ये भी क्या इत्तेफाक है कि कल मूर्ख दिवस है और भारत में इसी दिन से स्कूल का नया session शुरू होगा।
पर इससे मजेदार बात ये है कि भारत में जहाँ सबसे ज्यादा अंधविश्वासी रहते हैं इस ओर किसी का ध्यान ही नही जाता कि जब मूर्ख दिवस को ही नया सत्र शुरू होगा तो बच्चे समझदार कैसे होंगे।
हर साल हमारे स्कूल में नए सत्र के पहले दिन प्रांगंद में भाषण होता था और हमारे एक प्रिय अध्यापक इसी विषय पर चुटकी ज़रूर लेते थे।
मुझे भी अब जब कोई इस विषय में पूछता है कि भारत में १ अप्रेल को ही सत्र क्यों शुरू होता है तो जवाब देते नहीं बँटा ओर अपनी हाज़िर जवाबी का इस्तेमाल करना पड़ता है।
वैसे यदि किसी को इस बारे में कारण पता हो तो मुझे ज़रूर बताये।
कोतुहल मेरे दिमाग में उठता हुआ एक छोटा सा तूफ़ान है.जिसमें में अपने दिल में उठा रही बातों को लिख छोड़ता हूँ.और जैसा की नाम से पता चलता है कोतुहल.
सोमवार, 31 मार्च 2008
रविवार, 30 मार्च 2008
तेरी तस्वीर : कुछ मेरी डायेरी से!
तेरी तस्वीर को सीने से लगाकर रखा,
तू पास नही था मगर पास बिठाकर रखा।
न भरोसा था के तू है मेरे आस पास कहीं
मगर तेरे होने के एहसास को बनाकर रखा।
हर एक शय में नज़र आ रहा था तू मुझे
कहीं ऐसा तो नही के मैंने तुझे ख्वाब में देखा।
सितम कर ले मुझ पर तू कितना भी सनम,
तुने बस देखा है मुझे , अभी न मेरी बर्दाश्त को देखा।
ख़बर आई थी कुछ देर पहले के तू चला गया है दुनिया से,
मेरे बिन चला जाएगा तू कहीं , ये तो है दुनिया का धोखा।
तू पास नही था मगर पास बिठाकर रखा।
न भरोसा था के तू है मेरे आस पास कहीं
मगर तेरे होने के एहसास को बनाकर रखा।
हर एक शय में नज़र आ रहा था तू मुझे
कहीं ऐसा तो नही के मैंने तुझे ख्वाब में देखा।
सितम कर ले मुझ पर तू कितना भी सनम,
तुने बस देखा है मुझे , अभी न मेरी बर्दाश्त को देखा।
ख़बर आई थी कुछ देर पहले के तू चला गया है दुनिया से,
मेरे बिन चला जाएगा तू कहीं , ये तो है दुनिया का धोखा।
शनिवार, 29 मार्च 2008
दाग भी दिया और बेदाग भी हो गए.
फ़साना ज़िन्दगी का ये ही बन गया है अब,
के दाग भी दिया और बेदाग भी हो गए।
मेरे महबूब तेरी भी ये खूब रही,
के इत्मिनान से ख़ुद ही फना हम हो गए।
ज़रा सोचकर तो देखा होता,
ये बात क्या अपना ही दिल तोड़ गए।
हुज़ूर ज़रा अह्तामाम ज़िंदगी का भी कर लो,
ये क्या के मौत का खौफ ही भूल गए।
मुस्कुराकर मेरे महबूब की बात की उसने,
और हम थे उन्ही के नाम से अनजान हो गए।
पत्थर भी हमेशा नही रहता ऐ दोस्त,
तुम तो इंसान हो क्यों फिर भी पत्थर हो गए।
के दाग भी दिया और बेदाग भी हो गए।
मेरे महबूब तेरी भी ये खूब रही,
के इत्मिनान से ख़ुद ही फना हम हो गए।
ज़रा सोचकर तो देखा होता,
ये बात क्या अपना ही दिल तोड़ गए।
हुज़ूर ज़रा अह्तामाम ज़िंदगी का भी कर लो,
ये क्या के मौत का खौफ ही भूल गए।
मुस्कुराकर मेरे महबूब की बात की उसने,
और हम थे उन्ही के नाम से अनजान हो गए।
पत्थर भी हमेशा नही रहता ऐ दोस्त,
तुम तो इंसान हो क्यों फिर भी पत्थर हो गए।
सारी दुनिया आज एक घंटे के लिये अपनी बत्तियां बुझायेगी.दिल्ली नही बुझायेगी ऐसा क्यों?
अरे भाई ज़रूरत क्या है बत्ती बुझाने की? जहाँ के लोग बुझाने वाले है वहाँ दिन में २४ घंटे बत्ती आती है और यहाँ तो कुछ ऐसा इलाके हैं जहाँ २.५ घंटे भी नही आती। यानी हम तो दुनिया के सबसे पहले देश हैं जिसको ग्लोबल वार्मिंग की सबसे ज्यादा चिंता है इसीलिए यहाँ हम बिजली देते ही नही। जब ये बात कि आज दुनिया के ज़्यादातर शहर रात में एक घंटे के लिए बत्ती बुझाने वाले हैं मैंने जब ये बात अपनी बिल्डिंग में बताई तो लोग हंसने लगे के यहाँ रात में बत्ती आएगी तो बुझाएंगे न। कुछ दिन पहले मैंने एक खबरिया चैनल पर इस बारे में बात करते एक महानुभाव को सुना उन्होंने कहा कि हमारे देश में जागरूकता की कमी हैं, अरे जनाब जागरूकता की नही बिजली की कमी है बंद करने के लिये, जहाँ बिजली आती ही घंटे के हिसाब से हैं वहाँ कोई बंद क्या करेगा? ये तो वही बात हो गई न कि ' नंगा नहायेगा क्या और निचोडेगा क्या?' और दिल्ली भी इससे अछूता नही है। यहाँ भी कईं कईं घंटे बत्ती गुल रहती है। तो यहाँ लोगों को जागरूक होने की ज़रूरत है ही नही यहाँ का बिजली विभाग काफ़ी जागरूक है ही। और यदि ये बात हमारी मुख्य मंत्री श्रीमती शीला दीक्षित जी ने सुन लिया तो समझो के दिल्ली एक घंटे के बजाये ३ घंटे तक बत्ती बुझाकर इसमें शामिल हो जायेगी.
क्या हिन्दी मीडिया में हम तंग्दस्ती से गुज़र रहे हैं?और अंग्रेज़ी मीडिया बहतर कैसे?
मैं जब भी कभी हिन्दी न्यूज़ चैनल के बाद अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल्स देखता हूँ तो सोचने को मजबूर हो जाता हूँ की शायद हमारे देश में सबसे ज्यादा तजुर्बेकार लोग हिन्दी मीडिया से ही जुड़े हुए हैं मगर अंग्रेज़ी मीडिया कैसे हिन्दी से बहतर चल रही है। कोई भी आसानी से इस अन्तर को देख सकता है कि जहाँ हिन्दी खबरिया चैनल्स को ख़बरों कि कंगाली रहती है और वो इसके आलावा काफ़ी कुछ ख़बर के नाम पर दिखाते हैं वहीं इन्हीं के संगठन के अंग्रेज़ी चैनल्स कैसे बहतर खबरें दिखा पा रहे हैं? आपको अंग्रेज़ी चैनल्स देखते हुए काफ़ी कुछ खबरें मिल जाती हैं वही हिन्दी चैनल्स पर कुछ मिले न मिले हाँ आप सांप, बिच्छू, भविष्य, जादू, आदि ज़रूर सीख जायेंगे। वही अंग्रेज़ी चैनल्स पर ऐसा बहुत कम लगता है। वहीं अगर भाषा कि बात की जाए तो भी खबरिया भाषा अंग्रेज़ी में काफ़ी हद तक बहतर रहती है।
अंग्रेज़ी मीडिया का स्तर हम कह सकते हैं कि विश्व स्तर का है वही अभी हिन्दी में शायद हमने और वक्त लगेगा। आए दिन नए नए खबरिया चैनल्स शुरू हो रहे हैं वहीं हर बार ये वादा किया जाता है कि ख़बर वापस आ गई है और फिर वही धाक के तीन पात। और जो लोग इस विषय पर बाज़ार का रोना रोते हैं क्या ये रोना अंग्रेज़ी चैनल्स पर लागू नही होता। अक्सर हम लोग जब भी खबरिया चैनल्स कि बात करते हैं तो येही लगता है कुछ गड़बड़ ज़रूर है मगर ये गड़बड़ मुझे लगता है केवल हिन्दी में ही है।
अंग्रेज़ी मीडिया का स्तर हम कह सकते हैं कि विश्व स्तर का है वही अभी हिन्दी में शायद हमने और वक्त लगेगा। आए दिन नए नए खबरिया चैनल्स शुरू हो रहे हैं वहीं हर बार ये वादा किया जाता है कि ख़बर वापस आ गई है और फिर वही धाक के तीन पात। और जो लोग इस विषय पर बाज़ार का रोना रोते हैं क्या ये रोना अंग्रेज़ी चैनल्स पर लागू नही होता। अक्सर हम लोग जब भी खबरिया चैनल्स कि बात करते हैं तो येही लगता है कुछ गड़बड़ ज़रूर है मगर ये गड़बड़ मुझे लगता है केवल हिन्दी में ही है।
शुक्रवार, 28 मार्च 2008
वीरेंदर सहवाग ने अपने ही रेकॉर्ड की बराबरी की और मुल्तान का सुलतान अब चेन्नई का राजा भी.
वीरेंदर सहवाग ने अपने ही रेकॉर्ड की बराबरी की और मुल्तान का सुलतान अब चेन्नई का राजा भी। इस ख़बर के साथ अचानक ही न्यूज़ चैनल्स पर उनकी तकनीक की तारीफों के पुल बंधने लगे। कुछ दिनों पहले तक उनके कदमों के न चलने की शिकायत करने वाले अचानक उनकी तारीफों के पुल बाँधने लग गए हैं। चलो अच्छा है चल जाए तो तीर वरना तुक्का ऐसा कहने वालों की कमी नही है। हाँ ये बात माननी पड़ेगी की सचिन के बाद अगर किसी को बैटिंग करते देखकर मज़ा आता है तो वो हैं सहवाग। अब चाहे को किसी भी तरह रन बना रहे हों।
मेरे महबूब की आंखें के रात शबनम सी!
मेरे महबूब की आंखें के रात शबनम सी,
के जिनमें डूबना चाहेगा हर शे ख़ुद ही।
जिधर जाओ नज़र वही बस आए अब,
ये उसकी खूबी है या ये है हद मेरे पागलपन की।
ग़ज़ब हो जाता है मौसम जहाँ से भी वो गुज़र जाए,
अजी ये हाल जब मौसम का है तो क्या होगा इस दिल का भी।
मुबारक हो मेरे महबूब को सारी खुशियाँ अब,
के हम तो गैर हो गए, देखे उसे अब कोई भी।
मेरी मोहब्बत का फ़साना फ़क़त इतना ही हो गया,
के मौसम था तो बहार थी अब मौसम नही तो निकलता नही एक काँटा भी।
के जिनमें डूबना चाहेगा हर शे ख़ुद ही।
जिधर जाओ नज़र वही बस आए अब,
ये उसकी खूबी है या ये है हद मेरे पागलपन की।
ग़ज़ब हो जाता है मौसम जहाँ से भी वो गुज़र जाए,
अजी ये हाल जब मौसम का है तो क्या होगा इस दिल का भी।
मुबारक हो मेरे महबूब को सारी खुशियाँ अब,
के हम तो गैर हो गए, देखे उसे अब कोई भी।
मेरी मोहब्बत का फ़साना फ़क़त इतना ही हो गया,
के मौसम था तो बहार थी अब मौसम नही तो निकलता नही एक काँटा भी।
गुरुवार, 27 मार्च 2008
महंगाई ये किस देश की समस्या है?और है भी तो सरकार क्या करे?
जब से मैंने महंगाई को लेकर लेख पढ़ा है समझ नही पा रहा हूँ कि ये किस देश की समस्या के बारे में बात हो रही है? दरअसल बेकार ही आम लोग इस बारे में परेशान हो रहे हैं। न तो ये समस्या सरकार को दिखाई देती है और यदि देती भी है तो सरकार के शब्दों में इस पर काबू नही पाया जा सकता यानी कि सरकार ने हाथ खड़े कर दिया और बहाना अंतराष्ट्रिये मंदी का। और रही बात विपक्ष की तो उसके पास और भी bahot मुद्दे हैं अजी महंगाई उनका मुद्दा कहाँ? अभी तो ये देखना बाकी है कि चुनाव के दिनों में राम सेतु जैसे ज़रूरी मुद्दे को कैसे उठाया जाए। अजी रोटी का क्या है आम इंसान तो जैसे, तैसे, आधी, पूरी रोटी खा ही लेगा। मगर उनके लिए ये कोई मुद्दा थोड़े ही है। कभी कभी मैं सोचता हूँ की हम इन नेताओं को क्यूँ चुनते हैं? मगर इन्हें न चुने तो क्या करें हमें तो कोई चुनेगा नही यदि हम खड़े हो गए। और खड़े होकर जीत भी गए तो कौनसा तीर लगने वाला है वही होगा जो स्मृति इरानी के साथ हुआ ज़रासी आवाज़ हुई नही की दबा दी गई। भले लोगों को ये टिकने भी कहाँ देते हैं।
और सबसे ज़्यादा मज़े की बात तो ये है की इस बाबत कोई आवाज़ उठाने वाला भी नही है। सभी चुप हैं ,हाँ एक रिपोर्ट NDTV इंडिया पर आई थी मगर उस पर भी शायद किसी का ध्यान नही गया। हाँ कमाल खान की रिपोर्ट को कम से कम हमारे देश के प्रधान मंत्री को सीधे भेज देते तो शायद उन्हें पता चलता की देश में एटमी डील के अलावा भी कुछ मुद्दे हैं। इस देश के लोगों को रोटी भी चाहिए और कपड़ा भी जिसकी अभी काफ़ी कमी हैं।
और सबसे ज़्यादा मज़े की बात तो ये है की इस बाबत कोई आवाज़ उठाने वाला भी नही है। सभी चुप हैं ,हाँ एक रिपोर्ट NDTV इंडिया पर आई थी मगर उस पर भी शायद किसी का ध्यान नही गया। हाँ कमाल खान की रिपोर्ट को कम से कम हमारे देश के प्रधान मंत्री को सीधे भेज देते तो शायद उन्हें पता चलता की देश में एटमी डील के अलावा भी कुछ मुद्दे हैं। इस देश के लोगों को रोटी भी चाहिए और कपड़ा भी जिसकी अभी काफ़ी कमी हैं।
क्या इस बढ़ती हुई महंगाई के पीछे कमोडिटी बाज़ार का हाथ है?
मैं जानता हूँ की शायद मेरे इस सवाल से कुछ लोग हैरान ज़रूर हो जायेंगे। मगर जब मैंने खारी बावली के एक व्यापारी से बढ़ती महंगाई के बाबत बात की तो उसने मुझे कहा कि इस बढ़ती हुई महंगाई के पीछे कमोडिटी बाज़ार का हाथ है। मुझे पूछा गया कि आप ही बताईये कि इस समय ऐसा अचानक क्या हुआ कि महंगाई बढ़ गई न तो देश में कोई बड़ी बाढ़ आई है और न ही ऐसा कुछ हुआ जिससे कि फसलें तबाह हो गई हों? सरकार ने diesel और पट्रोल कि कीमतें अभी कुछ ही दिन पहले बढाई हैं और महंगाई इससे पहले ही बढ़नी शुरू हो गई थी। बकोल व्यापारी ऐसा इस लिए हुआ क्यूंकि पिछले दिनों शयेर बाज़ार गिर रहा था और लोग अपने पैसा वहाँ से निकाल कमोडिटी बाज़ार में लगाने लगे इस कारण कमोडिटी बाज़ार ने आसमान पकड़ लिया अब क्यूंकि इसमें अधिकतर सौदे वायेदा में होते हैं तो कुछ सट्टे बाजों ने कालाबाजारी शुरू कर दी जिसकी वजह से कीमते बढ़ने लगीं हैं।
अब मेरा सवाल ये है कि यदि ये सच है तो क्या अब तक सरकार को इसकी ख़बर नही लगी और यदि ये झूठ है तो कोई इसकी सफाई के लिए सामने क्यों नही आता।
मैं चाहूँगा कि कुछ बाज़ार के जानकार इस विषय में थोड़ा प्रकाश डालें।
अब मेरा सवाल ये है कि यदि ये सच है तो क्या अब तक सरकार को इसकी ख़बर नही लगी और यदि ये झूठ है तो कोई इसकी सफाई के लिए सामने क्यों नही आता।
मैं चाहूँगा कि कुछ बाज़ार के जानकार इस विषय में थोड़ा प्रकाश डालें।
बुधवार, 26 मार्च 2008
मैं क्यों याद करता हूँ तुझे ऐ रब जब मैं अकेला होता हूँ!
मैं क्यों याद करता हूँ तुझे ऐ रब जब अकेला होता हूँ,
क्यों मैं याद तुझे करता हूँ जब मैं रोता हूँ।
कहना चाहूँ तो भी कह नही सकता , शायद शर्मिंदा होता हूँ,
आख़िर क्या वजह है मैं तुझे अपने ग़मों में ही याद करता हूँ।
करता हूँ तुझसे शिकायत मैं क्यों, जब अपने किए का ही फल पाता हूँ।
आखिर क्या वजह है, मैं, तुझे समझ नही पाता हूँ।
यूं तो मैं जानता हूँ कि तू रब है, मैं तेरी मर्ज़ी में दखल नही रखता,
फिर भी तुझसे अपने भले कि उम्मीद ही हमेशा मैं क्यों रखता हूँ?
क्यों मैं याद तुझे करता हूँ जब मैं रोता हूँ।
कहना चाहूँ तो भी कह नही सकता , शायद शर्मिंदा होता हूँ,
आख़िर क्या वजह है मैं तुझे अपने ग़मों में ही याद करता हूँ।
करता हूँ तुझसे शिकायत मैं क्यों, जब अपने किए का ही फल पाता हूँ।
आखिर क्या वजह है, मैं, तुझे समझ नही पाता हूँ।
यूं तो मैं जानता हूँ कि तू रब है, मैं तेरी मर्ज़ी में दखल नही रखता,
फिर भी तुझसे अपने भले कि उम्मीद ही हमेशा मैं क्यों रखता हूँ?
मंगलवार, 25 मार्च 2008
ब्लोग्वानी पर शामिल करने की मेरी चिंता: पढ़ा सबने बताया किसीने नही!
जैसा की मैंने कल भी लिखा था कि मैं अपने चिट्ठे को ब्लोग्वानी में शामिल नही कर पा रहा हूँ। मेरी इस पोस्ट को पढ़ा सबने मगर मुझे इसका इलाज किसी साथी ने नही बताया। क्या इसका कोई इलाज नही है। अब टू मैं सोच रहा हूँ की जो पोस्ट मैं अधिक लोगों को पढ़ना चाहता हूँ उसे कोतुहल पर जी लिख डालूं। मगर क्या करूँ मैं चाहता हूँ की मेरे ब्लॉग को भी अधिक लोग देखें और पढ़ें। यदि मेरे किसी साथी को इसका इलाज पता है तो ज़रूर बताये।
सोमवार, 24 मार्च 2008
क्या ब्लोग्वानी ने नए चिट्ठों को सदस्यता देनी बंद कर दी है?
क्या कहूं ब्लोग्गिंग शुरू की और अपने चिट्ठे को चिट्ठाजगत पर दर्ज भी कर लिया और नारद पर तो इसकी ज़रूरत नही पड़ती तो वहाँ तो कोई मुश्किल होने का सवाल ही पैदा नही होता। मगर ब्लोग्वानी पर ये दर्ज ही नही हो पा रहा है। अपने URL Http://www.mintu2faltu.blogspot.com भेज kar HTML CODE (लिंक) माँगा दर्ज कराने के लिए मगर नही मिला अपनी मेल भी भेजी के जनाब अपने को भी थोडी सी जगह देदो मगर नही मिली। तो मैंने सोचा पता करलूं साथियों से की भाई कहीं ऐसा तो नही की नए चिट्ठों को दर्ज करना बंद कर दिया गया हो। क्या वाकई में ऐसा है? अगर नही तो कृपया मेरा मार्ग दर्शन करें।
तंग करके रख दिया यार इन नेताओं ने!
कभी कभी सोचता हूँ कि ये अलग है और वो अलग। ये सही कहता है और वो सही कहता है। मगर ऐसा क्यों लगता है कि हर कोई एक जैसा ही कहता है। जब तक आप पक्ष में हैं सरकार सब अच्छा करती है और जब विपक्ष में सरकार सब ग़लत करती है। किसी की कोई नीति नही है। आप जब पक्ष में होते हैं एक नीति बना जाते हैं और आपके समय में वो सही होती है मगर जब विपक्ष में होते हैं तो उसी नीति का विरोध करते हैं। यार तंग करके रख दिया इन नेताओं ने। इनका कोई दीन ईमान नही है। दिन भर एक दूसरे को गलियाँ देते हैं शाम तो एक साथ हाथ में हाथ डाले आपको करीम पर मिल जायेंगे। अगर मैं दिल्ली में नही होता तो शायद बाकी देश कि तरह इन नेताओं को एक दूसरे का दुश्मन ही समझता मगर दिल्ली में हूँ तो इन सबको देखता रहता हूँ। पता नही ये भोली भाली जनता इनको कब पहचानेगी।
जब आप सत्ता में थे तो जंगल और नदी के पत्थरों का ठेका आपके पास था अब विपक्ष में हैं तो किसी ने अड़ंगा दाल दिया तो क्या हैं तो अपने ही दोस्त कुछ हिस्से दारी दी और ठेका फिर से चालू। बस तंग तो करना बनता है यार एक बार।
कभी कभी सोचता हूँ किसी को वोट न दूँ मगर फिर सोचता हूँ ज्यादा बुरे से कम बुरा चुन लो सही रहेगा। मगर यहाँ तो गंगा ही उलटी है अगर एक तरफ़ कोई बाहुबली खड़ा है तो सामने उससे भी बड़ा बाहुबली और अगर किसी राजनितिक दल से पूछ लिया कि आपने एक अपराधी को क्यों खड़ा किया तो जवाब मिलता है कि क्या शेर के सामने मेमना खड़ा कर दें?
यार पता नही इनका कब और क्या होगा?
जब आप सत्ता में थे तो जंगल और नदी के पत्थरों का ठेका आपके पास था अब विपक्ष में हैं तो किसी ने अड़ंगा दाल दिया तो क्या हैं तो अपने ही दोस्त कुछ हिस्से दारी दी और ठेका फिर से चालू। बस तंग तो करना बनता है यार एक बार।
कभी कभी सोचता हूँ किसी को वोट न दूँ मगर फिर सोचता हूँ ज्यादा बुरे से कम बुरा चुन लो सही रहेगा। मगर यहाँ तो गंगा ही उलटी है अगर एक तरफ़ कोई बाहुबली खड़ा है तो सामने उससे भी बड़ा बाहुबली और अगर किसी राजनितिक दल से पूछ लिया कि आपने एक अपराधी को क्यों खड़ा किया तो जवाब मिलता है कि क्या शेर के सामने मेमना खड़ा कर दें?
यार पता नही इनका कब और क्या होगा?
रविवार, 23 मार्च 2008
फ़िल्म ब्लैक & व्हाईट : कुछ हकीकत कुछ फ़साना पर ज़रूरी था दिखलाना!
कल फ़िल्म ब्लैक & व्हाईट देखी, बड़े दिन बाद एक अच्छी फ़िल्म देखने को मिली जहाँ दिमाग पर ज़ोर डालने का मौका मिला। वैसे तो सभी जानते हैं कि आजकल दिमाग पर ज़ोर daalne वाली फिल्में बनती ही नही हैं। पर सुभाष घई साहब कि फिल्मों के साथ ऐसा नही है। हमेशा विशाल और मसालेदार फिल्में बनाने वाले सुभाष घई ने इस समय बेहद संवेदनशील फ़िल्म बनाई है। जिसमें एक आम इंसान के आतंकवादी बनने तक की कहानी दिखाई गई है। हालांकि इसमें मुख्य किरदार को ज़रूरत से ज़्यादा कट्टर दिखाई गया है जो कि थोड़ा समझ से परे है मगर बाकी सहायक लोगों की भूमिका बेहद दमदार है। जिसमें अनिल और उनकी पत्नी दोनों के किरदार बेहद संजीदगी से लिखे गए हैं और कईं बार ऐसा प्रतीत होता है कि ये दोनों ही मुख्य किरदार हैं। हाँ इसमें कई ऐसी बातें हैं जैसे साधारण नेताओ और धार्मिक संगठनों का गठजोड़ जो कि हो सकता ही कुछ लोगों को तंग करे पर ये सत्य है। हाँ इसमें बुज़र्ग शायर की भूमिका भी अहम् है जो कि हमेशा अपने देश के बारे में सोचते हैं और लिखते भी हैं। कुल मिलकर दूसरी फिल्मों से बेहद अलग है और किसी को भी बाधें रखने में कामयाब फ़िल्म है।
शुक्रवार, 21 मार्च 2008
होली और बदरंग ज़िंदगी कुछ लोगों की!
यूं तो कहते हाँ खुशी के मौके पर दुःख भरी बातें नही करनी चाहिए जहाँ हम इन बड़े शहरों में होली की रौनक देख रहे हैं वहीं इन्ही शहरों में ही कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनके लिए पीले रंग का मतलब एक कटोरी दाल और लाल रंग का मतलब चटनी से ज्यादा नही होता, और पिचकारी कभी कभी वो चटनी में लिपटी रोटी होती है जिसे वो पानी के साथ ज़बरदस्ती निगलने की कोशिश करता है। हाँ आज फिर मैंने ऐसा ही दृश्य देखा है अपने इस खुशहाल दिल्ली में जहाँ हम आज मेट्रो और common wealth खेलों की baatein करते हैं। जहाँ आज भी हमारे बच्चे दिन में ५०-१०० रुपी अपने कंप्यूटर games और होली के दिनों में गुब्बारों पर खर्च करते हैं वहीं ऐसे भी लोग हैं जिनको हफ्ते का इतना भी नही मिलता और जिन्हें कुछ मिल भी जाता है वहाँ सरकार इसे उनसे आधुनिकता के नाम पर छीनने की कोशिश करती है। हम अगर इन लोगों के लिए अधिक कुछ नही कर सकते तो क्या इनके लिए दुआएं भी नही कर सकते क्या?
मैं न लौटना चाहता था न चाहूँगा मगर जब भी तेरी याद आएगी रो जाऊंगा!
मैं न लौटना चाहता था न चाहूँगा
मगर जब भी तेरी याद आएगी रो जाऊंगा।
न पूछना मुझसे से इसका सबब दुनिया वालों,
आंसुओं में डूबा हुआ मैं तुम्हे समझा नही पाउँगा।
ग़ज़ल लिखूंगा मैं, तराना गा लूँगा,
मैं इस तरह से अपनी उदासी को छुपा लूँगा।
बड़ा ही बेईत्मिनान सा होने लगेगा जब दिल मेरा,
तेरी बेवफाई को याद करके इसे समझा लूँगा.
मगर जब भी तेरी याद आएगी रो जाऊंगा।
न पूछना मुझसे से इसका सबब दुनिया वालों,
आंसुओं में डूबा हुआ मैं तुम्हे समझा नही पाउँगा।
ग़ज़ल लिखूंगा मैं, तराना गा लूँगा,
मैं इस तरह से अपनी उदासी को छुपा लूँगा।
बड़ा ही बेईत्मिनान सा होने लगेगा जब दिल मेरा,
तेरी बेवफाई को याद करके इसे समझा लूँगा.
गुरुवार, 20 मार्च 2008
ब्रेकिंग न्यूज़: ख़ुद ही सवाल करो और ख़ुद ही बखेड़ा खड़ा कर दो!
भाई हमारे न्यूज़ चैनल्स आज कल क्या कर रहे हैं ये किसी से छिपा नही है। जब ख़बर नही मिलती तो ये लोग उसे तलाश नही करते बल्कि बना देता हैं? अरे भाई कैसे ये लो उदाहरण:
पिछले दिनों क्या हुआ आमिर खान से कहा गया की यदि आपको मौका मिले शाहरुख़ से सवाल पूछने का तो आप उनसे क्या सवाल पूछेंगे?
तो हमारे आमिर जी ने भी टपक से कहा कि मैं उनसे पूछूँगा आमिर के बाद नंबर २ होकर उन्हें कैसा लगेगा?
अब इसके पीछे आमिर के मन में जो कुछ मर्ज़ी क्यूँ न रहा हो मगर हमारे नवीन मीडिया चैनल्स को तो 1/२ घंटे का मसाला मिल ही गया. और खबर दिखाने का अंदाज़ ऐसा कि लगे कोई ज़ंग छिड़ी हो.
ये तो क्या आज तो इरफान पठान के पीछे ही पड़ गए यार किसी को तो बख्श दो.
पिछले दिनों क्या हुआ आमिर खान से कहा गया की यदि आपको मौका मिले शाहरुख़ से सवाल पूछने का तो आप उनसे क्या सवाल पूछेंगे?
तो हमारे आमिर जी ने भी टपक से कहा कि मैं उनसे पूछूँगा आमिर के बाद नंबर २ होकर उन्हें कैसा लगेगा?
अब इसके पीछे आमिर के मन में जो कुछ मर्ज़ी क्यूँ न रहा हो मगर हमारे नवीन मीडिया चैनल्स को तो 1/२ घंटे का मसाला मिल ही गया. और खबर दिखाने का अंदाज़ ऐसा कि लगे कोई ज़ंग छिड़ी हो.
ये तो क्या आज तो इरफान पठान के पीछे ही पड़ गए यार किसी को तो बख्श दो.
यार ये धोनी की दिक्कत क्या है?
यार ये धोनी की दिक्कत क्या है? क्यों परेशान है भाई?
उसे तजुर्बे की ज़रूरत नही और final में सचिन का चलना भी ज़रूरी है। अब यार या क्या धोनी भाई ये क्या कह दिया कि कंगारुओं को आपकी नौ जवान टीम न हराया है मगर याद तो कर लो अन्तिम सभी मत्चेस में सचिन का ही बल्ला था जो लगातार चला वरना आपके नौ जवानों न तो लुटिया पहले ही डुबो दी थी.यार थोड़ा सोच तो लो। जोश के साथ साथ होश भी ज़रूरी होता है और वो तजुर्बे से आता है। और तजुर्बा लेने के लिए तजुर्बेकार लोगों का साथ ज़रूरी होता है। कब समझोगे?
उसे तजुर्बे की ज़रूरत नही और final में सचिन का चलना भी ज़रूरी है। अब यार या क्या धोनी भाई ये क्या कह दिया कि कंगारुओं को आपकी नौ जवान टीम न हराया है मगर याद तो कर लो अन्तिम सभी मत्चेस में सचिन का ही बल्ला था जो लगातार चला वरना आपके नौ जवानों न तो लुटिया पहले ही डुबो दी थी.यार थोड़ा सोच तो लो। जोश के साथ साथ होश भी ज़रूरी होता है और वो तजुर्बे से आता है। और तजुर्बा लेने के लिए तजुर्बेकार लोगों का साथ ज़रूरी होता है। कब समझोगे?
बुधवार, 19 मार्च 2008
उन्हें क्या ज़रूरत थी जाने की, के कह दिया होता हम ही गुज़र जाते!
उन्हें क्या ज़रूरत थी जाने की,
के कह दिया होता हम ही गुज़र जाते।
सुलझ जाती हर एक उलझन
और वो भी गुनाह से बच जाते।
सितम होता जो हम पर
तो कह देते सबसे हम,
उन्हें कुछ मत कहना
के वो अगर होते तो हम बच जाते।
भुलावा ये बस ज़िंदगी का ही रहा था,
अगर इसमें ज़िंदगी न होती तो ये दिन न आते।
आज भी उनकी पसंद के तराने सुनता रहता हूँ मैं
वो तो आते नही मगर ये हमेशा मुझे उनके होने का एहसास दिलाते हैं।
के कह दिया होता हम ही गुज़र जाते।
सुलझ जाती हर एक उलझन
और वो भी गुनाह से बच जाते।
सितम होता जो हम पर
तो कह देते सबसे हम,
उन्हें कुछ मत कहना
के वो अगर होते तो हम बच जाते।
भुलावा ये बस ज़िंदगी का ही रहा था,
अगर इसमें ज़िंदगी न होती तो ये दिन न आते।
आज भी उनकी पसंद के तराने सुनता रहता हूँ मैं
वो तो आते नही मगर ये हमेशा मुझे उनके होने का एहसास दिलाते हैं।
बच्चों कि परीक्षाएं और नाक बडों की.और बढ़ती आत्म हत्याएं!
कभी न कभी हम सब ये बात ज़रूर सोचते हैं की ये परीक्षाएं क्यों होती हैं? खासतौर पे सवाल हर किसी के स्कूल के दिनों में ज़रूर उठता है। क्यूंकि वो स्कूल का ही समय होता है जब हमें ये परीक्षाएं डराती है। क्या हाल होता है न वो भी की रात में सो जाओ तो सपने में भी परीक्षा भवन और यदि जाग भी रहे हो तो भी परीक्षा भवन ही दिखाई देता है। वैसे क्या वक्त होता है न वो भी?
मगर आजकल सुना है कि ये सवाल बड़े उठा रहे हैं! पर क्यों ? अब ऐसा अचानक क्या हो गया कि लोगों को इनसे परहेज़ होने लगा? पहले भी तो लोग परीक्षाएं देते थे, क्या उन्हें ये परीक्षा का दबाव नही झेलना पड़ता था जो आज कल के छात्रों को झेलना पड़ रहा है?
ऐसा कुछ भी नही दरअसल ये दबाव हमारे नए ज़माने के अभिभावकों ka पैदा किया हुआ है। ये नए अभिभावक बच्चों के लिए नही सोचते बल्कि इनकी सोच केवल ये है कि इनकी समाज में नाक ऊंची रहे। आज कल परीक्षा में बच्चों से ज्यादा ये लोग शामिल होते है। शर्त ये है ये नए ज़ाने के अभिभावक अपने दफ्तरों में, अपने पड़ोस में और अपने रिश्तेय्दारों के सामने गर्व से कह सकें कि हमारे बच्चे के इतने प्रतिशत नम्बर आए हैं और ये क्रम आया है इन नए ज़माने के अभिभावकों को इस बात कि परवाह नही है कि इसके लिए उन्हें अपने बच्चे को कितना आराम देना चाहिए?
और यदि किसी के मन में मेरी इस बात से कोई न इत्तेफाकी है तो वो शुरू से देखे कि आजकल हम अपने बच्चों के साथ करते क्या है?
जब हम उनका पहली बार प्रवेश करते है तो उनकी उम्र क्या होती है अजी २ १/२ या ३ साल । किसी ने पहले कभी इस उम्र में स्कूल के बारे में सोचा था नही न। ये नाम होता है कि बच्चा स्कूल में बैठना सीख रहा है और वो भी खेल खेल में मगर क्या ये सच नही कि जिस उम्र में बच्चे को सही से बोलना नही आता उस उम्र में हम उन्हें कवितायेँ रटवाना शुरू कर देते हैं। जब उसे खेलना चाहिए बाहर जाकर तब हम उन्हें कमरे में बंद रहना सिखा देते हैं। और तभी से उसका मुकाबला उसकी कक्षा के बच्चों के साथ शुरू हो जाता है जिसका बोझ उसे हमेशा सहना ही तो है। कुछ दिन पह्के में एक विज्ञापन देख रहा था उसमें यही बताया गया था कि आज खेलने दो कल बड़ा है बनाना ।
इसके साथ ही अगली कक्षाओं में उससे यही उम्मीद होती है कि उनका बच्चा प्रथम ही आएगा। यार यदि सबके बच्चे प्रथम आयेंगे तो द्वितीये कौन आएगा? यही वो स्थान होता है जहाँ पर हम रटने को सीखने से ज्यादा तरजीह देने लगते हैं। और बच्चा केवल रटना ही सीख लेता है. उसे पिछली कक्षा में तो ९९% अंक मिल जाते हैं मगर अगली कक्षा में जाने के बाद पिछली कक्षा का कुछ दिमाग में नहीं रहता. ये सब मेरे खुदके तजुर्बे हैं जो कि मैंने अलग अलग बच्चों के साथ देखा हैं. अब हमें ये सोच न ही कि हमें सख्या अधिक चाहिए या गुणवत्ता?
अगर अपने बच्चों कि चिंता है तो उनके सिर से परीक्षा का नहीं अभिभावकों का दबाव हटाना पड़ेगा.
मगर आजकल सुना है कि ये सवाल बड़े उठा रहे हैं! पर क्यों ? अब ऐसा अचानक क्या हो गया कि लोगों को इनसे परहेज़ होने लगा? पहले भी तो लोग परीक्षाएं देते थे, क्या उन्हें ये परीक्षा का दबाव नही झेलना पड़ता था जो आज कल के छात्रों को झेलना पड़ रहा है?
ऐसा कुछ भी नही दरअसल ये दबाव हमारे नए ज़माने के अभिभावकों ka पैदा किया हुआ है। ये नए अभिभावक बच्चों के लिए नही सोचते बल्कि इनकी सोच केवल ये है कि इनकी समाज में नाक ऊंची रहे। आज कल परीक्षा में बच्चों से ज्यादा ये लोग शामिल होते है। शर्त ये है ये नए ज़ाने के अभिभावक अपने दफ्तरों में, अपने पड़ोस में और अपने रिश्तेय्दारों के सामने गर्व से कह सकें कि हमारे बच्चे के इतने प्रतिशत नम्बर आए हैं और ये क्रम आया है इन नए ज़माने के अभिभावकों को इस बात कि परवाह नही है कि इसके लिए उन्हें अपने बच्चे को कितना आराम देना चाहिए?
और यदि किसी के मन में मेरी इस बात से कोई न इत्तेफाकी है तो वो शुरू से देखे कि आजकल हम अपने बच्चों के साथ करते क्या है?
जब हम उनका पहली बार प्रवेश करते है तो उनकी उम्र क्या होती है अजी २ १/२ या ३ साल । किसी ने पहले कभी इस उम्र में स्कूल के बारे में सोचा था नही न। ये नाम होता है कि बच्चा स्कूल में बैठना सीख रहा है और वो भी खेल खेल में मगर क्या ये सच नही कि जिस उम्र में बच्चे को सही से बोलना नही आता उस उम्र में हम उन्हें कवितायेँ रटवाना शुरू कर देते हैं। जब उसे खेलना चाहिए बाहर जाकर तब हम उन्हें कमरे में बंद रहना सिखा देते हैं। और तभी से उसका मुकाबला उसकी कक्षा के बच्चों के साथ शुरू हो जाता है जिसका बोझ उसे हमेशा सहना ही तो है। कुछ दिन पह्के में एक विज्ञापन देख रहा था उसमें यही बताया गया था कि आज खेलने दो कल बड़ा है बनाना ।
इसके साथ ही अगली कक्षाओं में उससे यही उम्मीद होती है कि उनका बच्चा प्रथम ही आएगा। यार यदि सबके बच्चे प्रथम आयेंगे तो द्वितीये कौन आएगा? यही वो स्थान होता है जहाँ पर हम रटने को सीखने से ज्यादा तरजीह देने लगते हैं। और बच्चा केवल रटना ही सीख लेता है. उसे पिछली कक्षा में तो ९९% अंक मिल जाते हैं मगर अगली कक्षा में जाने के बाद पिछली कक्षा का कुछ दिमाग में नहीं रहता. ये सब मेरे खुदके तजुर्बे हैं जो कि मैंने अलग अलग बच्चों के साथ देखा हैं. अब हमें ये सोच न ही कि हमें सख्या अधिक चाहिए या गुणवत्ता?
अगर अपने बच्चों कि चिंता है तो उनके सिर से परीक्षा का नहीं अभिभावकों का दबाव हटाना पड़ेगा.
मंगलवार, 18 मार्च 2008
क्या कश्मीर सिंह की वजह से सरबजीत की मुश्किलें बढ़ी हैं?
जब से ख़बर सुनी है सरबजीत की फांसी की कुछ अच्छा नही लग रहा है। ऐसा लग रहा है कि उसके लिए हम कुछ करते क्यों नही? पर हम लोग ज्यादा कर ही क्या सकते है? हाँ कर सकते हैं दुआएं वो हम कर ही रहे हैं? पर कभी - कभी सोचता हूँ कि कहीं कश्मीर सिंह जी की वजह से ही सरबजीत की मुश्किलें तो नही बढ़ी? क्यूंकि जब वो देश लौट कर आए उन्होंने ये मान लिया कि वो पाकिस्तान में भारत के जासूस के रूप में तैनात थे, जिसे वहाँ कि सरकार अदालत में साबित नही कर पायी और उनकी देश वापसी हो पाई। क्या इसी बात ने पाकिस्तान सरकार के कान तो नही खड़े कर दिए और इसी वजह से तो कहीं उनकी रिहाई में बाधा आ रही है?जो भी हो खुदा करे कि उनकी देश वापसी हो जाए।
आमीन
आमीन
सरबजीत जी के लिए दुआ करें.
आज ज़रूरत है की हम सब मिलकर सरबजीत सिंह जी के लिए दुआ करें। क्यूंकि अब शायद यही एक उम्मीद रह गई है उनकी रिहाई और ज़िंदगी के लिए।
सोमवार, 17 मार्च 2008
होता कोई और तो ज़बान खींच लेता पर क्या करूं मेरे देश को मेरे देश न बुरा कहा.
होता कोई और तो ज़बान खींच लेता मैं
पर क्या करूं मेरे देश को मेरे देश न बुरा कहा।
होता किसी और का खंजर तो देता पलट कर वार,
पर क्या करूं के ये खंजर मेरे दोस्तों का था।
आप भी सोचेंगे के ये देश भक्ति की शायरी की अचानक मुझे क्या सूझ गई पर क्या करूं? रोज़ देखता हूँ लोगों को अपने ही देश की बुराई करते हुए। अब उन लोगों को कहें भी तो क्या और कितनों को मना करें। जिसे देखो वो यही कहता है की भारत में ये है और वो नही है। क्या सभी अच्छी चीज़ें विदेशों में ही बस्ती हैं हमारे देश में कुछ नही होता क्या? अगर देश इतना ही बुरा है तो इसे छोड़ क्यों नही देते? गलियाँ भी इसी को देनी हैं और रहना भी इसी में है। अगर कहीं ज़रा से गंदगी नज़र आ हाय तो एक ही बात ये भारत है अगर योरोप होता तो ऐसा नही होता । कोई उनसे पूछे कि अगर इतना ही बुरा लगता है तो ख़ुद साफ क्यों नही कर देते और जितना लोग योरोप जैसे देशों में टैक्स जमा करते हैं क्या हम लोग इतना टैक्स देते हैं?
अगर कहीं करप्शन दिख जाए तो ये करप्शन केवल भारत में ही है और कहीं नही अरे भाई अगर है तो क्यों इसके भागीदार बनते हो? कौन कहता है कि अपनी गाड़ियों में काग़ज़ पोर मत रखो और पुलिस को रिश्वत दो?
मतलब करना भी है और मानना भी नही।
ये तो चंद ही बातें हैं ज़रा हम सब अपने गिरेबान में झाँक कर देख तो लें कि इस देश न हमें क्या क्या दिया है और हम इसकी क़द्र क्यूं नही है करते?
पर क्या करूं मेरे देश को मेरे देश न बुरा कहा।
होता किसी और का खंजर तो देता पलट कर वार,
पर क्या करूं के ये खंजर मेरे दोस्तों का था।
आप भी सोचेंगे के ये देश भक्ति की शायरी की अचानक मुझे क्या सूझ गई पर क्या करूं? रोज़ देखता हूँ लोगों को अपने ही देश की बुराई करते हुए। अब उन लोगों को कहें भी तो क्या और कितनों को मना करें। जिसे देखो वो यही कहता है की भारत में ये है और वो नही है। क्या सभी अच्छी चीज़ें विदेशों में ही बस्ती हैं हमारे देश में कुछ नही होता क्या? अगर देश इतना ही बुरा है तो इसे छोड़ क्यों नही देते? गलियाँ भी इसी को देनी हैं और रहना भी इसी में है। अगर कहीं ज़रा से गंदगी नज़र आ हाय तो एक ही बात ये भारत है अगर योरोप होता तो ऐसा नही होता । कोई उनसे पूछे कि अगर इतना ही बुरा लगता है तो ख़ुद साफ क्यों नही कर देते और जितना लोग योरोप जैसे देशों में टैक्स जमा करते हैं क्या हम लोग इतना टैक्स देते हैं?
अगर कहीं करप्शन दिख जाए तो ये करप्शन केवल भारत में ही है और कहीं नही अरे भाई अगर है तो क्यों इसके भागीदार बनते हो? कौन कहता है कि अपनी गाड़ियों में काग़ज़ पोर मत रखो और पुलिस को रिश्वत दो?
मतलब करना भी है और मानना भी नही।
ये तो चंद ही बातें हैं ज़रा हम सब अपने गिरेबान में झाँक कर देख तो लें कि इस देश न हमें क्या क्या दिया है और हम इसकी क़द्र क्यूं नही है करते?
बुधवार, 12 मार्च 2008
सुदर्शन फाकिर: उनकी गज़लें और ओरकुट पे उनकी community..
पिछले दिनों जब मैंने कागज़ की कश्ती और बारिश का पानी जैसा गीत/ग़ज़ल लिखने वाल्व सुदर्शन फाकिर जी के गुज़र जाने के बाद मैंने लिखा था तब कुछ लोगों न पूछा था की ये फाकिर कौन है और क्या है? तो मैंने उन्हें कुछ मशहूर गजलें और गीत बताये साथ ही जो कुछ मुझे मालूम था उनके बारे में वो भी बता दिया।
अब मुझे ओरकुट पे उनके नाम पर बनी community के बारे में पता चला है जो मैं सबके साथ में बांटना चाहता हूँ ताकि जो लोग उनसे वाकिफ़ नही हैं वो भी उन्हें जान जाएँ और कुछ बहुत खूबसूरत नज्मों का मज़ा ले पाएं साथ में सुदर्शन जी को याद भी कर पाएं। अगर आपका ओरकुट पे I D है तो आप सीधे इस लिंक पर क्लिक्क कर सकते हैं।
http://www.orkut.com/Community.aspx?cmm=44170117
अब मुझे ओरकुट पे उनके नाम पर बनी community के बारे में पता चला है जो मैं सबके साथ में बांटना चाहता हूँ ताकि जो लोग उनसे वाकिफ़ नही हैं वो भी उन्हें जान जाएँ और कुछ बहुत खूबसूरत नज्मों का मज़ा ले पाएं साथ में सुदर्शन जी को याद भी कर पाएं। अगर आपका ओरकुट पे I D है तो आप सीधे इस लिंक पर क्लिक्क कर सकते हैं।
http://www.orkut.com/Community.aspx?cmm=44170117
सोमवार, 10 मार्च 2008
भारतीये हॉकी: धन्य हो के पी एस गिल साहब, आज फेडरेशन ने ४ हज़ार रुपये कमाए.
तो जनाब इतना शोर क्यों मचा रहे हैं यदि आज भारतीये हॉकी टीम हार गई तो अजी कुछ धनात्मक भी तो हुआ है न, क्या? अजी आपको नही पता की एक गोल खाने पर टीम पर २००० रुपये का जुर्माना लगता है। और आप कह रहे हैं की गिल साहब ने हॉकी के लिए कुछ नही किया। यार ऐसा तो मत कहो अब ज़माना बदल गया है जहाँ पहले खेलने पर पैसे मिलते थे अब हॉकी में पुलिसिया डंडा राज चलता है, गोल खाने पर जुर्माना। इसका मतलब ये हुआ कि भारतीये टीम अब फेडरेशन को ४००० रुपये देगी, यानी ४००० रुपये का फायेदा। आपने कमाई का इससे बहतर तरीका सुना है। मतलब हार भी जाओ और कमा भी लाओ। वाह ! तो जनाब क्यूंकि आजकल हॉकी संघ में पुलिसिया राज है तो सोचने कि क्या बात है। यदि आप खिलाड़ी है तो भूल जाएँ की आप की बात सुनी जायेगी और यदि आप कोई कोच हैं तो इन पुलिसवालों को सिखाने की कोशिश न करें, इसी में आपकी बह्तरी है. और हार जीत का अगर आप सोचते है की संघ पर कोई फर्क पड़ेगा तो वो भी आप भूल ही जाएं तो ही अच्छा, इन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है क्यूंकि इन्हें कोई हटा नहीं सकता, क्यूँ? अजी आपको नहीं पता क्या की ये सरकार के दामाद हैं जिनकी खातिर हर हाल में होनी है. याद कीजिए वो दिन जब भारतीये टीम श्री लंका को ५० से ज्यादा गोल से हराया था, उस दिन किस प्रकार इस जीत का श्री लेने के लिए संघ के अधिकारियों की कतार लग गयी थी. और उसी दिन संघ न ये एलान किया था कि यदि टीम एक गोल करेगी तो उसे १००० रूपए का इनाम और यदि गोल खायेगी तो हर गोल पे २००० का जुर्माना, इसका मतलब यदि टीम ३-२ से यदि जीत भी जाती है तो उसे १ हजार रूपए का जुर्माना भरना पड़ेगा. है किसी और देश में अपने खिलाडियों का होसला बढाने का इससे अच्छा तरीका. नहीं न. अजी कहना ही क्या. जब राज पुलिस का हो तो सब ऐसा ही होता है. और हाँ यदि आपको लगता है कि पिछले १५ सालों में हॉकी का स्तर नीचे गया है तो ऐसा सोचने कि हिमाक़त मत कीजियेगा. गिल साहब नाराज़ हो जायेंगे क्यूंकि पिछले १५ सालों से संघ कि कमान उन्ही के हाथों में जो है.और गिल साहब के तो क्या कहने उनकी बात अन्तिम होती चाहे इसमें टीम का चयन कोई सी आर पी एफ का अफसर करे या कोई और. अब चाहे आज कि हार के बाद कोच जाये या उपाध्यक्ष उन्हें इससे क्या.
रविवार, 9 मार्च 2008
मुस्कराहट का इंतज़ार है इंडियन रेलवे में!
लालूजी न काफ़ी कुछ दिया रेल से सफर करने वालों को पर अभी भी एक बेहद कीमती चीज़ रह गई है जो है मुस्कराहट वो लालूजी कहाँ से देंगे? अजी में जिक्र कर रहा हूँ भारतीये रेल कर्मचारियों का। भले ही हमारी रेलवे कितनी भी सुधर जाए मगर क्या यहाँ के कर्मचारियों के चेहरों पे मुस्कराहट आयेगी? अब मुझे इसका जवाब कौन देगा। आज ही मैं अपने रिश्तेदारों को छोड़ने स्टेशन गया वहाँ पूछताछ से लेकर टिकट खिड़की और plateform तक पे बैठे हर एक कर्मचारी की ज़बान पर या तो गुस्सा था या उलझन की लकीरें। अजी कहे इतना परेशान रहते है लालूजी से कहिये न कुछ कर देंगे। अजी आपकी तो परेशानी हो गई बेचारी सवारी की जान पे बन आयेगी। अजी केवल आदमी ही परेशान हों तो समझा जा सकता है की घर पर लड़के आए होंगे याहन तो महिलाएं भी। और अगर आप की ज़बान से कुछ निकाल गया तो समझ लीजिये की आप गए कर्मचारी तो बोलेगा ही साथ में आप के पीछे खड़े बाकी लोग भी आपको नही छोडेंगे। क्यूंकि उनका समय जो बरबाद होगा आपके चक्कर में। मेरी तो लालूजी से यही कहना है की कम से कम एक जोक अपनी विशिष्ट शैली में इन्हे भेज दिया करें कम से ये लोग हंसने तो लगेंगे.
गुरुवार, 6 मार्च 2008
कंप्यूटर गेमिंग : क्या हम अपने बच्चों को उग्र बना रहे हैं?
हो सकता है कि कुछ लोगों को मेरी बात सही न लगे पर क्या ऐसा नहीं लगता कि कंप्यूटर गेमिंग के नाम पर हम अपने बच्चों को उग्र बना रहे हैं? आजकल जिस प्रकार के games बाजार में उपलब्ध हैं उनको देख कर कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि बच्चे क्या सीख रहे हैं? हालांकि कि बाज़ार में कुछ अलग प्रकार के games भी उपलब्ध हैं मगर बच्चों का झुकाव ज्यादा इन games की तरफ ही है. कोई भी आसानी से इन्हें देख कर अंदाजा लगा सकता है कि बच्चे इन games को खेलते समय किस प्रकार सोचते हैं और कितने उग्र होते हैं. मेरा मानना है कि इस प्रकार के games बच्चों के दिलों से डर निकाल देते हैं और वे इन्हें घर तथा स्कूलों में खेलने की कोशिश करते हैं. ऐसा मैं यूँही नहीं कह रहा हूँ इसकी जानकारी के लिए मैं अपने घर के नजदीक बने games house में लगातार कई घंटे और दिन बिताने के बाद कह रहा हूँ. वैसे आप सोचेंगे कि मुझे ऐसा करने कि ज़रूरत क्यूँ पड़ी तो जनाब ऐसा इसलिए क्यूंकि मैंने अपने पड़ोस के कुछ बच्चों को ऐसा करते देखा था. वो एक दुसरे को इसी प्रकार मारने की कोशिश कर रहे थे और बातें भी कर रहे थे. तो अंत में मेरी यही सलाह होगी कि अपने बच्चों को अकेले खेलने न दें और यदि खेलने दें तो ध्यान दें कि वो कौनसा गेम खेल रहे हैं. और उन्हें बताएं कि इसमें क्या वास्तविक है और क्या गलत. साथ ही ये भी कि ऐसा नहीं करना चाहिए कम से कम असल ज़िन्दगी में तो बिलकुल नहीं. वरना ऐसा न हो कि जैसा आजकल हम अमेरिका में सुनते हैं कि स्कूलों में बंदूक बाजी हुई है वो कहीं भारत में न होने लगे.
मंगलवार, 4 मार्च 2008
टेलिकॉम कम्पनियाँ क्या हमें बेवकूफ समझती हैं या वो ख़ुद ही बेवकूफ हैं?
अजी आप भी सोचेंगे की कोतुहल में टेलिकॉम कम्पनियाँ क्या करने लगी? अजी ज़्यादा सर मत खुज्लायिये क्यूंकि आज ही मेरे पास एक समस आया है जिसमें बड़ी ही मज़ेदार बात लिखी पहले उसे अंग्रेज़ी में पढिये '
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To know more कॉल 5****820@6 Rs/मं'
मतलब ये कि अब आप चाहे रिन्ग्तोनेस को तोहफे में दें और चाहे ख़ुद ही सेट करें वो होगा बिल्कुल मुफ्त ! मगर हाँ जानकारी के लिए कॉल करें जिसके charges हैं ६ रुपए/ मिनट।
अब क्या ये लोग हमें बताएँगे की केवल जानकारी देने में ही ये लोग २०-३० रुपए ले लेंगे और ringtone free होने का दावा कर देंगे और वो भी यदि समझ आया तो?
अब भाई इतने बड़े लोग वैसे तो हैं नही मतलब बेवकूफ मगर कुछ हमारे भाई लोग free देख कर एक बार dial तो कर ही लेंगे बाकी पैसे तो अपने आप कट ही जायेंगे।
वैसे कहना तो नही चाहिए क्यूंकि मैंने भी एक टेलिकॉम कम्पनी का ही नमक खाया है मगर इतना बेवकूफ नही बनाना चाहिए और यदि कोई भी सुविधा दें तो साफ साफ बताकर दें न कि बेवकूफ बनाकर लूटने लगें।
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अब क्या ये लोग हमें बताएँगे की केवल जानकारी देने में ही ये लोग २०-३० रुपए ले लेंगे और ringtone free होने का दावा कर देंगे और वो भी यदि समझ आया तो?
अब भाई इतने बड़े लोग वैसे तो हैं नही मतलब बेवकूफ मगर कुछ हमारे भाई लोग free देख कर एक बार dial तो कर ही लेंगे बाकी पैसे तो अपने आप कट ही जायेंगे।
वैसे कहना तो नही चाहिए क्यूंकि मैंने भी एक टेलिकॉम कम्पनी का ही नमक खाया है मगर इतना बेवकूफ नही बनाना चाहिए और यदि कोई भी सुविधा दें तो साफ साफ बताकर दें न कि बेवकूफ बनाकर लूटने लगें।
क्रिकेट- सनथ जयसुरिया और ऐडम गिल्च्रिस्ट के बाद!
हो सकता है की आज ही ऐडम गिल्च्रिस्ट भी सनथ जयसुरिया की तरह ही संन्यास ले लें। मगर IN दोनों के जाने के बाद क्रिकेट में क्या बदलाव आने वाले हैं। मुझे आज भी याद है जब मैंने अपने होश में पहली बार क्रिकेट वर्ल्ड कप देखा था। उसी साल श्री लंका की टीम न पहले १५ ओवेर्स में तेज़ी से रन बनने की रण नीति अपनाई जिसके सूत्र धार बने सनथ जयसुरिया। जिन्होंने पॉवर प्ले में गेंदबाजों के लिए आफत खड़ी कर दी जिसके बाद हर देश अपनी शुरुवाती जोड़ी को तेज़ खेलने के लिए भेजता था। और उस समय से ही हर एक मैच में ३०० से ज़्यादा रन बनने लगे। तभी शुरुवात हुई दुनिया के पहले विकेट कीपर बल्लेबाज़ ऐडम गिल्च्रिस्ट की। जिन्होंने ballers को सपने में भी आंसू बहाने के लिए छोड़ दिया। मुझे आज भी १९९९ वर्ल्ड कप का वो final मैच याद आता है जिसमें उन्होंने ज़हीर खान का बैंड बजा दिया था और जिसकी वजह से ही भारत को हार देखनी पड़ी। उनकी उपयोगिता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है की इस श्रंखला में उनका बल्ला नही चला और ऑस्ट्रेलिया टीम अच्छे स्कोर के लिए तरसती रही। यही वो विकेट कीपर बल्लेबाज़ हैं जिनकी वजह से आज भारतीये टीम में महेंद्र सिंह धोनी जैसे विस्फोटक बल्लेबाज़ है। क्यूंकि ऐडम सभी विकेट कीपेर्स के आदर्श जो बन गए हैं।
सच कहूँ जिस दिन मैंने जयसुरिया का अन्तिम मैच देखा था उस दिन मुझे काफ़ी अफ़सोस हुआ की आज के बाद हम इस महान बल्लेबाज़ को सीमित ओवेरों के मैच में नही देख पाएंगे।
ऐडम और सनथ आप लोगों की ही वजह से इस खेल में उत्साह बना है और हमें आप लोग हमेशा याद रहेंगे।
सच कहूँ जिस दिन मैंने जयसुरिया का अन्तिम मैच देखा था उस दिन मुझे काफ़ी अफ़सोस हुआ की आज के बाद हम इस महान बल्लेबाज़ को सीमित ओवेरों के मैच में नही देख पाएंगे।
ऐडम और सनथ आप लोगों की ही वजह से इस खेल में उत्साह बना है और हमें आप लोग हमेशा याद रहेंगे।
शनिवार, 1 मार्च 2008
बजट : अजी चाहे चुनावी हो या गैर चुनावी- फायेदा तो आम लोगों का ही है न.
तो जनाब कल बजट आ ही गया और जैसा की उम्मीद थी की बजट चुनाव से प्रेरित होगा, हुआ भी ऐसा ही। पर जनाब जो कुछ भी हुआ, बढ़िया ही हुआ। कम से कम एक साल तक का तो फायेदा आम इंसान उठाने वाला ही है। और हाँ हमारे कुछ उद्योग पति भाइयों न भी चैन की साँस ली होगी क्यूंकि चुनावी बजट होने के नाते उन्हें कहीं शंका रही होगी की सरकार कहीं आम लोगों के लिए उद्योगपतियों की बलि न लेलें।
वैसे मज़े की बात तो ये है की बजट के बाद विपक्ष का कोई भी नेता कुछ कमियां निकालते दिखाई नही दे रहा है। वरना अब तक तो रैलियाँ निकल जातीं हमेशा की तरह। और हाँ सरकार के तंग के साथी मेरा मतलब टांग खींचने वाले वामपंथी भी चुप ही बैठे है उन्हें भी कुछ सुझाई नही दे रहा है। और यदि दे भी रहा होगा तो आम जनता और किसानों से उलझने का saahas कहाँ से आयेगा?इस बात से तो इनकार नही किया जा सकता की हमारी सरकार का ये बजट और पहले आया रेलवे नजात दोनों ही आम जनता के हित में ही हैं। हाँ ये बात और है की इसे आम जनता के हित में रखने के लिए वित्त मंत्रीजी न कितना कड़वा घूँट पिया होगा। भाई अपनी क्या अपनी तो मौजाँ ही मौजाँ हैं.एक बात तो मैं भी वित्त मंत्रीजी से पूछना चाहूँगा की किसानों को मिलने वाला ६० हज़ार करोड़ आएगा कहाँ से ? और यदि अगली बार फिर से ऐसे ही हालत बन गए तो क्या सरकार फिर से किसानों का इतना बड़ा क़र्ज़ माफ़ करेगी?
वैसे मज़े की बात तो ये है की बजट के बाद विपक्ष का कोई भी नेता कुछ कमियां निकालते दिखाई नही दे रहा है। वरना अब तक तो रैलियाँ निकल जातीं हमेशा की तरह। और हाँ सरकार के तंग के साथी मेरा मतलब टांग खींचने वाले वामपंथी भी चुप ही बैठे है उन्हें भी कुछ सुझाई नही दे रहा है। और यदि दे भी रहा होगा तो आम जनता और किसानों से उलझने का saahas कहाँ से आयेगा?इस बात से तो इनकार नही किया जा सकता की हमारी सरकार का ये बजट और पहले आया रेलवे नजात दोनों ही आम जनता के हित में ही हैं। हाँ ये बात और है की इसे आम जनता के हित में रखने के लिए वित्त मंत्रीजी न कितना कड़वा घूँट पिया होगा। भाई अपनी क्या अपनी तो मौजाँ ही मौजाँ हैं.एक बात तो मैं भी वित्त मंत्रीजी से पूछना चाहूँगा की किसानों को मिलने वाला ६० हज़ार करोड़ आएगा कहाँ से ? और यदि अगली बार फिर से ऐसे ही हालत बन गए तो क्या सरकार फिर से किसानों का इतना बड़ा क़र्ज़ माफ़ करेगी?
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