हिन्दी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
हिन्दी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 27 अक्टूबर 2008

हर प्रदर्शन में है इंडियन रेलवे की भूमिका!

वो चाहे गुर्जरों का आन्दोलन हो, बाबा राम रहीम के ख़िलाफ़ गुस्सा हो, राज ठाकरे के गुंडों की गुंडा गर्दी हो या बिहार में उस गुंडागर्दी का विरोध। इन सभी में एक बात समान है और वो है भारतीय रेल।
एक बात समझ नही आती के सबका गुस्सा रेलवे पर ही क्यूँ टूटता है?
कर्नल बैसला को गुस्सा आया तो वो रेल की पटरियों पे जाकर बैठ गए, उनके साथियों ने रेल की पटरियाँ उखाड़ डाली। और तो और इतने लंबे चले आन्दोलन में बहुत सी ट्रेने रद्द हुई और हजारों लोगों को परेशानी उठानी पड़ी।
वही जब बाबा राम रहीम लोगों ने एक समुदाय विशेष पर गोलियां चलायी तो इसके विरोध में भी लोगों ने ट्रेन में बैठे लोगों पर ही अपना गुस्सा निकला और रेलवे की संपत्ति तोडी गई।
फिर बारी आई राज के गुंडों की और उन्होंने भी रेल में गुस्कर उत्तर भारतियों को निशाना बनाया और स्टेशन पर तोड़ फोड़ की। साथ ही रेलवे की परीक्षा में बाधा भी पहुंचाई जिसका सीधा असर रेलवे को होगा।
अब समय था इस का विरोध करने का तो वहां तो हद ही हो गई , रेल का इंजन ही लेकर रवाना हो गए। स्टेशन तोडा और रेलवे करमचारियों और संपत्ति को नुक्सान पहुँचाया गया।
ऐसे कई उदाहरण है जब तब भारतीय रेल लोगों के गुस्से का शिकार बनी जब इसका उसमें कोई हाथ नही था।
इसमें एक मजेदार बात ये है की भारतीय रेल हम सभी की ज़िन्दगी से जुडा हुआ है। हम सभी को इसकी ज़रूरत है मगर अपना गुस्सा भी हम इसी पर ही क्यूँ निकालते हैं।
क्यूँ भारतीय रेल के अधिकारी नुक्सान पहुँचने वाले लोगों से इसका हर्जाना नही वसूलते? क्या ऐसा नही होना चाहिए कि जिस गुट विशेष या दल विशेष की वजह से नुक्सान हुआ है उन्ही से इसके नुक्सान की भरपाई करायी करायी जाए?

क्या कोई इस बारे में मुझे समझाने की कोशिश करेगा।

बुधवार, 17 सितंबर 2008

ए मेरे ख़ुदा अब दे, तो मौत से कम ना दीजो! हाल ऐ दिल!

मुझे तलाश है, ख़ुद के मिल जाने की,
टूट कर फिर, फिज़ाओं में बिखर जाने की।

ना रोकना मुझको, ए आसमान, आज तू उड़ने से,
के फिर तमन्ना हुई है, ख़ुदा से मिलके आने की।

ना जाने कहाँ, खो गया हूँ मैं आजकल,
ना पता ख़ुद का है, और ना है खबर ज़माने की।

कहने लगे हैं मुझसे, यूँ लोग भी अब ,
क्या ज़रूरत थी ख़ुदा को, तुझे बनाने की।

मेरी ज़िन्दगी ख़ुद, मुझ पर एहसान थी ये,
मुझ पर ही है तोहमत, इसे बोझ बनाने की।

ए मेरे ख़ुदा अब दे, तो मौत से कम ना दीजो,
यही आखिरी दुआ है, तेरे इस दीवाने की।

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

करता है सब के सामने सौदा मेरे ईमान का! हाल ऐ दिल!

करता है सब के सामने सौदा मेरे ईमान का,
मैं करता हूँ मना उसको, तो कहता है तू है कौन?
वो है कोई हाकिम, कोई गुनाहगार है कभी,
मैं कहता हूँ उस से मान जा, कहता है तू है कौन?

जाता है कभी मार आता है किसीको,
लिखता है वहाँ नाम मेरा नामुराद वो,
सब कहते है मुझे, ये होगा शामिल कहीं उसमें,
मैं करता हूँ मना उनको, तो कहते हैं तू है कौन?

मैं करता हूँ जब अफ़सोस किसी की तबाही पर,
लोगों को नज़र आते हैं आंसू मेरे झूठे,
सब कहते हैं दिल ही दिल में खुश हो रहा है ये,
मैं करता हूँ मना उनको, तो कहते है तू है झूठ।

फिर सोचता हूँ, क्यूँ कर कहते हैं मुझे भाई ये लोग अपने?
क्यूँ जताते हैं मुहब्बत जब देखते हैं मुझे तड़पता?
क्या उनको नही दिखाई देता मैं साथ में उनके खड़े?
क्या उनको मेरा, ये दर्द सुनाई नही देता?
हैंरान होता हूँ जब दुद्कार दिया जाता हूँ अपनों के ज़रिये मैं,
क्या उनको मुझमे और कातिलों में कोई फर्क नही दिखता?

मेरा काम इशारा देने का था। जो मैं दे दिया। क्या करूँ शब्दों की कंगाली से जूझ रहा हूँ।

शनिवार, 23 अगस्त 2008

हाईकोर्ट की ग़लती क्या है? वकीलों को दी गई सज़ा या बार कौंसिल के कार्य में हस्तक्षेप?


मेरे कल और परसों के लेख पर कईं साथियों का साथ मिला और इस पर मुझे कुछ जानकारियों से भरे मेल भी प्राप्त हुए। मुझे बताया गया कि उच्च न्यायालयों को सज़ा सुनाने का अधिकार ही नही है। और किसी वकील के कार्य पर केवल बार कौंसिल ही फैसला ले सकता है। हालांकि बात मेरे गले आसानी से नही उतरती मगर क्यूंकि मैं कानून का कोई जानकार नही हूँ तो इस पर बहस नही कर सकता। मगर मैं वकील बिरादरी से ये पूछना ज़रूर चाहूँगा कि क्या उनकी परेशान ये है कि हाई कोर्ट ने उनके कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप की कोशिश की या ये कि उनके साथियों को सज़ा दी गई? क्या एक दिन की गेरहाज़री से अपना पक्ष रखने की बजाये वो हाई कोर्ट के इस फैसले जिसमें बकौल बार कौंसिल हाई कोर्ट ने उनके कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप किया है के ख़िलाफ़ कोई अपील दायर नही कर सकते थे जिससे कि देश की जनता तक एक सही संदेश जाता। और वो ख़ुद कोई ऐसी पहल क्यूँ नही करते जिससे भ्रष्ट वकीलों पर कार्यवाही हो सके।
और एक बात जिसपर कोई वकील तो कम से कम बात शायद नही करना चाहता कि आख़िर उन्हें जो सज़ा दी गई है क्या वो काफ़ी है? जब एक इंसान जो छोटी मोटी गलतियां करता है जाने या अनजाने में तो उसे बड़ी बड़ी सजाएं दी जाती है तो वहां केवल ४ माह की अदालत में घुसने पर पाबंदी और २०००/- रु मात्र का जुर्माना क्या दिखता है?
क्या वकीलों को ये दिखाई नही दे रहा और इस प्रकार के इन्साफ के खिलाफ वो कुछ क्यूँ नही करते। क्यूँ पहल नही करते कि इन और इन जैसे वकीलों को कदा दंड दिया जाए? क्यूँ नही इसको एक मुहीम बनाया जाता?

शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

क्यूँ वकीलों से भिड रहे हो जज साहब? इनकी ग़लती कहाँ है? ग़लती तो आपकी है, जो इन्हे ग़लती की सज़ा दे रहे हो!


बचपन में एक कहावत सुनी थी कि उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। मगर यहाँ ये कहावत कुछ ऐसी लग रही है कि उल्टा वकील जज को डांटे। क्यूंकि कल ऐ यु खान और आर के आनंद पर जो दिल्ली हाई कोर्ट का फ़ैसला आया है उसके बाद ऐसा मालूम हुआ मनो किसीने इनकी दुम पर पैर रख दिया हो। बजाये इसके कि ख़ुद शर्मिंदा होते कि पिछले १५ महीनो में उन्होंने जिस केस को दबाकर रखा था उसपर कोर्ट ने फ़ैसला सुना दिया। जो फ़ैसला पहले बार कौंसिल को करना चाहिए था उसे कोर्ट को करना पड़ा। होना ये चाहिए था कि इस फैसले के बाद शर्मिंदा होते उन्होंने तो अदालत के अधिकार पर ही ऊँगली उठा दी। होना ये चाहिए था कि इन दोनों कानून के सौदागरों के ख़िलाफ़ और भी कड़ी सज़ा की माँगा करते उन्होंने इसके विरोध में ख़ुद खड़े होने का मन बना लिया। क्या बात है वकील बिरादरी! मुबारक हो आपको। ना जाने क्यूँ इसके बाद मुझे ऐसा लग रहा है कि कहीं इन दोनों को बचाने की कोशिश इस लिए तो नही हो रही क्यूंकि ऐसा काफ़ी वकील करते हो। वो भी इसी प्रकार बचाव और सरकारी पक्ष मिलकर आरोपियों को बचाने का "धंधा " करते हो।
और मैं धन्यवाद देना चाहूँगा उन साथियों का जिन्होंने मेरे इस ख़याल के ये सज़ा जो इन लोगों को मिली है कम है में मेरा समर्थन किया है।

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

कानून की धज्जियाँ उडाने का इनाम : चार माह की छुट्टी और मात्र २०००/-रु का जुर्माना!


आज सुबह से देश के तमाम ख़बरिया चैनल्स वरिष्ठ वकीलों और कानून की धाज्जियाँ उड़ने वाले आर के आनंद और ऐ यू खान को दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा सुनाई गई चार माह और दो हज़ार रु के जुर्माने पर ख़बर चला रहे हैं। क्या ये सज़ा काफ़ी है? इस बारे में विचार क्यूँ नही किया जा रहा। आम तौर पर यदि कोई आम नागरिक कानून को ग़लती से भी तोड़ता है तो उसे लम्बी और कड़ी सजाएं सुनाई जाती हैं जबकि उसको कईं बार अपनी हरकत के बारे में पता ही नही होता कि उसने कोई कानून तोडा भी है या नही। मगर यहाँ तो देश को दो जाने माने अधिवक्ता थे जिन्हें कानून और उसकी सज़ाओं के बारे में पूर्ण जानकारी थी। मगर फिर भी उन्होंने एक साजिश रचने की कोशिश की। क्या उन्हें और बड़ी और कड़ी सज़ा नही मिलने चाहिए थी। मैं माननिये अदालत का सम्मान करता हूँ, मगर क्या उनकी इस हरकत पर अदालत की तौहीन का एक और मामला न चलाकर उन्हें जेल में नही डाल देना चाहिए था, जिससे एक बड़ी मिसाल कायम होती। ये तो बात रही जहाँ एक बड़ा मामला था और जहाँ हर बार मीडिया की एक भीड़ इस मामले को कवर कर रही है। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस प्रकार छोटे छोटे शहरों में जहाँ कोई स्टिंग ऑपरेशन करने के लिए मीडिया मौजूद नही होती वहाँ ये वकील किस प्रकार से गवाहों को खरीदते और बेचते होंगे या डरा धमका कर आरोपियों को बचाते होंगे।
दरअसल ये मसला है संजीव नंदा नाम के एक युवक का जिसने सन् १९९९ में ७ लोगों को अपनी गाडी के नीचे कुचल दिया था। जिसमें ६ लोग मारे भी गए थे। वही मामले के तीन दिन बाद एक युवक सामने आया जिसने ख़ुद को मामले का चश्मदीद बताया। अभी ये मामला निचली अदालत में चल ही रहा था कि ये स्टिंग ऑपरेशन सामने आया जिसमें पाया गया कि किस प्रकार बचाव पक्ष और सरकारी पक्ष के वकील इस मामले को एक तरफा बनाने पर जुटे हैं और चश्मदीद को खरीदना कहते हैं।
इस ऑपरेशन ने सबकी आँखें खोल दी। ऐसे लोग सामने थे जो कि जाने माने हैं इस कानून की दुनिया में। मगर उनकी ऐसी हरक़त ने अब न्याय मिलने की आस को फिर से अमीर की चौखट पर दम तोड़ते देखा है। यदि ये स्टिंग सामने न आता और वाकई चश्मदीद बिक जाता तो एक बार फिर से इन्साफ नही होता।
क्या ऐसा करने वालों के ख़िलाफ़ की गई कार्यवाही काफ़ी है? हलाँकि उन्हें दी गई ये सज़ा केवल उनके दिल्ली की हाई कोर्ट और निचली अदालत में प्रवेश पर ही लागू होगा, ये दोनों अपनी consultancy चला पाएंगे।
क्या ऐसे में इस सज़ा के कुछ मायेने होंगे और क्या ये केवल २०००/- रु का जुर्माना काफ़ी होगा। अब क्यूंकि ये दोनों ही जाने माने और बड़े वकील है तो यह बात तय है कि ये सर्वोच्च न्यायालय जायेंगे और हो सकता है इस मसले पर ख़ुद को कुछ बचा भी पाएं। इस मसले पर मिली उन्हें सज़ा दरअसल केवल उनके लिए नही है ये एक धब्बा है जो हमारे कानून और पूरी न्याय व्यवस्था पर लगा है और जो सामने आया है, जो सामने नही आते वो अलग है।

रविवार, 17 अगस्त 2008

जब बॉस की खिंचाई का मौका मिल जाए!


ऐसा कितनी कम बार होता है कि आप को बात बात पर टोकने वाला आपका बॉस कहीं, खासतौर पे किसी मीटिंग में बाकी स्टाफ के पीछे पड़ा हो और उस समय आपको मौका मिल जाए उसकी खिंचाई करने का, तो सोचिये कैसा मज़ा आता है.
मेरी पहली जॉब थे। उस समय मैं एक कॉल सेंटर में था और एक बड़ी टेलिकॉम कंपनी के कस्टमर केयर में था, ज़ाहिर सी बात है कस्टमर केयर में था लोगों की सेवा मेरा कर्तव्य था। अलग बात ये है कि हम केवल लोगों की सेवा में विश्वास रखते थे, मगर अपने बॉस कि जी हुजूरी नही बजाते था। तो जनाब पहले ही हमारे अपने बॉस से ऐसे रिश्ते थे जैसे भारत और पाकिस्तान के,मतलब मिलते तो थे मगर हमें पता है उनके ह्रदय में हमारे लिए ज़बरदस्त श्लोक चल रहे होते थे। उस पर वो हमें निकल पाने में अक्षम था कारन अपना मस्त रिकॉर्ड जिसमें ऑफिस के लोगिन टाइम के अलावा सब हरे रंग से रंग होता था और साथ में बेस्ट performer में नाम भी। तो जनाब अक्सर इस चक्कर में रहते थे कि इन्हे कुछ कहने को मिल जाए, मगर हम कहाँ किसीके हाथ आने वाले।
मौका उसे तब मिल गया जब टेलिकॉम कंपनी से शिकायत आई के हमारे सेंटर में ज़्यादातर लोग CRM के एक ख़ास header से कुछ ज़्यादा ही मुहब्बत करते हैं और जो समझ नही आता उसे एक ही header में डाल कर उसकी entry कर देते हैं। हमें एक बात और बताई गई थी कि यदि किसी ग्राहक को अपना फ़ोन नम्बर याद न हो तो उसकी तकनीकी शिकायत को आगे न बढाया उससे कहा जाये को वो अपना नंबर याद करके या पता करके संपर्क करे और उसकी एंट्री CRM के अलग एक सामान्य हेडर में दर्ज कर दिया जाये.मज़े की बात ये थी कि ये बात हमारे बॉस को पता नहीं थी.
अब शिकयत के बाद हमारे बॉस ने हमें एक कक्षा में बुलाया और लगे सबकी खिंचाई में। मजेदार बात ये थी कि हमारे टीम लीडर पूरी तरह से सारे प्रोसेस को समझता था और उसके पास सबकी परफोर्मेंस रिपोर्ट भी होती थी और कौन क्या और कितना जानता है उसे पता था तो वो पहले में मेरे पास बैठा था. सब से होते हुए बात मेरे पास पहुंची कि "नदीम जी आपके पास ये कॉल आई थी और आपने लिखा है कि ग्राहक की ये परेशानी है और उसे कहा गया कि नंबर लेकर कॉल करे. जब आपको उसकी परेशानी पता थी तो पहले तो आपने उसकी शिकायत को आगे क्यूँ नहीं बढाया और उसकी CRM में एंट्री आपने इस हेडर में क्यूँ की?" इतना कहना था और हमारे बॉस साहब सीना चौडा करके सबकी तरफ देखने लगे और शायद सोच रहे हो कि आज तो मैंने नदीम को पकड़ लिया है और इसकी खिंचाई होगी. मगर मैंने आगे से एक सवाल दाग दिया कि "आप ही बताईये जब ग्राहक को अपना नंबर ही पता नहीं था और वो कॉल दुसरे नंबर से कर रहा था यदि में शिकायत को आगे बढा देता तो क्या उस पर कोई कार्यवाही होती? मैंने आगे कहाँ कि कोई और समस्या होती तो में एक dummy नंबर लेकर उस पर शिकायत दर्ज करके आगे बढा देता और alternate नंबर कि सहायता से बाद में हम उसका नंबर लेकर उसकी परेशानी को हल कर सकते थे". आगे से जनाब ने पता नहीं क्या सोचा और बोले तो कर देते dummy नंबर में शिकायत दर्ज. इतना बोलना था और सारे कमरे में ठहाके गूंजने लगे. अब भी बॉस को पता नहीं चला कि क्या हुआ है तो उन्होंने हमारे टीम लीडर को देखा और उसने कहा सर पहली ही लाइन में लिखा है टेक्नीकल प्रॉब्लम तो इसमें ये क्या करता? सही जवाब दिया और सही जगह एंट्री कर डाली.अगर ये इसकी शिकायत कर देता तो आप ही इसे पकड़ लेते. काफी देर तक कमरे में हंसी बंद नहीं हुई और बाद में उन्होंने कहा यार तुम लोग ख़ुद ही इस समस्या को discuss कर लो मुझे बाद में बता देना और वो निकाल लिए. इसके बाद क्या discuss होना था? बस यही discuss होता रहा कि बॉस के चेहरे का रंग कैसा हो गया था और वो कैसे घबराए हुए से नज़र आ रहे थे.

उस दिन के बाद वो मेरे सामने आते तो कहते नदीम जी कोई समस्या तो नहीं है, ज़रा इन नए executives को देख लिया करो और सारे नए लोगों को मुझसे ज़रूर मिलवाते थे। हाँ लड़कियों से हम पहले ही मिल लिया करते थे.:)

गुरुवार, 31 जुलाई 2008

मायावती की मूर्ती न गिराओ! एक मज़दूर की गुहार!

कल जब से सुना है कि मुलायम सिंह ने कहा है यदि वो सत्ता में आएंगे तो मायावती की मूर्तीयों को गिरा दिया जाएगा। ये बात सुनते ही मुझे उन मूर्तिकारों का ख़याल आ गया जिनके पास आजकल इस प्रकार की भव्य मूर्तियाँ बनने का मौका नही होता। और ये जो एक दो मौके साल में उन्हें मायावती उपलब्ध कराती है तो जनाब भाई मुलायम सिंह जी उम्हे तुड़वाने पर तुल गए हैं, जबकी अभी मायावती का इरादा ऐसी और कईं मूर्तियाँ लगवाने का है। अब बेचारे मज़दूर क्या करेंगे। पहले तो आजकल ऐसे नेता नही है जिनकी मूर्तियाँ बनाकर किसी चौराहे या पार्क में लगायी जायें और जो एक-दो नेता ऐसे है जो कि ख़ुद को महान साबित करना चाहते हैं तो उन्हें उनके राजनीतिक दुश्मन मूर्ती बनाने नही देते। नुक्सान किसका है? इन मज़दूरों का। जहाँ सारा देश अच्छे नेताओं के लिए दुआ मागता है और अपने रब से शिकायत करता है कि तूने ऐसे नेता बनाने क्यूँ बंद कर दिए वहीँ शायद ये मज़दूर ये दुआ करते होंगे ऐ रब तूने पहली बार तो ऐसे नेता बनाये हैं जो जीते जी अपनी मूर्ती बनवा के लगवाना चाहते है तू इन्हे और हौंसला दे कि ये तमाम विरोध के बावजूद अपनी मूर्ती लगवाते रहे।

रही मूर्तिकारों की तो इनकी परवाह है किसे? जो पहले बड़े और महान नेताओं की मूर्तियाँ बनाते थे वही अब केवल भगवान् की मूर्ती बनते है जिससे इनका हौसला बढ़ता है या फिर कुछ सजावटी वस्तुएं जिनसे शायद ही इनका कुछ खास भला होता होगा।

सोमवार, 7 अप्रैल 2008

कमी कंटेंट की है या अभी हमने ईमानदारी से लिखना ही शुरू नही क्या?

मेरे एक हिन्दी ब्लॉगर मित्र की चिंता मैंने पढी ..उनकी चिंता बिल्कुल जायज़ थी की अभी भी

हिन्दी ब्लोग्गिंग एक दूसरे के कंधे पर चल रही है।

मगर एक बात जो मुझे लगती है वह ये है कि अभी हमने ईमानदारी से लिखना ही शुरू नही किया है।

अभी हम भी मीडिया समूह के जैसी ही सोच पाले हुए हैं और वही लिखने कि कोशिश करते हैं जिन्हें हम सोचते है कि लोग पढेंगे। हम वो नही लिखते जो हमें लिखना चाहिए इसमें मेरा नाम भी शामिल किया जा सकता है। अक्सर लिखने से पहले मैं भी सोचता हूँ कि मैं लिख तो रहा हूँ मगर क्या कोई पढ़ेगा भी। मगर इसका अपवाद यदि मैं ईमानदारी से देखूं तो मेरी ख़ुद कि ही एक पोस्ट थी जो कि मैंने अपनी चप्पलें चोरी होने के बारे में लिखी थी जो कि काफ़ी पसंद कि गई। मतलब ये कि यदि आप अपनी ईमानदारी से लिखते हैं बजाये इस बात की परवाह के कि कोई पढ़ेगा या नही तो जो कंटेंट कि कमी है वो पूरी हो जायेगी।

कंटेंट सब जगह होता है मगर इस पर विचार करने कि आवश्यकता है। यदि हम अपनी ईमानदारी बरतें और हर कंटेंट पर विस्तार से सोचें और थोडी रिसर्च करें तो हर वो लेख जो हम लिख रहे हैं ज़रूर पसंद किए जायेंगे। बाकी सब जो भी विवाद या उल्टा सीधा हम कभी न कभी लिख लेते हैं उससे छुटकारा भी मिल जाएगा।

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails