कोतुहल मेरे दिमाग में उठता हुआ एक छोटा सा तूफ़ान है.जिसमें में अपने दिल में उठा रही बातों को लिख छोड़ता हूँ.और जैसा की नाम से पता चलता है कोतुहल.
गुरुवार, 25 दिसंबर 2008
फिर कोतुहल
इधर बात मैं कुछ अपनी कर रहा था। ख़ैर जाने दो।
वैसे ये पोस्ट इस बात के लिए ज़्यादा है के किसी तरह फिर से लिखने की आदत पड़ जाए।
गुरुवार, 18 दिसंबर 2008
अब इराकियों को अफ़सोस होगा क्रिकेट न खेलने का!
और सलाह अमेरिकी राष्ट्रपति को के इस आर्थिक मंदी के दौर में लोगों को करोड़ों कमाने का मौका दें। भला जहाँ काम धंदे चौपट है वह कम से कम जूता उद्योग को तो तरक्की का मौका मिलना ही चाहिए।
सोमवार, 8 दिसंबर 2008
आओ ज़रा खुद से बात करें दोस्तों! हाल ऐ दिल!
आओ ज़रा खुद से बात करें दोस्तों,
अपने गुज़रे वक़्त को याद करें दोस्तों।
के पाया तो है बहुत, हमने ज़िन्दगी में,
जिनकी वजह से पाया, उन्हें याद करें दोस्तों।
गुज़रता वक़्त भी ये हमें, पीछे छोड़ जायेगा,
हम जिनको छोड़ आये हैं, उनकी बात करें दोस्तों।
ज़माना यूँ भी तो, हमारा नही था कभी,
हम जिनके थे ज़रा, उनसे मुलाक़ात करें दोस्तों।
ख्वाहिशें हमारी हैं, ज़रा मासूम सी अभी तक,
अपनों की भी ख्वाहिशों का, ख्याल करें दोस्तों।
बुधवार, 3 दिसंबर 2008
ये ज़िन्दगी अदब को आदाब नही देती। हाल ऐ दिल !
कुछ लिखता हूँ, तो कलम साथ नही देती,
चलता हूँ कभी उठकर, अपने घर की तरफ़ जब भी,
क़दम तो चलता है, पर राह साथ नही देती।
करने लगा हूँ शिकायत, ख़ुद से मैं आज फिर,
हर सज़ा जो दी है ख़ुद को, वो राहत नही देती।
है हैरान वो भी, मुझको देखकर,
जिनसे मेरी बरसों तक, बात नही होती.
अच्छी थी या जैसी भी थी, थी मेरी ज़िन्दगी,
फिर इंतज़ार में खड़ा हूँ, पर आवाज़ नही देती।
होता है कभी मुझको भी ग़म, दूर जाने का,
क्या हो गया, के करीब वालों से भी अब बात नही होती।
मंज़र तबाही का, मेरा देखा तो था सबने,
क्यूँ फिर भी उसके कलेजे को राहत नही होती?
आदाब ज़िन्दगी के सीखे तो बहुत,
पर ये ज़िन्दगी, अदब को आदाब नही देती।
सोमवार, 1 दिसंबर 2008
क्या ज़िन्दगी यही है? एक सवाल!
आज सोमवार है और मैं फिर से अपने clients से appointments ले रहा हूँ। और साथ ही साथ अपने ऑफिस को रिपोर्ट भी कर रहा हूँ। मुंबई दहला, हमने कुछ खामोशी अपनाई, उसपे नज़र बनाई, कुछ दुखी हुए और देखते रहे। और आज से फिर से सभी की ज़िन्दगी उसी पुराने ढ़र्रे पर चल पड़ी है। हम सभी ज़िन्दगी की तरफ़ चल पड़े हैं। और एक सवाल मेरे मन में उठ खड़ा हुआ है।
क्या ज़िन्दगी यही है?