कोतुहल मेरे दिमाग में उठता हुआ एक छोटा सा तूफ़ान है.जिसमें में अपने दिल में उठा रही बातों को लिख छोड़ता हूँ.और जैसा की नाम से पता चलता है कोतुहल.
शनिवार, 30 अक्टूबर 2010
बुधवार, 27 अक्टूबर 2010
बुधवार, 29 सितंबर 2010
मंगलवार, 28 सितंबर 2010
शायद अब क़द्र उसको यारों की होगी! त्रिवेणी की कोशिश!
बैठा है तन्हा,
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शायद अब क़द्र उसको यारों की होगी...
रविवार, 26 सितंबर 2010
जिसमे था कोई बुत, कोई इबादत खाना! त्रिवेणी की कोशिश!
रविवार, 18 जुलाई 2010
उनको तो राज़ छुपाना भी नहीं आता! त्रिवेणी की कोशिश!
मंगलवार, 1 जून 2010
गुरुवार, 27 मई 2010
सोमवार, 24 मई 2010
बस स्टॉप और तेरी यादों से रिश्ता! हाल ऐ दिल!
सर-ऐ-शाम तेरी याद......
और नम आँखें...
तेरी यादों से कुछ रिश्ता बाक़ी है अभी......
रविवार, 16 मई 2010
अगर ये फासला ना होता, तो क्या ये मज़ा होता ? त्रिवेणी की कोशिश!
गुरुवार, 13 मई 2010
मैं तेरी यादों से कितना दूर चला आया हूँ। त्रिवेणी की कोशिश!
सोमवार, 10 मई 2010
जाने से पहले ख़ता तो बता जाता। हाल ऐ दिल!
गुरुवार, 6 मई 2010
कम्बख्त बेवफा ना होता, तो मेरे दिल में ही रह रहा होता। हाल ऐ दिल!
शनिवार, 1 मई 2010
और वो मुझे ग़म देता रहा! हाल ऐ दिल!
रविवार, 25 अप्रैल 2010
"कुछ ख्वाब कभी सच नहीं हुआ करते।'' हाल ऐ दिल!
सोमवार, 12 अप्रैल 2010
शुक्रवार, 26 मार्च 2010
रविवार, 28 फ़रवरी 2010
तेरे लबों के बोल, रंगीन हैं, रंगों की तरह! त्रिवेणी की कोशिश!
रविवार, 21 फ़रवरी 2010
रविवार, 31 जनवरी 2010
शुक्रवार, 29 जनवरी 2010
लगता है आज फिर मेरी नमाज़ क़ज़ा होगी। त्रिवेणी की कोशिश!
बुधवार, 27 जनवरी 2010
रविवार, 24 जनवरी 2010
SVM education centre और मैं.
तीन माह से अधिक हो गया है एक N G O में पढ़ते हुए। सोचा था कम रो वैसे भी रहा हूँ, कुछ जन सेवाकर भी कमाकर देखते हैं।
आज से ३ महीना पहले जब मुझसे स्कूल के प्रिंसिपल ने मिल्कात की थी तो कहा तो यही था के यहाँ आपको जन सेवा करने क मौका मिलेगा, जगन आपको हम उतनी सलारी तो नहीं दे पाएंगे जितनी आप पढ़कर फीस लेते हैं मगर कुछ तो ज़रूर देंगे। मिअने भी सोचा लीड इंडिया वालों ने तो बुलाया नहीं चलो यहीं चलकर कुछ दिल बहला लेते हैं।
पहले ही दिन दोपहर के दो बजे के बाद ( जैसा सबको पता है, वक़्त पर पहुंचना मेरे बसकी बात नहीं है) मैंने सेण्टर में क़दम रखा और पहले ही पल मुझे महसूस हुआ के मैं कहाँ आ गया हूँ। मेरे सामने ३ कुर्सियां एक मेरे लिए और दो अन्य छात्रों के लिए और बाकि बच्चों के लिए, दरी। ये बात मुझे अन्दर जाते ही चुभ गयी। ऊपर से मेरे लिए कुर्सी, ये कोई मजाक सा था, क्यूंकि मुझे बैठकर पढ़ने की आदत ही नहीं है। पहले दिन तो जैसे तैसे इसी तरह पढाया मगर अगले ही दिन से मैंने अपनी कुर्सी कमरे से बाहर निकलवा दी, इसी शर्म में बाकी दोनों बच्चों ने भी अपनी अपनी कुर्सियों क त्याग कर दिया। अब हम सभी दरी पर बैठे हैं। जब मेरे बैठे क मन होता है, या कुछ किसी एक या दो बच्चों को समझाना होता है।
जब पढ़ने शुरू किया था, तब केवल १९ नाम ही थे register में ११ या १२ छात्र मौजूद थे कमरे में। लगा मुफ्त में लोगों को शिक्षा पसंद नहीं आती, या शायद शिक्षा मिलती ही ना हो। आज क्लास देखता हूँ तो दिल खुश हो जाता है, २९ बच्चे register और क्लास में।