उसकी ख्वाहिश थी कुछ तो अलग करने की,
इस तरह चलने की और भीड़ से अलग लगने की,
शायद कुछ और ही मंज़ूर ख़ुदा को रहा होगा,
आज वो शख्श भीड़ में भी तनहा नज़र आता है...
कोतुहल मेरे दिमाग में उठता हुआ एक छोटा सा तूफ़ान है.जिसमें में अपने दिल में उठा रही बातों को लिख छोड़ता हूँ.और जैसा की नाम से पता चलता है कोतुहल.
तुम्हे यूँ लौटकर ना आना था,
टूटा हुआ वो ख़्वाब फिर से तो ना दिखाना था,
मैं यूँही सब्र कर चूका था ज़ालिम,
यूँ तमाशा सर-ऐ-महफ़िल तो ना दिखाना था ।
मुझको रुलाने ये फिर आ गए हैं,
रात भर जगाने ये फिर आ गए हैं,
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तेरे अफसाने भी न दुश्मन मेरे हैं॥