कोतुहल मेरे दिमाग में उठता हुआ एक छोटा सा तूफ़ान है.जिसमें में अपने दिल में उठा रही बातों को लिख छोड़ता हूँ.और जैसा की नाम से पता चलता है कोतुहल.
बुधवार, 23 दिसंबर 2009
आज वो शख्श भीड़ में भी तनहा नज़र आता है... हाल ऐ दिल!
सोमवार, 21 दिसंबर 2009
रविवार, 20 दिसंबर 2009
शनिवार, 19 दिसंबर 2009
उन्होंने चेहरे पढ़ने क हुनर सीख लिया. हाल ऐ दिल!
शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009
गुरुवार, 17 दिसंबर 2009
अब ज़िन्दगी ने हकीक़त से रूबरू कराया है। त्रिवेणी की कोशिश!
यूँ तमाशा सर-ऐ-महफ़िल तो ना दिखाना था। हाल ऐ दिल!
तुम्हे यूँ लौटकर ना आना था,
टूटा हुआ वो ख़्वाब फिर से तो ना दिखाना था,
मैं यूँही सब्र कर चूका था ज़ालिम,
यूँ तमाशा सर-ऐ-महफ़िल तो ना दिखाना था ।
बुधवार, 16 दिसंबर 2009
सोमवार, 14 दिसंबर 2009
उनसे भी कभी रूठकर देखेंगे हम. त्रिवेणी की कोशिश!
है तमन्ना आज भी,
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उनसे भी कभी रूठकर देखेंगे हम।
रविवार, 13 दिसंबर 2009
लोग ज़ख्म देकर भूल क्यूँ जाते है? त्रिवेणी की कोशिश!
करता है बातें मेरी दवा लेकर आने की,
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लोग ज़ख्म देकर भूल क्यूँ जाते है ?
शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009
कमबख्त होंठ मेरे दिल का साथ नही देते। त्रिवेणी की कोशिश!
और मेरे मुस्कुराने की आदत,
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कमबख्त होंठ मेरे दिल का साथ नही देते।
मंगलवार, 8 दिसंबर 2009
तुम्हारे जाने का यक़ीन नही हुआ! हाल ऐ दिल!
एक sms के,
इंतज़ार में बैठा हुआ हूँ,
फ़ोन की हर सरसराहट पे लगता,
ये कॉल तुम्हारा ही होगा,
जैसे हर रोज़ आया करता था,
तुम्हारे जाने से पहले,
न जाने क्यूँ,
अभी तक,
तुम्हारे जाने का यक़ीन नही हुआ!
अब हम साथ नही हैं। त्रिवेणी!
ख़ता मेरी न बताईये,
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बस याद ये रखिये के अब हम साथ नही हैं।
सोमवार, 7 दिसंबर 2009
तेरे अफसाने भी न! त्रिवेणी!
मुझको रुलाने ये फिर आ गए हैं,
रात भर जगाने ये फिर आ गए हैं,
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तेरे अफसाने भी न दुश्मन मेरे हैं॥
बुधवार, 2 दिसंबर 2009
ज़िन्दगी बेशक़ गुज़रती तन्हाईयों में,कम से कम उम्रभर का दर्द तो न मिला होता। हाल ऐ दिल!
मैं तुझसे मिला न होता,
ज़िन्दगी बेशक़ गुज़रती तन्हाईयों में,
कम से कम उम्रभर का दर्द तो न मिला होता।
मैं जिसको सावन समझता था,
वो मौसम पतझड़ न हुआ होता,
उन खुशबूदार पेड़ों की छाँव में,
वो इश्क का काँटों भरा फूल न मिला होता,
ज़िन्दगी बेशक़ गुज़रती तन्हाईयों में,
कम से कम उम्रभर का दर्द तो न मिला होता।
यूँ सुलगते से बदन न हुए होते,
यूँ तड़पने का मौसम न हुआ होता,
उन सर्द रातों में यूँ जाग जाग कर,
मैंने ज़ालिम तेरा दीदार न किया होता,
ज़िन्दगी बेशक़ गुज़रती तन्हाईयों में,
कम से कम उम्रभर का दर्द तो न मिला होता।
शुक्रवार, 25 सितंबर 2009
तुम चले क्यूँ नही जाते ? : यूँही चलते चलते
शुक्रवार, 18 सितंबर 2009
ख़ंजर! हाल ऐ दिल !
उसने मुझे देखा और ख़ंजर छुपा लिया,
मेरी तरफ देखकर मुस्कुरा लिया,
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लगता है बाकी अब भी है कुछ शर्म उसमे...
हो रहा है जो भी कुछ,इसको ऐसे तो नही होना था। हाल ऐ दिल!
फिर वहीँ खड़ा हूँ उसी दोराहे पर,
फिर सोच रहा हूँ कहाँ जाऊँ,
आज खड़ा इस दोराहे पर,
हो रहा है जो भी कुछ,
इसको ऐसे तो नही होना था!
हूँ बेचारा आज फिर,
हूँ लाचार सा,
देखता हूँ सबको आते जाते,
मगर ख़ुद हूँ बीमार सा,
जाने इंतज़ार है मुझे किस बात का,
हो रहा है जो भी कुछ,
इसको ऐसे तो नही होना था!
डरने लगा हूँ आज मैं एक हवा के झोंके से भी,
करने लगा हूँ बातें ख़ुद से ही क्यूँ?
दिमाग तो रखता हूँ मैं भी "या रब",
पर इसमे कुछ आता नही है क्यूँ?
हो रहा है जो भी कुछ,
इसको ऐसे तो नही होना था!
रविवार, 9 अगस्त 2009
यूँही नहीं कोई, छोड़ के जाता किसीको! हाल ए दिल!
रविवार, 5 जुलाई 2009
फलसफ़ा जिंदगी का, तमाम हो चुका अपना। हाल ऐ दिल
गुरुवार, 2 जुलाई 2009
मंगलवार, 30 जून 2009
क्या बस यही बाकी है, नसीब में मेरे? हाल ऐ दिल!
ज़रा ज़रा सी बात पे, यूँ रूठना तेरा,
फिर ज़रा पल्लू, सँभालते हुए चलना,
और वो कहना तेरा, मुँह बनाते हुए,
"अब न आउंगी, चाहे हाथ जोड़ो मेरे"
वो मेरा मुस्कुराकर, हाथ तेरा पकड़ना,
खींचना ख़ुद की तरफ़, आगोश में लेना,
और कहना दिल की बात, कान में तेरे,
"अब न जाने दूंगा, चाहे हाथ जोड़ो मेरे"।
कल रात, याद, तेरी बात को, करता रहा यूँही,
और न सो पाया, करवटें लेते लेते,
फिर वो आँखों में नमी,
और आंसुओं के रेले,
क्या बस यही बाकी है,
नसीब में मेरे?
शुक्रवार, 8 मई 2009
गर्व से कहो हम पप्पू हैं.
पर इस प्रकार से पप्पू बनने के बाद भी हमने सोचा के क्यूँ न इस बात का ऐलान भी कर दिया जाए। जो जो भाई जो लोग भी मेरी तरह न चाहते हुए भी पप्पू बने हैं तो ज़रा ज़ोर से बोले। गर्व से बोलो " हम पप्पू हैं ", ज़ोर से बोलो "हम पप्पू हैं।"
रविवार, 19 अप्रैल 2009
तुझे देखकर बेईमान दिल ये मेरा! हाल ऐ दिल!
यूँही बैठा हुआ इस तपते सूरज को देख रहा था, और दुआ करने लगा के बारिश हों जाए। अब ये तो मुझे भी पता है के बारिश अपने वक्त पर ही होती है मगर दुआ भी सुना है कुछ असर रखती है। तो इसी लिए दुआ करता रहता हूँ। मगर इस बारिश के ज़िक्र के साथ कुछ यादें भी तो जुड़ी हैं। आज चंद लाइन उसी बारिश के नाम लिख रहा हूँ। उम्मीद है आपको पसंद आएँगी।
बारिश की ठंडी बूँद ने जब मेरे हाथ को छुआ,
यूँ लगा के तेरे हाथ से टकरा आया हो हाथ मेरा।
चलने लगी जो ठंडी हवा और उड़ने लगी,
बादलों के कतार जब आसमान में,
यूँ लगा तेरी जुल्फें लहरा रही हों,
जिनसे टकरा गया हों चेहरा मेरा।
ज़माना जब कह उठा,
के बादलों को देखो तो आज,
यूँ लगा के जैसी किसी ने रुख़ से,
हटा दिया हों नक़ाब तेरा.
हों जाता है मौसम ये बेईमान सा,क्यूँ कभी?
महकने लगती है साँसे, उस खुशबू से क्यूँ?
और क्या वजह है के हों जाता है,
तुझे देखकर बेईमान दिल मेरा?
शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009
ये जनाज़ा है एक आशिक का जो अब नहीं रहा। हाल ऐ दिल!
जैसे अब मैं उनके दिल का हिस्सा नहीं रहा,
चाहता रहा जिस शख्स को उम्र भर,
वो कह के चल दिया, " अब वास्ता नहीं रहा"।
हज़ार ख़्वाब देख दिए थे जिसकी ख़ातिर,
खो बैठा था अपना हवास भी मैं
,वो जिसको सोचता था सुब्हो-शाम, हर पल,
वो यूँ गया जैसे, गया वक़्त नहीं रहा।
है कहाँ मुमकिन उसे यूँ भूल जाना,
है कहाँ आसन ना याद करना उसे,
वो है मेरी साँसों में शामिल,
जिसके दिल में अब ये नादाँ नहीं रहा।
कल जब सुबह उठो, तो ज़रा झांक लेना खिड़की से,
सुन लेना आवाजें जो कभी तुम्हे बेचैन कर जाएँगी,
हो सके तो पूछ भी लेना बाहर गुज़रने वालों से,
जवाब यही मिलेगे पूछने पर तुम्हे,
"ये जनाज़ा है एक आशिक का जो अब नहीं रहा।"
शनिवार, 4 अप्रैल 2009
दिल में जलने का अरमान न रह जाए! चार लाइन!
के बात कुछ तो आज हो ही जाए,
कभी हम हँसे और कभी वो मुस्कुराये,
हो अगर सितम दिल पर, चलो ये भी सही,
के दिल में जलने का अरमान, रह न जाए।
मंगलवार, 24 मार्च 2009
घर कल रात को तुमने उजाड़ा है। हाल ऐ दिल!
फिर कोई लगता है आज परेशां हो के आया है।
ज़रा संभल चल रहा है आज वो इस जगह,
जो तेरी दहलीज़ पे बरसों आया है।
यूँही तमन्नाओं का खामियाज़ा भुगत रहा है दिल,
जो इस तरह आज ज़रा ख़ामोश और मुरझाया है।
क्यूँ परेशां हो रहे हो देख दर्द उनका जनाब,
जिनका घर कल रात को तुमने उजाड़ा है।
बुधवार, 4 फ़रवरी 2009
क्या लेखक का एक मात्र मकसद ये है कि उसकी कोई किताब छपे? एक प्रश्न!
शायद इसका कारण ये होगा के आपको धन लाभ की उम्मीद कम होती है इन्टरनेट पर।
मगर क्या वाकई ऐसा है? मैं इस बात पर साथियों के विचार जानना चाहूँगा।
क्या जूते मारना, विरोध करने का अच्छा तरीका है? एक प्रश्न!
मगर आज अचानक सवाल मन में आया तो सोचा पूछ ही लूँ कि क्या विरोध में जूते मारना विरोध का अच्छा तरीका है?
मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009
धन्यवाद! डॉ. अनुराग साहब!
ये पोस्ट उस व्यक्ति के नाम लिख रहा हूँ जिनको आज फिर पढ़कर लिखने का मन करने लगा है। डॉ अनुराग एक जाना माना नाम हैं हमारे इस ब्लॉगजगत में और अब ये मेरा प्रेरणा पात्र भी बन गए हैं। पिछले काफ़ी समय से न जाने क्या हो रहा है। बार बार कोशिश करता हूँ लिखने की, कुछ लिखता हूँ, कभी अधूरा छोड़ देता हूँ, तो कभी उसे डिलीट कर देता हूँ। मगर आज न जाने क्या हुआ के डॉ अनुराग की पोस्ट पढने के बाद ऐसा लगा मानो उन्होंने मेरे ही मन की कोई बात ब्लॉग पर उतार दी हो और अब फिर से मन करने लगा है के कुछ लिखूं। वैसे धन्यवाद तो मैं उन्हें टिप्पणी के द्वारा भी दे चुका हूँ मगर फिर सोचा जब लिखना है ही तो क्यूँ न उनको धन्यवाद ही लिख दूँ।
तो धन्यवाद डॉ अनुराग साहब एक बार फिर से।
शुक्रवार, 30 जनवरी 2009
न जाने किन गुनाहों का मुझसे हिसाब कर गया। हाल ऐ दिल!
कल वो फिर कोई अधूरी बात कर गया,
वो जा रहा था पर जाते जाते मेरी काली रात कर गया।
यूँही करवट बदलते फिर गुजरी मेरी रात ऐसे,
न जाने किन गुनाहों का मुझसे हिसाब कर गया।
अब आज फिर दुबारा इंतज़ार हो रहा है उसका,
वो अपने इंतज़ार को मेरी ज़िन्दगी के साथ कर गया।
वो जो कभी ज़िन्दगी था मेरी,
आज मेरी ज़िन्दगी बरबाद कर गया।
गुरुवार, 29 जनवरी 2009
काश ज़िन्दगी भी क़ायदों पे चला करती! हाल ऐ दिल!
शुरू में लिखी बात आख़िर तक चला करती।
काश होता सबको पता अंजाम, क़ायदों के तोड़ने का क्या होगा,
काश इन क़ायदों के टूटने पे, सज़ा भी मिला करती।
न करता फिर कोई कोशिश, तोड़ने की दिल किसीका,
और न फिर कहीं किसीके, रोने की आवाज़ आया करती।
काश ज़िन्दगी भी क़ायदों पे चला करती,
शुरू में लिखी बात आख़िर तक चला करती।
यूँ कभी न रोता कोई बच्चा, भूख से उठकर,
न कोई बच्ची भूख से रोते हुए, सो जाया करती।
काश ज़िन्दगी भी क़ायदों पे चला करती,
शुरू में लिखी बात आख़िर तक चला करती।
पर ये काश भी अजीब दर्द रखता है,
जो न हो सके वही बात दबाकर रखता है,
बाद में आता है दिलाने, गलती का ये एहसास हमको,
काश इसको इस बात की, सज़ा भी मिला करती।
काश ज़िन्दगी भी क़ायदों पे चला करती,
शुरू में लिखी बात आख़िर तक चला करती।
शनिवार, 24 जनवरी 2009
जावेद मियांदाद और किरण मोरे का मज़ेदार किस्सा!!! यूँही चलते चलते
बुधवार, 21 जनवरी 2009
अब बहसियाने के भी पैसे!!! यूँही चलते चलते!!
और जमके बहस करें।
मंगलवार, 20 जनवरी 2009
फिर ख़ुद ही दबी चाहत को, जताने लगे हैं यूँ!!!!! हाल ऐ दिल!
यूँ जगने लगी है तमन्ना, फिर से न जाने क्यूँ?
आने लगा है याद कोई, मुझको न जाने क्यूँ?
जाने क्या बात हुई के, फिर मुस्काने लगा हूँ मैं,
हँसते हँसते आँख में आंसू, आने लगे हैं क्यूँ?
है यूँ तो हर तरफ़ महफिल, का सा माहौल,
फिर भरी महफिल में हम, इतराने लगे हैं क्यूँ?
होने लगा है फिर ये दिल, बेक़रार सा,
हम इस बेक़रारी का मज़ा, उठाने लगे हैं क्यूँ?
सोचा न था आयेगा, फिर से ये दौर, ज़िन्दगी में,
अब आ ही गया तो इतना, घबराने लगे हैं क्यूँ?
लगता है फिर से नदीम मियाँ, चाहने लगे हैं किसी को,
या फिर ख़ुद ही दबी चाहत को, जताने लगे हैं यूँ!!!!!