सोमवार, 25 फ़रवरी 2008

न होता मैं तो क्या होता? शिकवा ज़िंदगी से! मिर्जा ग़ालिब

आज फिर से उदास होने का मौका मिला लेकिन जैसा मैंने पहले भी लिखा था की जब मन उदास होता है तो लिखने बैठ जाता हूँ और जब खुश होता हूँ तो लिख देता हूँ।
तो इस मौके पर मिर्जा ग़ालिब की कुछ पंक्तियाँ याद आ गई सोचा लिख लूँ।

न था कुछ -मिर्जा गालिब

न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता।
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता

हुआ जब ग़म से यूं बेहिस, तो ग़म क्या सर के कटाने का
न होता गर जुदा तन से ज़ानों पर धारा होता।

हुई मुद्दत के 'ग़ालिब' मर गया , पर याद आता है।
वो हर पार पर कहना, यूं होता तो क्या होता।

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