सोमवार, 7 जुलाई 2008

आगरा ......एक यात्रा ....एक अनुभव


अभी हाल फिलहाल में मुझे आगरा जाने का सौभाग्य िला। कहने को तो मैं दिल्ली के का़ी पिछडे माने जाने वाले इलाके में रहती हूँ लेकिन आगरा का सफर ेरे लिए भी आसान था। अगर देखें तो दिल्ली और आगरा दोनों ही भारत सरकार की नगरो की सूची में जगह पाते है, लेकिन दिल्ली को मिली महानगर की उपाधि ने आगरा को दिल्ली से हज़ार मामलो में भिन्न बना दिया है.....शायद आपको मेरी सोंच दिल्ली के उच्च वर्गीय परिवारों से प्रेरित लग सकती है परन्तु यह एक स्वयं िए हुए अनुभव का वर्णन मात्र है और कुछ ....जब वहां से लौट करता आई तो एक मित्र ने कहा "एक दिन के लिए गई थी तो मुझे भी साथ ले चलती है, हाँ क्यूंकि वहाँ रुक नही सकती बहुत गंदगी है वहां"....आगरा को उसका इस तरह से देखना जहाँ एक और हमारे नज़रिए के अंतर को दर्शाता है वहीँ दूसरी ओर सरकारों की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठाता है ....पर ाजनितिक िषयों में जाते हुए हम साधारण विषयों की चर्चा करते है...
आगरा स्टेशन पर क़दम रखते ही मेरा पहला सवाल था कि यह बदबू कैसी है? उसके बाद स्टेशन से निकल कर हम गाड़ी में फतेहपुर सिकरी की ओर रवाना हुए तंग गलियों से निकलते हुए गाँव की कच्ची सडको पर पहुचे जहाँ सडको के दोनों तरफ़ कुदरत की हरियाली ही हरियाली थी ... हरियाली के बीच किसानों की छोटी छोटी कुटिया...आधे आधुरे कपड़ो में घुमते बच्चे.....टूटी फूटी सी गाडियाँ ओर बड़े बड़े ट्रक ......तभी ख्याल आया की अगर मुझे यहाँ कर रहना पड़े तो वोह ख्याल सोचने में जितना भी रोमांचक लगे. यह उतना ही हकीक़त से दूर है....शहरों के ऐश--आराम की आदत जो है...ऐसे ही अनुभवों से गुज़रते हुए हम आखिरकार फतेहपुर सिकरी पहुचे वहां जा कर मैं अपने सारे पिछले अनुभवों को कुछ देर करता लिए भूल गई.......इतिहास की छात्र के लिए इससे बेहतर जगह नही हो सकती वहां जाते ही मानो सम्पुर्ण मुग़लकाल मेरे लिए जीवित हो उठा और मैं हां की अलग अलग इमारतों के बीच कहीं खो गई....वहां मैं तो रुक गई पर वक्त नही और वक्त हो गया हमारा वहां से वापस आने का......हमारी दूसरी मंजिल थी मोहब्बत की नायाब निशानी ताज महल यकीन मानिये ताज को लेकर मैं बिल्कुल रोमांचित नही थी ...क्युंकी मुगलकालीन सारे मकबरे एक समान ही लगते है ऊपर से वहां एंट्री करने के लिए लगी हुई लम्बी कतार ने हालत वेसे ही ख़राब कर दी. पर फ़िक्र कीजिये इसका भी जुगाड़ है वहां मौजूद खुफिया रास्ता या कहें ऊपर की कमाई का एक और रस्ता जिसके लिए भारत विश्व प्रसिद्ध है .....पर घबराईये मत यह खुफिया दरवाज़ा इतना भी खुफिया नही बकायेदा पुलिस की तलाशी के करता बाद ही एंट्री मिलती है और उस तक पहुचने के लिए आपको अपनी जेब ज़रा ढीली करनी पड़ेगी....अब क्या करें मुझे लगत है की दिल्ली वालो को short-cuts से बेहद लगाव है अब चंद पैसों की ही तो बात थी.....पर वहां जा कर पता चला की सिर्फ़ हम ही नही और भी लोग है जो इस बीमारी के शिकार है.....और वहां भी लोगो की लम्बी कतार....जैसे तैसे करके पुलिस वालो की कवास सुनते हुए जो कि पुरुषों की तलाशी से ज़्यादा महिलाओ से बहसबाजी में रूचि ले हे थे हम अंदर पहुचे.....पर सच कहों ताज की एक झलक वोह सारी परेशानिया भुला देती है.....वोह दुधियाँ रंग में रंगी इस इमारत जिसका अपना ही नूर था...एक रूहानी सी कशिश है उसमे उसके पीछे बहती यमुना और उसके ऊपर वोह साफ़ मकता हुआ आसमान उसे देख करता लगता है की इंसान प्रदूषण जैसी चीज़ से वाकिफ ही नही....जितना इसे निहारो उतना कम....
ताज की खूबसूरती को जहन में बसाये हम वापस स्टेशन की तरफ़ चल दिये. जहाँ गाड़ी के आधे घंटे के इन्तेज़ार में हमारा साथ स्टेशन पर मौजूद इंसानों की संख्या से दोगुनी मक्खिया ने दिया.......अंत में हम गाड़ी में सवार हो गए...उस गाड़ी के सफर की भी अपनी एक दास्ताँ है को कभी और आपके साथ बताउंगी ...पर हाँ एक बात है मुगलों ने आगरा को जिस खूबसूरती से सजाया था आज इंसानों में उसे उतनी ही महनत से बिगाडा है.....विश्व में इतना ऊँचा रुतबा रखने पर जब किसी शहर का यह हाल है तो उन गुमनाम कज़्बो और जिलो की हालत की तो कल्पना ही की जा सकती है.......कुछ तस्वीरें हैं उम्मी है सबको आयेगी



अल्लाह हाफिज़...
निदा अर्शी

2 टिप्‍पणियां:

  1. अरे वाह , हम तो आपके बताए यात्रा विवरण से ही ताज घूम आए.... अच्छा लगा....जारी रखें।

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  2. nida ji delhi main ghuste huai bhi badbo aati hai gazipur aur gt karnal road par kude ke pahad nahi dekhi aappne waha kitni gandgi hain

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