कोतुहल मेरे दिमाग में उठता हुआ एक छोटा सा तूफ़ान है.जिसमें में अपने दिल में उठा रही बातों को लिख छोड़ता हूँ.और जैसा की नाम से पता चलता है कोतुहल.
शुक्रवार, 21 मार्च 2008
होली और बदरंग ज़िंदगी कुछ लोगों की!
यूं तो कहते हाँ खुशी के मौके पर दुःख भरी बातें नही करनी चाहिए जहाँ हम इन बड़े शहरों में होली की रौनक देख रहे हैं वहीं इन्ही शहरों में ही कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनके लिए पीले रंग का मतलब एक कटोरी दाल और लाल रंग का मतलब चटनी से ज्यादा नही होता, और पिचकारी कभी कभी वो चटनी में लिपटी रोटी होती है जिसे वो पानी के साथ ज़बरदस्ती निगलने की कोशिश करता है। हाँ आज फिर मैंने ऐसा ही दृश्य देखा है अपने इस खुशहाल दिल्ली में जहाँ हम आज मेट्रो और common wealth खेलों की baatein करते हैं। जहाँ आज भी हमारे बच्चे दिन में ५०-१०० रुपी अपने कंप्यूटर games और होली के दिनों में गुब्बारों पर खर्च करते हैं वहीं ऐसे भी लोग हैं जिनको हफ्ते का इतना भी नही मिलता और जिन्हें कुछ मिल भी जाता है वहाँ सरकार इसे उनसे आधुनिकता के नाम पर छीनने की कोशिश करती है। हम अगर इन लोगों के लिए अधिक कुछ नही कर सकते तो क्या इनके लिए दुआएं भी नही कर सकते क्या?
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भाई हम तो अपनी ओकात से हि इन की मदद कर सकते हे, बाकी तो सरकार को ओर इन्हे खुद भी सोचना चहिये, सच मे कई बार इन्हे देख कर हमे खुद शर्म आती हे ,
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