आज किसी ने देहरादून जाने का ज़िक्र छेड़ दिया। और फिर से पंडितजी का चेहरा मुझे याद आगया।
उनका चेहरा आज भी निगाहों से जाता नही है। वो सर्दी की एक रात उसपर देहरादून का कुछ ठंडा सा मौसम अचानक मन हुआ उनसे मिल आऊँ, ये सोचकर अपना शाव्ल उठाया और उसे लपेटकर उनके घर की ओर चल दिया। जाते जाते मन में ये विचार उठने लगा कि किस प्रकार ऐसे लोग अपनी ज़िन्दगी बिताते हैं, अपने परिवार से अलग होकर। सोचते-सोचते ही उनका घर आ गया. थोडा खांसने के बाद उनके घर में क़दम बढाया, हालांकि खांसना कोई ज़रूरी नहीं था क्यूंकि पता था की उनके घर में कोई महिला नहीं होगी, मगर जैसे की बचपन की आदत है कर दिया. अन्दर जाने के बाद उनके कमरे में दाखिल हुआ, जहाँ वो अक्सर बैठा करते थे. जाकर देखा तब वो सो रहे थे, मगर उनकी आखें थोडी सी खुली हुई थी, सोच कि अक्सर कमजोरी में ऐसा हो जाया करता है।
फिर ये सोचकर कि उन्हें उठाना सही नही होगा, मैंने वहीं बैठने का निश्चय किया। तभी मेरी नज़र उनके हाथ में रखी उस तस्वीर की और चली गई, जिसमें वो थे साथ में उनकी धरम पत्नी थी जिनकी तस्वीर वो पहले भी मुझे दिखा चुके थे। हाँ एक चेहरा उसमें नया था जिसको के मैंने पहले नही देखा था, मगर जिस प्रकार से उनकी एक तिरछी नज़र उस चेहरे पर जा रही थी तो ऐसा लग रहा था कि वो उनका बेटा ही होगा। मतलब इस तस्वीर के अन्दर एक भरा पूरा परिवार था। मगर ये तस्वीर आज अचानक उनके हाथों में क्या कर रही थी ये सवाल मन में उठ खड़ा हुआ मगर फिर सोचा कि उनका मन कर रहा होगा उसे देखने का। तो देख लिया। इसी बीच उनका नौकर आगया. और अब वो भी मेरे ही पास में बैठ गया.
उनकी खुली हुई आंखें लगातार पंखे को निहार रही थी जो कि सर्दी के कारण बंद पड़ा हुआ था। ऐसा लग रहा था मानो अपनी यादों के समंदर में गोते लगा रहे हों। अब मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने उनके नौकर से ही उनके बारे में पूछने का मन बना लिया। नौकर बोला "आखिर क्या नही था उनके पास उनकी पत्नी, उनका बेटा और एक अच्छी सी सरकारी नौकरी जिसकी तनख्वाह इतनी थी जिससे उन्होंने अपना एक घर बनाया और अपने बेटे को पढ़ा लिखकर उन्होंने डॉक्टर बनाया। पत्नी ऐसी कि यदि रूखी सूखी भी मिल जाए तो आह न करे, और अपने पति की हाँ में हाँ मिलाती रहे, स्वाभाव से धार्मिक किसी भी आम भारतीये महिला कि तरह, मगर हाँ अपने बेटे के लिए कुछ भी कर गुज़रे। पहले तो पंडित जी अपनी पत्नी की ही बिमारी से परेशान रहा करते थे मगर बुरा हो इस ह्रदय रोग का जिसने उन्हें भी अपनी गिरफ्त में ले लिया।" ये कहकर नौकर चुप हो गया और में अभी भी उसे देख रहा था.
मगर उसने दुबारा बोलना शुरू किया "अब उनके पास अपनी पत्नी के अलावा भी एक शख्स बढ़ गया फिक्र करने के लिए, मगर ये सोचकर दिल को तसल्ली दे दिया करते थे कि बेटा डॉक्टर बनकर आने वाला है। उनकी उम्मीदों पर तब पानी फिर गया जब पता चला कि बेटे को बंगलोर में किसी बड़े अस्पताल में नौकरी मिल गई है, मगर फिर सोचा की कम से कम बेटा तरक्की तो कर ही रहा है, यहाँ देहरादून के इस छोटे से गाओं में आकर उसे क्या मिल जाता, और वो भी अपने ही पिता की ही तरह एक साइकिल चलाते चलाते बुड्ढा हो जाएगा। मगर दिल के हालात तो केवल वो ही जानते थे, अपनी पत्नी की गिरती हुई सेहत को वो कब तक देख पाते, और इलाज भी अगर करायें तो भला कहाँ से क्यूंकि अपनी ज़िंदगी भर की कमाई तो बेटे को डॉक्टर बनाने में लगा दी थी। वो तो भला हो उनके पड़ोसी और उनके बेटे के बचपन के दोस्त का जिसने उनके बेटे को इस बारे में सूचना दे दी। एक दिन अचानक उनके बेटे का फ़ोन आया की वो अब अपनी क्लिनिक गाओं में ही बनाएगा और वहीं उनके साथ रहेगा भी। पंडित जी, आख़िर अंधे को क्या चाहिए एक आँख ख़ुदा ने तो उन्हें दोनों ही देने का मन बना लिया था। अब पंडित जी लगातार उस दिन का इंतज़ार करने लगे कि कब वो सुबह हो और कब उनका बेटा उनसे मिलने और साथ रहने के लिए आए। " नौकर ने आगे कहना शुरू किया
"इसी इंतज़ार में वो दिन भी आगया जब उनके बेटे को गाओं में लौटना था, मगर उस दिन उपरवाले को शायद कुछ और ही मंज़ूर था, खबर आई की जिस बस में उनका बेटा घर वापस लौट रहा था उसकी दुर्घटना हो चुकी है और वो बस एक गहरी खाई में जा गिरी है, किसी के बचने की भी उम्मीद कोई नहीं थी। अब ये सूचना पंडित जी तो दिल पर पत्थर रखकर सह गए और सोचने लगे कि ये ख़बर किस प्रकार से अपनी पत्नी को सुनाएं, जबकी उनकी पत्नी तो पहले ही काफ़ी बीमार थी, मगर कहते हैं न माँ को अपने बच्चे के हर दुःख दर्द की ख़बर लग ही जाती है। लगता है ऐसा ही कुछ हुआ। जब पंडित जी अपनी पत्नी के कमरे में पहुंचे तो वहाँ का द्रश्य देखकर उनके पाऊँ के नीचे की ज़मीन सरक गई। उनकी पत्नी अब इस दुनिया में नही थी।" इतना कहना था और नौकर की आँखों के आँसू, आँखों से बाहर झांकते दिखाई दे गए.
मैं तो ये सोचकर ही हैरान रह गया कि किस प्रकार एक इंसान इतने बड़े सदमे को सह सकता है, अपने जीवन भर की पूँजी अपनी औलाद और अपनी जीवन संगिनी
को एक साथ खोने के बाद इंसान कैसा महसूस कर सकता है, शायद मैं इसकी कल्पना भी नही कर सकता। मुझे तो ये सुनकर ऐसा लगो मानो पंडितजी को किसी ने ठग लिया हो!
और फिर से सवाल मेरी ज़बान से निकला कि उनका नौकर बोलने लगा " इसके
कुछ दिन बाद से मैं पंडितजी के साथ रहने लगा तब से उनका ध्यान मैं ही रखता हूँ।" फिर मैंने पूछा कि इस बात को कितने दिन हो गए हैं तो उसने जवाब दिया " आज इस बात को पूरे पाँच साल बीत गए।"
नौकर का ये जवाब सुनकर उनके हाथ में रखी तस्वीर का कारण समझ आने लगा। इतनी बात करते करते काफी देर हो गयी और नौकर पंडितजी को उठाने के लिए खडा हो गया बोला " ये समय पंडितजी की दवा खाने का है." उसने जैसे ही पंडितजी का कन्धा हिलाया, वैसे ही उनकी गर्दन दूसरी और गिर गयी इतना देखते ही मुझे ये एहसास हो गया की अब पंडितजी भी इस दुनिया में नहीं रहे. मगर हाँ अब भी उनके हाथों में रखी तस्वीर उनके हाथों में जकड गयी थी मानो कह रही हो मुझे इनसे अलग मत करो. आखिरकार अब तो ये दिन आया है कि पंडितजी अपने बेटे और पत्नी के साथ में रह सकेंगे................