कोतुहल मेरे दिमाग में उठता हुआ एक छोटा सा तूफ़ान है.जिसमें में अपने दिल में उठा रही बातों को लिख छोड़ता हूँ.और जैसा की नाम से पता चलता है कोतुहल.
गुरुवार, 31 जुलाई 2008
मायावती की मूर्ती न गिराओ! एक मज़दूर की गुहार!
रही मूर्तिकारों की तो इनकी परवाह है किसे? जो पहले बड़े और महान नेताओं की मूर्तियाँ बनाते थे वही अब केवल भगवान् की मूर्ती बनते है जिससे इनका हौसला बढ़ता है या फिर कुछ सजावटी वस्तुएं जिनसे शायद ही इनका कुछ खास भला होता होगा।
बुधवार, 30 जुलाई 2008
मेरे दोस्त के लिए! हाल ऐ दिल
कुछ उनका ख़याल भी करना पड़ेगा,
कब तलक गुज़रा पल याद करते रहे?
हमें आज को भी तो जीना पड़ेगा।
रूठ जायेंगे वो भी खुशियों की तरह,
उनको भी तो दामन में भरना पड़ेगा।
हैं अगर नाराज़ मेरा वो दोस्त तो क्या,
मैं जानता हूँ उसे मेरी खुशियों की खातिर हँसना पड़ेगा।
गलतियां होती तो इंसान से ही हैं, समझ ले मेरे यार,
मैं जानता हूँ मुझे इंसान से ऊपर तेरे लिए उठाना पड़ेगा।
मान भी जा अब, कब तलक रूठेगा मुझसे,
अब क्या तेरे आगे भी मुझे झुकना पड़ेगा।
मेरे दिल की बातों का जो असर हुआ होता। हाल ऐ दिल!
मेरे दिल की बातों का जो असर हुआ होता,
तो न मैं तन्हा होता और न तू तन्हा होता,
करते यूँही दीदार एक दूसरे का क़रीब से हम,
न दूर मैं आया होता और न दूर तू गया होता।
ज़िन्दगी में नही रहता हमेशा साथ कोई तो क्या,
हमें एक और पल तो साथ में मिला होता,
कोई फूल तो इस चमन में भी खिला होता,
मेरे दिल की बातों का जो असर हुआ होता।
यूँ तो दुनिया की क़ामयाबी के लिए दिमाग़ से सोचना ज़रूरी होता है,
पर मुहब्बत में इसका काम नही होता,
काश उस एक पल हमने दिमाग़ से न सोचा होता,
मेरे दिल की बातों का जो असर हुआ होता।
है फिर कमी सी इस चमन में,
जहाँ मिलकर किया था गुलशन को गुलज़ार हमने,
इसमें यूँ मातम सा न पसरा होता,
मेरे दिल की बातों का जो असर हुआ होता।
रविवार, 27 जुलाई 2008
मेरा क्या क़सूर? हाल ऐ दिल!
फिर वही रोते बिलखते बच्चे,
फिर उन ज़ख्मों पर नमक छिड़कते लोग,
फिर वही लाशों का ढेर और उस पर बैठे ठेकेदार,
फिर वही बेबस सी नज़रें किसीका इन्तेज़ार करती हुई,
फिर से ख़ुद को ठगा सा महसूस करते माँ- बाप,
फिर वही नफरत की नज़र से मेरी तरफ़ देखते लोग।
ये वो तोहफा है जो मुझे, अपना भाई कहने वालों ने फिर से दिया है।
नफरत, ढेर सी नफरत बिना कुछ किए हुए। मेरा क्या क़सूर?
शनिवार, 26 जुलाई 2008
ग़मो को खुशियो का नाम देते है....
न चाहते हुए भी उन्हें बाँट लेते है
ज़ख्म मिले है हमे अपनों से इतने
की अब गैरों से अपनों का काम लेते है
अपनों की वजह से ज़िन्दगी में गवाया बहुत है
गैरों ने भी अपना बन के रुलाया बहुत है
अकेले रह के खुशी का एहसास लेते है
तन्हाई में भी अब ग़म ही साथ देते है
ग़मो को खुशियो का नाम देते है
न चाहते हुए भी उन्हें बाँट लेते है
गुरुवार, 24 जुलाई 2008
ज़िन्दगी.....
बीच रस्ते में कहीं खो गई है ज़िन्दगी॥
न कोई रास्ता न कोई मकसद दिखाई देता है॥
खानाबदोशों सी हो गई है ज़िन्दगी॥
सहरो की मोहताज बनी है ज़िन्दगी॥
अपनों का ही शिकार बनी है ज़िन्दगी॥
न कोई अपना न सहारा दिखाई देता है॥
बंजर सी हो गई है ज़िन्दगी॥
खौफनाक खवाब सी लगती है ज़िन्दगी॥
अँधेरी रात सी अब डसती है ज़िन्दगी॥
न कोई उम्मीद न रौशनी दिखाई देती है॥
रोते रोते अब तो सो गई है ज़िन्दगी॥
फूलों की चादर सी चाही थी ज़िन्दगी॥
काँटों की सेज सी पाई है ज़िन्दगी॥
न कोई महक न मरहम दिखाई देता है॥
एक कशमकश सी हो गई है ज़िन्दगी॥
दर दर भटकती है ज़िन्दगी॥
बस गमो को ही जगह देती है ज़िन्दगी॥
न कोई खुशी न मंजिल दिखाई देती है॥
बिल्कुल गैर ज़रूरी सी हो गई है जिन्गदी..
बुधवार, 23 जुलाई 2008
तन्हाई..
दुनिया सो जाती है और यह तन्हाई रह जाती है
यादों का बड़ा गहरा याराना लगता है तन्हाई से
हमेशा तन्हाई में ही हमे घेरे चली आती है
फ़िर न आंखों में नींद और न सपने बसर करते है
उनकी जगह बस आंखों में आंसू ही बसेरा करते है....
चाहत हमे भी है खुशनुमा रातें बीतने की
पर हम इसी कागज़ और कलम का सहारा करते है
वो कहते है की सपने न देखा करो वो टूट जाते है
पर हम कहते है कम से कम वहां तो उनके दीदार हो जाते है
पर कमबख्त उनकी मसरूफियत का तो आलम ये है
की वोह सपनो में भी कम ही आते है
और हम जाग जाग के उनकी याद में रातें बिताते है................
मंगलवार, 22 जुलाई 2008
बहुत दिनों से कुछ माँगा नही है तुमसे! हाल ऐ दिल!
बहुत दिनों से कुछ माँगा नही है तुमसे,
सोचता हूँ आज कुछ मांग कर देखूं।
यूँ तो देख चुका हूँ हर दर्द जिंदगी का मैं,
सोचता हूँ एक और मांग कर देखूं।
है वैसे तो मुश्किल तुम्हे भूल जाना मगर,
सोचता हूँ इसको भी एक मौका देकर देखूं।
था मैं भी कुछ बदनसीब के बस खुशियाँ ही मांगी दुआओं में,
अब सोचता हूँ कुछ और ग़म मांग कर देखूं।
सोमवार, 21 जुलाई 2008
कह दो उनसे..................
रह रह कर हमे न सताया करे
रो चुका हूँ उनके लिए बहुत आज तक
जीने का मौका मुझे भी मिले कुछ पल अपने लिए....
हसीनो की तो जैसे आदत ही है हमे सताना
पहले हँसा के फ़िर रुलाना
कह दो उनसे की शिकारी की नजरो से न देखा करे हमे
इस दिल ने नही सिखा किसी को अपना बना के फ़िर भुलाना.....
तड़प तड़प के मरना न था मंज़ूर हमे
पर अब तो मौत भी मयस्सर नही
वादा किया है उनके बिना जीने का उनसे ही
कह दो उनसे की न सिखा हमने वादा करके मुकर जाना
आज भी जलाते है वो यादों में आके
कभी मुस्कुरा के तो कभी पलके झुका के
न भूलेगा वोह तुम्हारा बालों का मेरे चेहरे पे गिरना...
पर कहदो उन यादों से जा के की अब मुझे न सताना
न मेरे खवाबो में आना और न मुझे रुलाना
दिल से पत्थर बना है यह इसे फ़िर से दिल बना के न दुखाना...........
रविवार, 20 जुलाई 2008
सपने............
बचपन में बड़े प्यार से दिखाती थी नानी दादी
सपना वो जो कहने को एक छलावा था
पर कहीं न कहीं वो हमारा था
सपनो में जो चाह वो पाना था
और जो न खोया उसे खोने का डर जाना था
सपनो की डोर अपने हाथ तो न थी
सपनो की कहानी अपने साथ तो न थी
सपना एक आहात से टूट गया
एक पल में ही उससे नाता छुट गया
सपनो की दुनिया निराली थी
कभी खुशियो की हरियाली थी
तो कभी ग़मो की लाली थी
सपने न हो तो जीने का मज़ा न हो
सपना क्या है? ज़रा सोचो तो-
मुट्ठी से फिसलती रेत, या विचारो की बहती नदी-
जिंदगी को कभी सपनो में जिया करते थे
तो कभी मेहनत से सपनो का सिया करते थे
पर आज कल सपनो की भी बोली लगती है
सपनो की भी अपनी मंदी सजती है
पर जीने के लिए सपना ज़रूरी है
एक प्यारे से सपने के बिना जिंदगी अधूरी है
सोने और मौत का अन्तर भी यही
और मेरी और आपकी जिंदगी का भी अन्तर यही .......
शनिवार, 19 जुलाई 2008
यूँ रह रह कर मुझे याद आते क्यूँ हो अब? हाल ऐ दिल!
फिर ख़्वाब में आकर सताते क्यूँ हो अब?
जाना था तो हमेशा के लिए चले जाते ज़िन्दगी से,
यूँ रह रह कर मुझे याद आते क्यूँ हो अब?
वो जो लम्हा था जिसमें आखिरी बार मिले थे हम,
उन्ही लम्हों में अभी तक अटकी है ज़िन्दगी,
करता हूँ कोशिश के भूल जाऊं उन्हें मैं,
तुम रोज़ उन लम्हों को याद दिलाते क्यूँ हो अब?
करता तो है मुहब्बत हर कोई जहाँ में,
होता नही शरीक ज़िन्दगी में हमेशा वो,
तुम जो हमेशा करते थे मुहब्बत न करने की बातें,
रोज़ आ आकर ख़्वाबों में प्यार जताते क्यूँ हो अब?
हर रोज़ सुबह उठकर सोचता हूँ यही मैं,
नही करूँगा तुम्हे याद कभी ग़लती से भी अब,
माना के है इंसान गलतियों का पुतला यहाँ,
मुझसे ये ग़लती दोहरवाते क्यूँ हो अब?
जाना था तो हमेशा के लिए चले जाते ज़िन्दगी से,
यूँ रह रह कर मुझे याद आते क्यूँ हो अब?
काश.......
गुरुवार, 17 जुलाई 2008
अधूरी कहानी
शाम रात में बदली और अँधेरे की काली चादर उसे ढक गई.
अँधेरे से डर लगता था जिसे वो उस दिन अँधेरे की गोद में ही सो गई,
सुबह का इंतेज़ार लंबा हुआ और उसे देखने की उम्मीद भी उसी अँधेरे में खो गई .
आँख से बस एक आंसू ही झलक सका और ज़िन्दगी उसी पल में ठहर गई,
पर दुनिया में फिर सुबह हुई, कुछ देर से ही सही.
कुछ लोगो की आँखें नम हुई, पर उसकी याद भी उन्ही आंसुओ में बह गई,
बाकी जिंदगिया चलती रही , पर उसकी कहानी अधूरी ही रह गई.
Barricade के पीछे से बकरा ढूँढती पुलिस!
पुलिस केवल इस बात पर ध्यान देती है कि किस Biker की जेब में लाइसेंस है, किसके सर पर हेलमेट नही है। और कौन कितना पैसा देकर जाएगा। उनका ध्यान इस बात पर नही होता कि क्या इसकी जेब में कोई हथियार तो नही है?
दिल्ली में कोई भी आसानी से देख सकता है कि किस प्रकार barricade लगाकर पुलिस खड़ी होती है और केवल बिना हेलमेट और टूटी हुई bikes को ही ढूँढ रही होती है। उनका मकसद आतंकियों को पकड़ना नही होता कोई बकरा पकड़ना होता है जो १०० रुपए के जुर्माने की धमकी को सुनकर कम से कम ५० रुपए या २० रुपए तो दे ही दे।
मंगलवार, 15 जुलाई 2008
के वो गैर हैं, तो कहते नही। हाल ऐ दिल!
वो अब गैर है, तो कहते नही।
यूँही समझा लेते हैं दिल को अब,
के वो गैर हैं, तो कहते नही।
चलती है जब कभी ये हवा,
उनके घर की तरफ़ से यूँ,
झुका लेते हैं हम अपना सर,
के वो गैर हैं, कहते नही।
करता है दिल उन्हें देखने की ज़िद,
ख्वाबों में दीदार उनका कर लेते है हम,
नही देखते अब उनकी गली,
के वो गैर हैं, कहते नही।
न सोचा था के आयेगा ये भी वक्त,
बैठेंगे जब उनसे दूर हम,
पत्थर है ये दिल पे रखा,
के वो गैर हैं, कहते नही।
कल रात जब उस ख्वाब में,
माँगा था तुमने कान्धा मेरा,
हमने न ली कोई भी करवट,
के वो गैर हैं कहते नही।
करता है बातें मायूसी भरी, जो ख़ुद सदा हौसला रहा! हाल ऐ दिल!
चलता रहा हर दम यूँही, रस्ता भी क्या मंज़िल भी क्या।
होता रहा सफर यूँही तमाम, हर एक लम्हा हर एक पल,
मैं सोचता रहा यूँही बस, घर था कहाँ, और मंज़िल कहाँ?
था जिनके दम पर चलना मुझे, वो चल दिए यूँ छोड़कर,
जैसे के था मैं अजनबी, जो साथ उनके चलता रहा।
उम्मीद न करना किसी से ऐ यश, वो दोस्त हो या यार हो,
सब चल रहे हैं तन्हा यहाँ, बाकी नही रिश्ता रहा।
यूँ ज़िन्दगी से ख़फा वो रहने लगा, जिसे ज़िन्दगी प्यार था,
करता है बातें मायूसी भरी, जो ख़ुद सदा हौसला रहा।
सोमवार, 14 जुलाई 2008
वजह! हाल ऐ दिल !
हमें न बताने कि वजह कुछ तो होगी.
यूँही दिल को तसल्ली दे लेंगे वो भी.
आँख चुराने की वजह कुछ तो होगी।
तू क्यूँ है उदास उसके चले जाने पर,
उसके यूँ गुज़र जाने की वजह कुछ तो होगी।
होता है सफर ऐ जिंदगी यूँही ज़रा ग़मगीन सा,
इसमें खुशियों का झोंका लगाने की वजह कुछ तो होगी।
रविवार, 13 जुलाई 2008
मेरा अक्स! हाल ऐ दिल!
मगर इस हंसी के पीछे के दर्द को वो जान लेता है.
मिलता तो है मुझसे किसी दुश्मन कि तरह मेरा अक्स,
ये अक्स ही तो जो मुझे हर ग़म से उबार लेता है.
मैं यही सोचकर चलता हूँ के मिलेगा वो कहीं,
उसको पता चले तो वो रस्ता काट लेता है.
होता जो कोई और तो निकाल बाहर करता उसको,
ये मेरा अक्स है जो मेरे खिलाफ रहता है.
ये मेरा दर्द है जो ज़िन्दगी को जीने नहीं देता,
और वो मेरा दर्द है जो ज़िन्दगी का होसला भी देता है.
हमेशा सोचता रहता हूँ कैसे ग़म से बचूं मैं,
और ख़ुदा है के ग़म को मेरा नसीब बना देता है।
काश मैं वहां होता, काश मैं वहां होता! हाल ऐ दिल!
जब तलक कोई पास होता है,
हमें उसकी क़ीमत का एहसास नही होता है,
रोते हैं हम उनसे बिछड़ कर,
जिनके आने का आसार नही होता है।
नही होतीं कद्र जब तलक वो ज़िन्दा होते हैं,
और उनके जाने के बाद, उनकी कमी का एहसास होता है।
है यही दर्द क्यूँ नही था पास उनके,
उन लम्हों में जब उन्होंने याद किया होगा मुझको,
काश कर सकता मैं कुछ के वो हमारे बीच होते,
काश मैं वहां होता, काश मैं वहां होता!
शुक्रवार, 11 जुलाई 2008
कर रहा हूँ इन्तेज़ार तो इससे किसीको क्या? हाल ऐ दिल!
है तो मुझे भी पता के वो नहीं आने वाला,
मगर कर रहा हूँ इन्तेज़ार तो इससे किसीको क्या?
रहता तो है वो मेरे दिल के करीब हर दम,
नज़र न आए तुमको तो इससे मुझे क्या?
होता जो हौसला तो मिलता मुझसे आकर,
सच वो भी जानता है, है ज़माने का सच क्या?
मैं रोया जो उसके दर पर, आंसू मेरे बहे,
कहकर गया था वो, तेरे रोने से मुझे क्या?
होता तो है मुझे भी दुःख उसके जाने का,
मगर मेरे इस ग़म से जाने वाले को क्या?
बुधवार, 9 जुलाई 2008
जब चेन, चैन न लेने दे!
सोमवार, 7 जुलाई 2008
ग़म की खुमारी में ! हाल ऐ दिल!
और करता है ये दुआ कि कोई खुशी अब न मिले।
यूँही तन्हा चले ये सफर जैसे भी, जो भी हो,
अब इस सफर में साथी फिर कोई और न मिले।
होता रहे यूँही उसकी खुशी का चर्चा,
उसके दर्द की भनक भी किसीको न मिले।
करते रहें यूँही परेशां, उसे परेशां करने वाले,
उनको परेशां करके और भी खुशी मिले।
मैं चाहूँ भी तो उसके जैसा बन नही सकता,
मुझे इस तरह के लोग बहुत कम मिले।
होता हैं यूंतो वक़्त का गुलाम आदमी,और सोचता है कैसे,
वक़्त को गुलाम बनाने का हुनर का मिले.
आगरा ......एक यात्रा ....एक अनुभव
अभी हाल फिलहाल में मुझे आगरा जाने का सौभाग्य मिला। कहने को तो मैं दिल्ली के काफ़ी पिछडे माने जाने वाले इलाके में रहती हूँ लेकिन आगरा का सफर मेरे लिए भी आसान न था। अगर देखें तो दिल्ली और आगरा दोनों ही भारत सरकार की नगरो की सूची में जगह पाते है, लेकिन दिल्ली को मिली महानगर की उपाधि ने आगरा को दिल्ली से हज़ार मामलो में भिन्न बना दिया है.....शायद आपको मेरी सोंच दिल्ली के उच्च वर्गीय परिवारों से प्रेरित लग सकती है परन्तु यह एक स्वयं किए हुए अनुभव का वर्णन मात्र है और कुछ ....जब वहां से लौट करता आई तो एक मित्र ने कहा "एक दिन के लिए गई थी तो मुझे भी साथ ले चलती है, हाँ क्यूंकि वहाँ रुक नही सकती न बहुत गंदगी है वहां"....आगरा को उसका इस तरह से देखना जहाँ एक और हमारे नज़रिए के अंतर को दर्शाता है वहीँ दूसरी ओर सरकारों की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठाता है ....पर राजनितिक विषयों में न जाते हुए हम साधारण विषयों की चर्चा करते है...
आगरा स्टेशन पर क़दम रखते ही मेरा पहला सवाल था कि यह बदबू कैसी है? उसके बाद स्टेशन से निकल कर हम गाड़ी में फतेहपुर सिकरी की ओर रवाना हुए तंग गलियों से निकलते हुए गाँव की कच्ची सडको पर पहुचे जहाँ सडको के दोनों तरफ़ कुदरत की हरियाली ही हरियाली थी ...उस हरियाली के बीच किसानों की छोटी छोटी कुटिया...आधे आधुरे कपड़ो में घुमते बच्चे.....टूटी फूटी सी गाडियाँ ओर बड़े बड़े ट्रक ......तभी ख्याल आया की अगर मुझे यहाँ आ कर रहना पड़े तो वोह ख्याल सोचने में जितना भी रोमांचक लगे. यह उतना ही हकीक़त से दूर है....शहरों के ऐश-ओ-आराम की आदत जो है...ऐसे ही अनुभवों से गुज़रते हुए हम आखिरकार फतेहपुर सिकरी पहुचे वहां जा कर मैं अपने सारे पिछले अनुभवों को कुछ देर करता लिए भूल गई.......इतिहास की छात्र के लिए इससे बेहतर जगह नही हो सकती वहां जाते ही मानो सम्पुर्ण मुग़लकाल मेरे लिए जीवित हो उठा और मैं वहां की अलग अलग इमारतों के बीच कहीं खो गई....वहां मैं तो रुक गई पर वक्त नही और वक्त हो गया हमारा वहां से वापस आने का......हमारी दूसरी मंजिल थी मोहब्बत की नायाब निशानी ताज महल यकीन मानिये ताज को लेकर मैं बिल्कुल रोमांचित नही थी ...क्युंकी मुगलकालीन सारे मकबरे एक समान ही लगते है ऊपर से वहां एंट्री करने के लिए लगी हुई लम्बी कतार ने हालत वेसे ही ख़राब कर दी. पर फ़िक्र न कीजिये इसका भी जुगाड़ है वहां मौजूद खुफिया रास्ता या कहें ऊपर की कमाई का एक और रस्ता जिसके लिए भारत विश्व प्रसिद्ध है .....पर घबराईये मत यह खुफिया दरवाज़ा इतना भी खुफिया नही बकायेदा पुलिस की तलाशी के करता बाद ही एंट्री मिलती है और उस तक पहुचने के लिए आपको अपनी जेब ज़रा ढीली करनी पड़ेगी....अब क्या करें मुझे लगता है की दिल्ली वालो को short-cuts से बेहद लगाव है अब चंद पैसों की ही तो बात थी.....पर वहां जा कर पता चला की सिर्फ़ हम ही नही और भी लोग है जो इस बीमारी के शिकार है.....और वहां भी लोगो की लम्बी कतार....जैसे तैसे करके पुलिस वालो की बकवास सुनते हुए जो कि पुरुषों की तलाशी से ज़्यादा महिलाओ से बहसबाजी में रूचि ले रहे थे हम अंदर पहुचे.....पर सच कहों ताज की एक झलक वोह सारी परेशानिया भुला देती है.....वोह दुधियाँ रंग में रंगी इस इमारत जिसका अपना ही नूर था...एक रूहानी सी कशिश है उसमे उसके पीछे बहती यमुना और उसके ऊपर वोह साफ़ चमकता हुआ आसमान उसे देख करता लगता है की इंसान प्रदूषण जैसी चीज़ से वाकिफ ही नही....जितना इसे निहारो उतना कम....
ताज की खूबसूरती को जहन में बसाये हम वापस स्टेशन की तरफ़ चल दिये. जहाँ गाड़ी के आधे घंटे के इन्तेज़ार में हमारा साथ स्टेशन पर मौजूद इंसानों की संख्या से दोगुनी मक्खिया ने दिया.......अंत में हम गाड़ी में सवार हो गए...उस गाड़ी के सफर की भी अपनी एक दास्ताँ है को कभी और आपके साथ बताउंगी ...पर हाँ एक बात है मुगलों ने आगरा को जिस खूबसूरती से सजाया था आज इंसानों में उसे उतनी ही महनत से बिगाडा है.....विश्व में इतना ऊँचा रुतबा रखने पर जब किसी शहर का यह हाल है तो उन गुमनाम कज़्बो और जिलो की हालत की तो कल्पना ही की जा सकती है.......कुछ तस्वीरें हैं उम्मीद है सबको आयेगी।
अल्लाह हाफिज़...
निदा अर्शी