यूँ सोचता हूँ के कभी मिलूँ,
तुझसे अचानक कहीं,
खौफ़ बस इतना है,
के तू कहीं शर्मिंदा ना हो जाये।
कोतुहल मेरे दिमाग में उठता हुआ एक छोटा सा तूफ़ान है.जिसमें में अपने दिल में उठा रही बातों को लिख छोड़ता हूँ.और जैसा की नाम से पता चलता है कोतुहल.
तीन माह से अधिक हो गया है एक N G O में पढ़ते हुए। सोचा था कम रो वैसे भी रहा हूँ, कुछ जन सेवाकर भी कमाकर देखते हैं।
आज से ३ महीना पहले जब मुझसे स्कूल के प्रिंसिपल ने मिल्कात की थी तो कहा तो यही था के यहाँ आपको जन सेवा करने क मौका मिलेगा, जगन आपको हम उतनी सलारी तो नहीं दे पाएंगे जितनी आप पढ़कर फीस लेते हैं मगर कुछ तो ज़रूर देंगे। मिअने भी सोचा लीड इंडिया वालों ने तो बुलाया नहीं चलो यहीं चलकर कुछ दिल बहला लेते हैं।
पहले ही दिन दोपहर के दो बजे के बाद ( जैसा सबको पता है, वक़्त पर पहुंचना मेरे बसकी बात नहीं है) मैंने सेण्टर में क़दम रखा और पहले ही पल मुझे महसूस हुआ के मैं कहाँ आ गया हूँ। मेरे सामने ३ कुर्सियां एक मेरे लिए और दो अन्य छात्रों के लिए और बाकि बच्चों के लिए, दरी। ये बात मुझे अन्दर जाते ही चुभ गयी। ऊपर से मेरे लिए कुर्सी, ये कोई मजाक सा था, क्यूंकि मुझे बैठकर पढ़ने की आदत ही नहीं है। पहले दिन तो जैसे तैसे इसी तरह पढाया मगर अगले ही दिन से मैंने अपनी कुर्सी कमरे से बाहर निकलवा दी, इसी शर्म में बाकी दोनों बच्चों ने भी अपनी अपनी कुर्सियों क त्याग कर दिया। अब हम सभी दरी पर बैठे हैं। जब मेरे बैठे क मन होता है, या कुछ किसी एक या दो बच्चों को समझाना होता है।
जब पढ़ने शुरू किया था, तब केवल १९ नाम ही थे register में ११ या १२ छात्र मौजूद थे कमरे में। लगा मुफ्त में लोगों को शिक्षा पसंद नहीं आती, या शायद शिक्षा मिलती ही ना हो। आज क्लास देखता हूँ तो दिल खुश हो जाता है, २९ बच्चे register और क्लास में।