बुधवार, 19 मार्च 2008

बच्चों कि परीक्षाएं और नाक बडों की.और बढ़ती आत्म हत्याएं!

कभी न कभी हम सब ये बात ज़रूर सोचते हैं की ये परीक्षाएं क्यों होती हैं? खासतौर पे सवाल हर किसी के स्कूल के दिनों में ज़रूर उठता है। क्यूंकि वो स्कूल का ही समय होता है जब हमें ये परीक्षाएं डराती है। क्या हाल होता है न वो भी की रात में सो जाओ तो सपने में भी परीक्षा भवन और यदि जाग भी रहे हो तो भी परीक्षा भवन ही दिखाई देता है। वैसे क्या वक्त होता है न वो भी?
मगर आजकल सुना है कि ये सवाल बड़े उठा रहे हैं! पर क्यों ? अब ऐसा अचानक क्या हो गया कि लोगों को इनसे परहेज़ होने लगा? पहले भी तो लोग परीक्षाएं देते थे, क्या उन्हें ये परीक्षा का दबाव नही झेलना पड़ता था जो आज कल के छात्रों को झेलना पड़ रहा है?
ऐसा कुछ भी नही दरअसल ये दबाव हमारे नए ज़माने के अभिभावकों ka पैदा किया हुआ है। ये नए अभिभावक बच्चों के लिए नही सोचते बल्कि इनकी सोच केवल ये है कि इनकी समाज में नाक ऊंची रहे। आज कल परीक्षा में बच्चों से ज्यादा ये लोग शामिल होते है। शर्त ये है ये नए ज़ाने के अभिभावक अपने दफ्तरों में, अपने पड़ोस में और अपने रिश्तेय्दारों के सामने गर्व से कह सकें कि हमारे बच्चे के इतने प्रतिशत नम्बर आए हैं और ये क्रम आया है इन नए ज़माने के अभिभावकों को इस बात कि परवाह नही है कि इसके लिए उन्हें अपने बच्चे को कितना आराम देना चाहिए?

और यदि किसी के मन में मेरी इस बात से कोई न इत्तेफाकी है तो वो शुरू से देखे कि आजकल हम अपने बच्चों के साथ करते क्या है?
जब हम उनका पहली बार प्रवेश करते है तो उनकी उम्र क्या होती है अजी २ १/२ या ३ साल । किसी ने पहले कभी इस उम्र में स्कूल के बारे में सोचा था नही न। ये नाम होता है कि बच्चा स्कूल में बैठना सीख रहा है और वो भी खेल खेल में मगर क्या ये सच नही कि जिस उम्र में बच्चे को सही से बोलना नही आता उस उम्र में हम उन्हें कवितायेँ रटवाना शुरू कर देते हैं। जब उसे खेलना चाहिए बाहर जाकर तब हम उन्हें कमरे में बंद रहना सिखा देते हैं। और तभी से उसका मुकाबला उसकी कक्षा के बच्चों के साथ शुरू हो जाता है जिसका बोझ उसे हमेशा सहना ही तो है। कुछ दिन पह्के में एक विज्ञापन देख रहा था उसमें यही बताया गया था कि आज खेलने दो कल बड़ा है बनाना ।
इसके साथ ही अगली कक्षाओं में उससे यही उम्मीद होती है कि उनका बच्चा प्रथम ही आएगा। यार यदि सबके बच्चे प्रथम आयेंगे तो द्वितीये कौन आएगा? यही वो स्थान होता है जहाँ पर हम रटने को सीखने से ज्यादा तरजीह देने लगते हैं। और बच्चा केवल रटना ही सीख लेता है. उसे पिछली कक्षा में तो ९९% अंक मिल जाते हैं मगर अगली कक्षा में जाने के बाद पिछली कक्षा का कुछ दिमाग में नहीं रहता. ये सब मेरे खुदके तजुर्बे हैं जो कि मैंने अलग अलग बच्चों के साथ देखा हैं. अब हमें ये सोच न ही कि हमें सख्या अधिक चाहिए या गुणवत्ता?

अगर अपने बच्चों कि चिंता है तो उनके सिर से परीक्षा का नहीं अभिभावकों का दबाव हटाना पड़ेगा.

2 टिप्‍पणियां:

  1. नदीम भाई भारत के हर घर की यही कहानी हे,जेसे की बच्चे को सजा दे रहे हे, साले तु पेदा हुया किस लिये चल अब पढ,२ साल पालने मे खुब खेल लिया.

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