कहते हैं के हम सा अलग हैं पर क्या वाकई ऐसा है।
आज भी जितनी इस ग़ज़ल को सुनकर बाकी लोगों के बदन में जो सिहरन पैदा होती है ( जैसे की सुना है) वही मेरा भी हाल होता है। और बहुत कुछ आँखों के आगे से गुज़र जाता है। एक एक पंक्ति यादों के समंदर में गोते खिलने लगती है। और ये ग़ज़ल उन ग़ज़लों में से है जो भारत और पाकिस्तान के बीच के फासले को लगभग खत्म कर देती है। क्यूंकि पता ही नही चलता के गायक पाकिस्तानी है या भार्तिये। और न ही गुलाम अली साहब कभी पराये देश के लगते हैं। ये ग़ज़ल शायद हर किसीकी पसंद में ज़रूर होगी चाहे वो किसी भी उम्र का क्यों न हो। ये बात और है लोग खुलकर आजकल ग़ज़लों को पसंद करने की बात नही करते उन्हें लगता है की बाकी लोग उन्हें पुराने ख़यालात का समझेंगे..
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