का होसला भी देता है

    जिंदगी के काफी करीब है यह रचना। बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  3. नदीम भाई...
    बहुत कम अल्फाज़ में सलीके से कही गई बात है आप की काविश में...बहुत खूब...लिखते रहें.
    नीरज

    जवाब देंहटाएं

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