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बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

क्या लेखक का एक मात्र मकसद ये है कि उसकी कोई किताब छपे? एक प्रश्न!

जब भी किसीको पता चलता है के मैं कुछ लिख लेता हूँ और उन्हें थोडी बहुत तुकबंदी सुना देता हूँ तो हमेशा सभी यही कहता हैं के "आप अपनी कोई किताब क्यूँ नही छपवाने की कोशिश करते? आपको किताब छपवानी चाहिए." यही कभी कभी मैं भी करता हूँ जब मुझे कोई अच्छा कवि या शायर या शायरा या कोई अच्छा कहानीकार मिलता है। मगर आज अचानक बैठे बैठे ये ख्याल आया के क्या ये ज़रूरी है के हर एक लेखक या शायर अपनी किताब ही छपवाए और वो भी इस समय में जब आपकी किताब को लेने वाले लोगों को आप आसानी से गिन सकते हैं। तो ऐसी किसी किताब का क्या लाभ ? खासतौर पर तब, जब आपके पास इन्टरनेट जैसा माध्यम है जो आपकी लिखी कविता या नज़म या कहानी को लाखों लोगों तक पहुँचा सकता है।
शायद इसका कारण ये होगा के आपको धन लाभ की उम्मीद कम होती है इन्टरनेट पर।
मगर क्या वाकई ऐसा है? मैं इस बात पर साथियों के विचार जानना चाहूँगा।

क्या जूते मारना, विरोध करने का अच्छा तरीका है? एक प्रश्न!

ऐसा लग रहा है जैसे विरोध में जूता चलाना एक नया चलन बनता जा रहा है। पहले अमेरिकन और अब चीनी राजनीतिज्ञ इसका शिकार हुए। ये बात और है कि विरोध में जूते चलाना या सज़ा देना भारत में इजाद किया गया मगर ऐसा लग रहा है के अब इसका श्रेय इराकियों ने ले लिया है। हमारे देश में ऐसी कई कहानियाँ और लोकोक्तियाँ मिलती हैं जहाँ जूतों का ज़िक्र आता है। यहाँ अक्सर चोरों के गले में जूतों की माला डालकर और मुंह काला करके गधे पे घुमाने की परम्परा ज़िक्र कई बार प्रकाश में आता है
मगर आज अचानक सवाल मन में आया तो सोचा पूछ ही लूँ कि क्या विरोध में जूते मारना विरोध का अच्छा तरीका है?

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

अब इराकियों को अफ़सोस होगा क्रिकेट न खेलने का!

पिछले दिनों सुबह उठते ही जब एक जूते को उछलते हुए देखा तो ऐसा लगा मानो किसी भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी ने stumps पे निशाना साधा हो और जब stump को हिलते हुए देखा तब पता चला वो stump नही था बल्कि दुनिया के सबसे ताक़तवर मुल्क के राष्ट्रपति थे वो भी बुश। जब तक मैं कुछ और सोच पाता इतने में एक और जूता दिखाई दे गया इस बार भी निशाना सही नही। तभी मुझे लगा के आज इराकी लोगों को अफ़सोस हुआ होगा के क्यूँ उनका देश क्रिकेट नही खेलता अगर उस पत्रकार ने क्रिकेट खेला होता तो हो सकता है उसका निशाना न चूकता । मैं तो कहता हूँ के आईसीसी और बीसीसीआई को क्रिकेट को बढावा अगर देना है तो इराक जाकर वहां के पत्रकारों और बच्चों को क्रिकेट सिखाये ताकि वो हिलते हुए और एक stump पे भी निशाना लगा सके जैसे हमारे खिलाड़ी दौड़ते हुए विकेट उखाड़ देते हैं बाल मार कर। और अगर निशाना अगली बार लग गया तो समझ जाना चाहिए के अभी तो ये जूता जो निशाना चूक गया ५० करोड़ का बिक रहा है ज़रा सोचो निशाना लगने के बाद तो अरबों का होता
और सलाह अमेरिकी राष्ट्रपति को के इस आर्थिक मंदी के दौर में लोगों को करोड़ों कमाने का मौका दें। भला जहाँ काम धंदे चौपट है वह कम से कम जूता उद्योग को तो तरक्की का मौका मिलना ही चाहिए।

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

क्या ज़िन्दगी यही है? एक सवाल!

आज सोमवार है और मैं फिर से अपने clients से appointments ले रहा हूँ। और साथ ही साथ अपने ऑफिस को रिपोर्ट भी कर रहा हूँ। मुंबई दहला, हमने कुछ खामोशी अपनाई, उसपे नज़र बनाई, कुछ दुखी हुए और देखते रहे। और आज से फिर से सभी की ज़िन्दगी उसी पुराने ढ़र्रे पर चल पड़ी है। हम सभी ज़िन्दगी की तरफ़ चल पड़े हैं। और एक सवाल मेरे मन में उठ खड़ा हुआ है।

क्या ज़िन्दगी यही है?

रविवार, 30 नवंबर 2008

अगर संभाला नही जा रहा है तो क्यूँ न पाकिस्तान अपनी मुसीबत भारत को गोद देदे.

अधिकतर आतंकी हमले के बाद हम सब पाकिस्तान की ओर ऊँगली करके खड़े हो जाते हैं ओर पाकिस्तान एक टका सा जवाब पकड़ा देता है के वो ख़ुद भी इस आतंकवाद से पीड़ित है। जबकि हमें ज्ञात है के ये सारा आतंकवाद उसी की छत्र छाया में पला है जो आज उसे भी आँख दिखा रहा है। यदि पाकिस्तान अपने इस पालतू को सँभालने लायक नही है तो क्यूँ नही वो ये मुसीबत भारत को गोद देता ओर क्यूँ नही भारत सरकार इस मुसीबत को गोद लेने की पेशकश करती। मतलब ये है के अगर पाकिस्तान से इसका खातमा नही हो रहा है तो भारत को इसके शिकार की दावत देदे।
अगर भारत को इस मुसीबत को खत्म करने का मौका दे दिया जाता है तो मैं समझता हूँ के हमारी सेना ओर जवान इस लायक हैं के उनके घर में यानी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर और अफ़गान सीमा दोनों पर जाकर उनके ठिकानो को तबाह ओ बर्बाद कर सकते हैं।

क्यूँ न हो के सरकार चाहे वो किसी भी दल की क्यूँ न हो पाकिस्तान पर दबाव बनाकर इस बात की इजाज़त ले के उसे इन आतंकी ठिकानों पर हमले का मौका दिया जाए।

सोमवार, 27 अक्टूबर 2008

हर प्रदर्शन में है इंडियन रेलवे की भूमिका!

वो चाहे गुर्जरों का आन्दोलन हो, बाबा राम रहीम के ख़िलाफ़ गुस्सा हो, राज ठाकरे के गुंडों की गुंडा गर्दी हो या बिहार में उस गुंडागर्दी का विरोध। इन सभी में एक बात समान है और वो है भारतीय रेल।
एक बात समझ नही आती के सबका गुस्सा रेलवे पर ही क्यूँ टूटता है?
कर्नल बैसला को गुस्सा आया तो वो रेल की पटरियों पे जाकर बैठ गए, उनके साथियों ने रेल की पटरियाँ उखाड़ डाली। और तो और इतने लंबे चले आन्दोलन में बहुत सी ट्रेने रद्द हुई और हजारों लोगों को परेशानी उठानी पड़ी।
वही जब बाबा राम रहीम लोगों ने एक समुदाय विशेष पर गोलियां चलायी तो इसके विरोध में भी लोगों ने ट्रेन में बैठे लोगों पर ही अपना गुस्सा निकला और रेलवे की संपत्ति तोडी गई।
फिर बारी आई राज के गुंडों की और उन्होंने भी रेल में गुस्कर उत्तर भारतियों को निशाना बनाया और स्टेशन पर तोड़ फोड़ की। साथ ही रेलवे की परीक्षा में बाधा भी पहुंचाई जिसका सीधा असर रेलवे को होगा।
अब समय था इस का विरोध करने का तो वहां तो हद ही हो गई , रेल का इंजन ही लेकर रवाना हो गए। स्टेशन तोडा और रेलवे करमचारियों और संपत्ति को नुक्सान पहुँचाया गया।
ऐसे कई उदाहरण है जब तब भारतीय रेल लोगों के गुस्से का शिकार बनी जब इसका उसमें कोई हाथ नही था।
इसमें एक मजेदार बात ये है की भारतीय रेल हम सभी की ज़िन्दगी से जुडा हुआ है। हम सभी को इसकी ज़रूरत है मगर अपना गुस्सा भी हम इसी पर ही क्यूँ निकालते हैं।
क्यूँ भारतीय रेल के अधिकारी नुक्सान पहुँचने वाले लोगों से इसका हर्जाना नही वसूलते? क्या ऐसा नही होना चाहिए कि जिस गुट विशेष या दल विशेष की वजह से नुक्सान हुआ है उन्ही से इसके नुक्सान की भरपाई करायी करायी जाए?

क्या कोई इस बारे में मुझे समझाने की कोशिश करेगा।

शनिवार, 11 अक्टूबर 2008

चल दिए हम भी एक नई नौकरी और नए शहर की ओर!

मैंने कभी नही सोचा था कि कभी अपने शहर को छोड़कर कहीं जा पाउँगा ओर अगर जाऊंगा तो इतनी दूर जाना पड़ेगा। मगर शायद ज़िन्दगी इसी को कहते हैं। या शायद यही वो वजह है जिसने सभ्यता को फैलाया हैं। पता नही क्यूँ मगर बड़ा ही अजीब लग रहा है। अपने घर से दूर bangalore जाना।
एक ऐसा शहर जहाँ शायद मुझे कोई जानने वाला नही होगा। हाँ अगर कोई साथी होगा तो शायद मेरा ये ब्लॉग जहाँ मैं अपने दिल को उतार पाउँगा।

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

करता है सब के सामने सौदा मेरे ईमान का! हाल ऐ दिल!

करता है सब के सामने सौदा मेरे ईमान का,
मैं करता हूँ मना उसको, तो कहता है तू है कौन?
वो है कोई हाकिम, कोई गुनाहगार है कभी,
मैं कहता हूँ उस से मान जा, कहता है तू है कौन?

जाता है कभी मार आता है किसीको,
लिखता है वहाँ नाम मेरा नामुराद वो,
सब कहते है मुझे, ये होगा शामिल कहीं उसमें,
मैं करता हूँ मना उनको, तो कहते हैं तू है कौन?

मैं करता हूँ जब अफ़सोस किसी की तबाही पर,
लोगों को नज़र आते हैं आंसू मेरे झूठे,
सब कहते हैं दिल ही दिल में खुश हो रहा है ये,
मैं करता हूँ मना उनको, तो कहते है तू है झूठ।

फिर सोचता हूँ, क्यूँ कर कहते हैं मुझे भाई ये लोग अपने?
क्यूँ जताते हैं मुहब्बत जब देखते हैं मुझे तड़पता?
क्या उनको नही दिखाई देता मैं साथ में उनके खड़े?
क्या उनको मेरा, ये दर्द सुनाई नही देता?
हैंरान होता हूँ जब दुद्कार दिया जाता हूँ अपनों के ज़रिये मैं,
क्या उनको मुझमे और कातिलों में कोई फर्क नही दिखता?

मेरा काम इशारा देने का था। जो मैं दे दिया। क्या करूँ शब्दों की कंगाली से जूझ रहा हूँ।

शनिवार, 23 अगस्त 2008

हाईकोर्ट की ग़लती क्या है? वकीलों को दी गई सज़ा या बार कौंसिल के कार्य में हस्तक्षेप?


मेरे कल और परसों के लेख पर कईं साथियों का साथ मिला और इस पर मुझे कुछ जानकारियों से भरे मेल भी प्राप्त हुए। मुझे बताया गया कि उच्च न्यायालयों को सज़ा सुनाने का अधिकार ही नही है। और किसी वकील के कार्य पर केवल बार कौंसिल ही फैसला ले सकता है। हालांकि बात मेरे गले आसानी से नही उतरती मगर क्यूंकि मैं कानून का कोई जानकार नही हूँ तो इस पर बहस नही कर सकता। मगर मैं वकील बिरादरी से ये पूछना ज़रूर चाहूँगा कि क्या उनकी परेशान ये है कि हाई कोर्ट ने उनके कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप की कोशिश की या ये कि उनके साथियों को सज़ा दी गई? क्या एक दिन की गेरहाज़री से अपना पक्ष रखने की बजाये वो हाई कोर्ट के इस फैसले जिसमें बकौल बार कौंसिल हाई कोर्ट ने उनके कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप किया है के ख़िलाफ़ कोई अपील दायर नही कर सकते थे जिससे कि देश की जनता तक एक सही संदेश जाता। और वो ख़ुद कोई ऐसी पहल क्यूँ नही करते जिससे भ्रष्ट वकीलों पर कार्यवाही हो सके।
और एक बात जिसपर कोई वकील तो कम से कम बात शायद नही करना चाहता कि आख़िर उन्हें जो सज़ा दी गई है क्या वो काफ़ी है? जब एक इंसान जो छोटी मोटी गलतियां करता है जाने या अनजाने में तो उसे बड़ी बड़ी सजाएं दी जाती है तो वहां केवल ४ माह की अदालत में घुसने पर पाबंदी और २०००/- रु मात्र का जुर्माना क्या दिखता है?
क्या वकीलों को ये दिखाई नही दे रहा और इस प्रकार के इन्साफ के खिलाफ वो कुछ क्यूँ नही करते। क्यूँ पहल नही करते कि इन और इन जैसे वकीलों को कदा दंड दिया जाए? क्यूँ नही इसको एक मुहीम बनाया जाता?

शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

क्यूँ वकीलों से भिड रहे हो जज साहब? इनकी ग़लती कहाँ है? ग़लती तो आपकी है, जो इन्हे ग़लती की सज़ा दे रहे हो!


बचपन में एक कहावत सुनी थी कि उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। मगर यहाँ ये कहावत कुछ ऐसी लग रही है कि उल्टा वकील जज को डांटे। क्यूंकि कल ऐ यु खान और आर के आनंद पर जो दिल्ली हाई कोर्ट का फ़ैसला आया है उसके बाद ऐसा मालूम हुआ मनो किसीने इनकी दुम पर पैर रख दिया हो। बजाये इसके कि ख़ुद शर्मिंदा होते कि पिछले १५ महीनो में उन्होंने जिस केस को दबाकर रखा था उसपर कोर्ट ने फ़ैसला सुना दिया। जो फ़ैसला पहले बार कौंसिल को करना चाहिए था उसे कोर्ट को करना पड़ा। होना ये चाहिए था कि इस फैसले के बाद शर्मिंदा होते उन्होंने तो अदालत के अधिकार पर ही ऊँगली उठा दी। होना ये चाहिए था कि इन दोनों कानून के सौदागरों के ख़िलाफ़ और भी कड़ी सज़ा की माँगा करते उन्होंने इसके विरोध में ख़ुद खड़े होने का मन बना लिया। क्या बात है वकील बिरादरी! मुबारक हो आपको। ना जाने क्यूँ इसके बाद मुझे ऐसा लग रहा है कि कहीं इन दोनों को बचाने की कोशिश इस लिए तो नही हो रही क्यूंकि ऐसा काफ़ी वकील करते हो। वो भी इसी प्रकार बचाव और सरकारी पक्ष मिलकर आरोपियों को बचाने का "धंधा " करते हो।
और मैं धन्यवाद देना चाहूँगा उन साथियों का जिन्होंने मेरे इस ख़याल के ये सज़ा जो इन लोगों को मिली है कम है में मेरा समर्थन किया है।

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

कानून की धज्जियाँ उडाने का इनाम : चार माह की छुट्टी और मात्र २०००/-रु का जुर्माना!


आज सुबह से देश के तमाम ख़बरिया चैनल्स वरिष्ठ वकीलों और कानून की धाज्जियाँ उड़ने वाले आर के आनंद और ऐ यू खान को दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा सुनाई गई चार माह और दो हज़ार रु के जुर्माने पर ख़बर चला रहे हैं। क्या ये सज़ा काफ़ी है? इस बारे में विचार क्यूँ नही किया जा रहा। आम तौर पर यदि कोई आम नागरिक कानून को ग़लती से भी तोड़ता है तो उसे लम्बी और कड़ी सजाएं सुनाई जाती हैं जबकि उसको कईं बार अपनी हरकत के बारे में पता ही नही होता कि उसने कोई कानून तोडा भी है या नही। मगर यहाँ तो देश को दो जाने माने अधिवक्ता थे जिन्हें कानून और उसकी सज़ाओं के बारे में पूर्ण जानकारी थी। मगर फिर भी उन्होंने एक साजिश रचने की कोशिश की। क्या उन्हें और बड़ी और कड़ी सज़ा नही मिलने चाहिए थी। मैं माननिये अदालत का सम्मान करता हूँ, मगर क्या उनकी इस हरकत पर अदालत की तौहीन का एक और मामला न चलाकर उन्हें जेल में नही डाल देना चाहिए था, जिससे एक बड़ी मिसाल कायम होती। ये तो बात रही जहाँ एक बड़ा मामला था और जहाँ हर बार मीडिया की एक भीड़ इस मामले को कवर कर रही है। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस प्रकार छोटे छोटे शहरों में जहाँ कोई स्टिंग ऑपरेशन करने के लिए मीडिया मौजूद नही होती वहाँ ये वकील किस प्रकार से गवाहों को खरीदते और बेचते होंगे या डरा धमका कर आरोपियों को बचाते होंगे।
दरअसल ये मसला है संजीव नंदा नाम के एक युवक का जिसने सन् १९९९ में ७ लोगों को अपनी गाडी के नीचे कुचल दिया था। जिसमें ६ लोग मारे भी गए थे। वही मामले के तीन दिन बाद एक युवक सामने आया जिसने ख़ुद को मामले का चश्मदीद बताया। अभी ये मामला निचली अदालत में चल ही रहा था कि ये स्टिंग ऑपरेशन सामने आया जिसमें पाया गया कि किस प्रकार बचाव पक्ष और सरकारी पक्ष के वकील इस मामले को एक तरफा बनाने पर जुटे हैं और चश्मदीद को खरीदना कहते हैं।
इस ऑपरेशन ने सबकी आँखें खोल दी। ऐसे लोग सामने थे जो कि जाने माने हैं इस कानून की दुनिया में। मगर उनकी ऐसी हरक़त ने अब न्याय मिलने की आस को फिर से अमीर की चौखट पर दम तोड़ते देखा है। यदि ये स्टिंग सामने न आता और वाकई चश्मदीद बिक जाता तो एक बार फिर से इन्साफ नही होता।
क्या ऐसा करने वालों के ख़िलाफ़ की गई कार्यवाही काफ़ी है? हलाँकि उन्हें दी गई ये सज़ा केवल उनके दिल्ली की हाई कोर्ट और निचली अदालत में प्रवेश पर ही लागू होगा, ये दोनों अपनी consultancy चला पाएंगे।
क्या ऐसे में इस सज़ा के कुछ मायेने होंगे और क्या ये केवल २०००/- रु का जुर्माना काफ़ी होगा। अब क्यूंकि ये दोनों ही जाने माने और बड़े वकील है तो यह बात तय है कि ये सर्वोच्च न्यायालय जायेंगे और हो सकता है इस मसले पर ख़ुद को कुछ बचा भी पाएं। इस मसले पर मिली उन्हें सज़ा दरअसल केवल उनके लिए नही है ये एक धब्बा है जो हमारे कानून और पूरी न्याय व्यवस्था पर लगा है और जो सामने आया है, जो सामने नही आते वो अलग है।

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

ज़रा सुनो तो, क्या कहती है ये यमुना!

बड़े दिनों बाद बेपरवाह बह रही है ये,

के है मुश्किल थामना पानी को ज़ंजीरों में है।

पिछले दिनों बड़े दिन बाद मुझे मौका मिला यमुना किनारा देखने का और दिल बाग़-बाग़ हो गया।पानी अजी पानी का क्या,लहरें यूँ उठ रही थी मानो आज इनका इरादा रुकने का नही है। रास्ते में आने वाले झाड़ , टूटे हुए पेड़, कूड़ा कुछ भी ऐसा नही था जो कि इसको रोक सके। हवा ऐसी कि जैसी पिछले ६-7 सालों में शायद ही चली हो।और नदी ऐसे बेपरवाह के जैसे उसे किसीसे कोई मतलब ही न हो, मानो कह रही हो "बहुत मौका दिया तुम्हे के तुम मुझे साफ़ करो. तुम तो इतने सालों में कामयाब नही हुए मगर मैंने इस बार कमर कस ली है के इस बारिश के मौसम में सारा कूड़ा और करकट, सारा गंद मुझे ही बहा के ले जाना है।" सच में मुझे ऐसे लगा कि जैसे यमुना पे बहार आई हो।

हालांकि कुछ लोगों को हो सकता है मेरा ऐसा कहना बुरा लगे कि "एक तो यमुना का जल स्तर बढ़ रहा है और ख़तरा भी मगर इस बन्दे को क्या पसंद आया इसका।" तो जनाब वैसे मेरा यमुना के साथ पुराना रिश्ता है। अगर में ये कहता हूँ कि बड़े दिन बाद किनारे पर गया तो इसमें मुझे अफ़सोस भी होता है, मगर वहां जाना मैंने उस बदबू के कारण छोड़ा जो कभी आपको नाक से कपड़ा हटाने नही देती। मैं लक्ष्मी नगर में रहता हूँ और इस इलाके को जानने वालों को पता होगा कि ये यमुना के किनारे ही बसा हुआ है। कभी अपना बचपन, अपनी उदासी के लम्हे, और अपनी पढाई के दिन सब वही हुआ करते थे। जब दिल करता कि यार बैचैनी हो रही है तब साइकिल लेकर या पैदल ही उस ओर चल पड़ते। सुबह को घूमने जाना हो या शाम को दोस्तों के साथ वक्त गुजारना हो, गर्मियों की छुट्टियां तो मानों वही ख़त्म होती थी। उसी इलाके के आसपास के खेतों ओर किनारे पर जमें पेड़ों से पत्ते तोड़कर अपनी प्रयोग की पुस्तक को सजाया जाता था। जब पता चला कि उदासी नाम की भी कोई चीज़ होती है तो भी वही जा बैठते थे। इसके बाद इम्तिहान की तैयारी, सब इकठ्ठा हुए और चल दिया यमुना के तीर।मुझे आज भी याद है हम कक्षा १० कि तैयारी कर रहे थे। फरवरी के माह में शाम को किनारे बैठे - बैठे ऐसी सर्द हवाएं चलने लगी कि मानो आज ये बैठने ही नही देंगी और हमने अपनी साइकिल उठा के वापस लौटना ही बेहतर समझा।

फिर वो वक्त भी आया के जब यमुना के किनारे बैठना तो दूर, खड़े होना भी मुहाल होने लगा। ये ऐसा वक्त था जब बड़े ज़ोर शोर से यमुना बचाओ और यमुना सफाई अभियान चल रहे थे। हम ये सोचकर हैरान थे कि हो क्या रहा है। बजाये साफ़ होने के ये यमुना गन्दी क्यूँ होने लगी है। मगर कोई जवाब नही। और फिर धीरे यमुना का हाल ज़माने ने देखा और सब इस यमुना को गंदे नाले के नाम से जानने लगे। जब भी कोई इसे गन्दा नाला कहता मुझे बड़ा अफ़सोस होता था। मगर सच्चाई से मुँह फेरना काम नही देता। अपना भी मन हुआ कि किसी ऐसी संस्था से जुडा जाए जो इसे साफ़ करने का इरादा रखते हैं। कुछ संस्थाओं का पता भी चला मगर अधिकतर का इरादा सफाई से शोर ज़्यादा मचाने में था। हर कोई बस यही चाहता है कि सरकार कुछ करे और बाकी लोग बस नुक्ताचीनी करते रहे। ख़ुद का इरादा बस अखबार और टीवी पर ही आना होता था। आज भी जितनी संस्थाएं है अधिकतर अपना प्रदर्शन केवल टीवी के सामने ही करती है और उसके बाद अपने टेंट उखाड़ कर चलती बनती हैं। यहाँ भी दिल टूट गया तो फिर यमुना किनारे ही आकर बैठ गए और नाम पर एक कपड़ा रख लिया।

मगर यमुना को साफ़ करने का जो रास्ता आज यमुना ने दिखाया है हमें उसको समझना चाहिए। हमें यमुना को साफ़ करने कि ज़रूरत नही है। अपनी गन्दगी तो यमुना ख़ुद बहाकर ले जायेगी, ज़रूरत इस बात की है कि हम इसमें और गंदगी को न जाने दें। आज यमुना काफ़ी हद तक साफ़ है यदि इसमें आगे से हम गंदगी को जाने न दें तो ये दुबारा अपनी पुरानी रंगत में आ जायेगी।

शुक्रवार, 13 जून 2008

हम हिन्दी में लिखने वाले, किसीसे कमतर हैं क्या?

यूँही बैठे हुए अपने ब्लॉग पर कुछ कोतुहल उतार रहा था इतने में एक पढ़े लिखे जनाब आ गए। बोले," क्या कर रहे हैं हिन्दी में लिख रहे है आप तो"। ये कहकर जनाब ने हँसना शुरू कर दिया। अब जनाब हिन्दी भाषी है तो हमने भी बता दिया के, "भइया मैं उस भाषा में लिखता हूँ जिसे मेरे देश के करोड़ों लोग बोलते और समझते हैं।"

अब अगला सवाल क्या आपको अंग्रेज़ी नही आती है? अब इस सवाल का जवाब उसे मेरे आलावा मेरे पास बैठे सभी लोगों ने दे दिया।

फिर मैं सोचने लगा यार इसके पूछने का मतलब क्या था और वजह क्या थी? क्या ये मुझे या हम हिन्दी में लिखने वालों को कुछ कमतर समझ रहा है? फिर तो मैंने मन बना ही लिया जय अब तो जनाब को हिन्दी साहित्य से अवगत कराना ही पड़ेगा। बस फिर क्या है धीरे धीरे हिन्दी ब्लॉग पढने की लत लगा दी है, अब किसी न किसी दिन जनाब का भी ब्लॉग पढने को मिलने वाला है..वो भी हिन्दी में।

१६ मई २००८ के बाद देश में कोई क़त्ल नही हुआ!

पता नही क्यों मुझे ऐसा लगता है कि जैसे १६ मई २००८ के बाद से देश में कोई भी क़त्ल नही हुआ है। अब या तो ये मेरी समझ का फेर है या मुझे किसी अख़बार या टीवी चैनल पर कुछ और दिखता ही नही नही।
ऐसा नही है कि मुझे आरुषी या हेमराज से सहानुभूति नही है, मगर मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि हम एक को इन्साफ दिलाने पर ज़्यादा ज़ोर से रहे हैं और इस बीच कई लोगों को इन्साफ मिलने में देर आ रही है। हम अपने न्यूज़ चैनल्स कि जितनी चाहे आलोचना करें मगर ये सच है कि इनके दबाव के कारण बहुत से मामले जल्दी सुलझाए गए हैं।
इस बीच एक और मामला है जो कि गाजियाबाद का जहाँ कई बच्चे पिछले कई दिनों से गायब हो रहे है और उनकी सुध लेने वाला कोई नही है। बच्चों से संबंधित सभी संस्थाएं केवल आरुषी मामले को ही देख रही हैं मगर उन बच्चों का क्या उन्हें कौन देखेगा? हाँ ये ख़बर मुझे एक अंग्रेज़ी अखबार से मिली मगर वो भी भीतरी पन्नों में थोडी सी।

सोमवार, 19 मई 2008

शर्तिया लड़का ही होगा!

ये पंक्तियाँ देखकर अचानक क़दम रुक से जाते हैं। पहले तो मैं केवल वैद्य जी का ये बोर्ड देखकर हँस कर निकल जाता था। मगर बाद मैं जब भी मैं सहारनपुर में होता और बाज़ार जाना होता तो वैद्य जी के बोर्ड को देखने के बाद आसपास गुजरने वाले लोगों को ज़रूर देखता, सहारनपुर के आम बाशिंदों को इसकी आदत है मगर वहाँ से कमी के साथ गुजरने वाले इस बोर्ड को ध्यान से ज़रूर देखते। और उनमे अधिकतर महिलाये जिनमें थोडी बूढी महिलाये जिनको देखकर ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि इनकी या तो कोई बहु है या बेटी है। ऐसे लोग ध्यान से इसको देखते हैं और कुछ सोचते हैं या अपने पास कागज़ पर इसको नोट ज़रूर करते हैं।

इसे देखकर थोड़ा अफ़सोस क्या काफ़ी अफ़सोस होता है कि इस वक्त भी कुछ लोग हैं जो बेटे और बेटी में फर्क महसूस करते हैं। थोडी बेचैनी हुई तो पता किया कि ये दवाई खाता कौन है। मुझे बताया गया ऐसे लोग जिनको कईं बेटियाँ हो गई है वो इस दवाई को अपनी बहुओं को खिलाते हैं। अब ये जवाब सुनकर सर और चकरा गया। ये नही कि बेटियों वाले लोग मगर बहुए या कहूं की महिलाये दवा खाती हैं और दावा ये की बेटा ही होगा? मगर कैसे जितना विज्ञान मैंने पढ़ा है मुझे बताया गया है कि महिलाओं में केवल एक ही गुणसूत्र होता है जिसको X कहते है और मर्द के पास दो यानी X और Y। यानि मर्द के पास ही वो गुणसूत्र होता है जिसके मिलने से महिला के गर्भ में एक लड़के की पैदाईश कि गुन्जायिश हो। यानी लड़का यदि होगा तो उसके लिए मर्द जिम्मेदार होगा और यदि लड़की तो उसके लिए भी मर्द। यानी इसमें मर्द की ज़िम्मेदारी बन जाती है कि क्या पैदा हुआ। अब सवाल ये उठता है कि यदि महिला को ये दवा दी जायेगी तो लड़का कैसे पैदा होगा? जो काम उसका है ही नही तो दवा उस पर क्या असर करेगी? तो ये वैद्य जी या जो हकीम साहब बैठे हैं और दावा दे रहे हैं वो तो पक्का उल्लू बना ही रहे हैं। मगर सरकार की इतनी महनत के बाद भी लोग अब भी लड़की पैदा होने का दोष किसी महिला पे कैसे डाल सकते है?
यदि इस प्रकार की कोई दवा है तो उसे मर्द को खिलाया जाना चाहिए। मगर इतने साल में मुझे कोई वैद्य या हकीम ऐसा नही मिला जो कहे कि ये दवा मर्द के लिए बनी है और इसे खाने के बाद बेटा होगा। मेरी एक रिश्तेदार है जिनके दो बेटे पैदा हुए उसके बाद वो चाहते थे कि अब उनके घर लड़की आये मगर इसी खावाहिश में उनके घर चार बेटे पैदा हो गए. और अब तक लड़की नहीं आई है उन्हें तो आजतक कोई ऐसा वैद्य नहीं मिला जो उनकी लड़की की ख्वाहिश को पूरा कर सके. क्या वैद्य और हकीम साहब को ऐसी कोई बूटी नहीं मिलती जिससे लड़की पैदा हो सके.
अब एक और रिश्तेदार हैं जिनके पहले से २ लडकियां है और सुना है कि इस बार उन्होंने अपनी पत्नी को यही किसी हकीम साहब की दवा खिलाई है और लड़के की चाहत में पहले जहाँ पत्नी पर जुल्म किया करते थे आजकल बर्तन और झाडू तक पति महोदय ख़ुद ही किया करते हैं। वो नही चाहते कि उनके बेटे को कोई तकलीफ भी हो। मगर ये बात सिचकर और उनके पिछले ईतिहास को देखकर दिल दहल उठता है पहले लड़की होने पर किस प्रकार उन्होंने अपनी पत्नी पर ज़ुल्म किया और वो भी अपने घरवालों के सा मिलकर और यदि इस बार भी हकीम साहब की दवा फ़ैल हो गई तो उनका क्या होगा?
आखिर कब तक ऐसे वैद्य या हकीम लोगों को पागल बनाते रहेंगे और कब तक लोग इस अन्तर को छोडेंगे?
आज मैं अपनी ज़िंदगी के सबसे दुखद अनुभव को बांटना चाहूँगा कि जब मैं tuition पढाया करता था तो एक बच्चा मुझेसे पढ़ा करता था एक दिन मैंने उसके घरवालों के सामने उससे कहा कि यदि नहीं पढ़ेगा तो तुझे कहीं और छोड़ आयेंगे तो उस केवल ८ साल के लड़के ने मुझे जवाब दिया ऐसा नहीं होगा सर मैं अपने घर का इकलौता लौंडा हूँ, बाकी तो तीनों लौंडियाँ हैं. उसका ये जवाब सुनकर मैं हैरान रह गया कि किस प्रकार इतना छोटा बच्चा ये बात सोच सकता है? जिसके बाद मुझे उसके माँ बाप की क्लास लगानी पड़ी. और जब बैठकर सोचा तो ध्यान आया कि किस प्रकार उसकी माता उस पर अपनी बेटियों से ज़्यादा ध्यान देती है और उसी के सामने बेटियों को डांटती हैं. शायद ये मेरा ज़िंदगी का सबसे बुरा दिन था जो मेरे घरकी परम्परा के लगभग उल्टा था।
बात वैद्य जी की हो रही थी तो इस बार मेरा इरादा बन रहा है कि वैद्य जी से ये राज़ पूछकर ही आऊंगा कि कैसे मर्द के गुन महिलाओं में पैदा किए जा सकते हैं ?आख़िर कौनसा विज्ञान है जो यहाँ काम करता है?

शुक्रवार, 16 मई 2008

जयपुर धमाके: क्या ख़बर के नाम पर आतंकियों की मदद की गई?

जयपुर में धमाके हुए हम सभी देशवासियों को अफ़सोस हुआ और दिल दहल उठता। ऐसा कही भी और किसी के साथ हो सकता है। मगर जिस तरह से न्यूज़ चैनल्स ने ख़बर के साथ साथ पुलिस द्वारा की जा रही जांच की ख़बर दिखायी उससे मुझे ये महसूस हुआ कि इन चैनल्स ने कहीं न कहीं आतंकियों की मदद ही की है। जिस प्रकार सारे देश को पता था , उसी प्रकार आतंकियों को भी ये बात पता थी कि पुलिस कहाँ हाथ पाँव मार रही है। जिससे हो सकता है कि वो और भी सजग हो गए हों। खंबर के नाम पर ऐसा लगा कि कहीं न कहीं आतंकियों की मदद ही हो रही है।
अब सवाल ये उठता है कि क्या उन्हें ये ख़बर नही चलानी चाहिए थी? बिल्कुल चाहिए और यही उनका काम भी है मगर ज़रूरी नही कि वो भी पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों के साथ साथ अपनी जांच भी करें और उसे लगातार टीवी पर चलाया जाए? ये बात तो जग ज़ाहिर है कि मीडिया में ऐसे कईं लोग है जिनका दिमाग बहुत तेज़ चलता है और यदि उन्हें ऐसा कुछ दिखाई भी देता है जो जांच में मदद करता है तो उन्हें इसे जांच एजेंसियों के साथ बांटना चाहिए।ना कि टीवी पर चलाकर आतंकियों की मदद की जाए।
हो सकता है कि ये मेरा केवल भ्रम मात्र हो मगर क्या इससे आतंकियों को मदद नही मिलती ? मीडिया का कार्य ख़बर दिखाना है और अपने स्तर पर जांच भी करना हो सकता है मगर इस प्रकार अनजाने ही सही आतंकियों की मदद तो हो ही रही होती हैं।
मेरा केवल इतना मानना है कि यदि मीडिया को कुछ देखाई दे जो की जांच में मदद करे तो उसे पहले जांच एजेंसियों के साथ बांटे ना कि उसे पहले चैनल पर चला दिया जाए। टीवी इस समय दुनिया के कोने कोने में पहुँच रहा है और उसका असर सही भी होता है और ग़लत भी। तो लोगों को इस ग़लत असर से बचाना भी मीडिया का ही काम है।
और इसी प्रकार शायद इसी बहने पुलिस के कुछ अफसरों को भी अपने चाहेरा टीवी पर दिखाने का मौका मिल जाता है और वो जांच से जुड़े कईं तथ्य मीडिया के साथ बांटने लगते हैं। उन्हें भी चाहिए कि इस प्रकार कि संवेदनशील सूचनाएं मीडिया के साथ जांच पूरी होने से पहले न बांटे।

बुधवार, 14 मई 2008

क्या अपने ब्लॉग पर अपनी राये रखना एक बेवकूफी है?

कल मैंने चीन के मसले पर जो कुछ भी लिखा वो मेरे मन में आया। इसका मतलब ये कतई नही की मैं किसी को नीचा दिखाना चाहता था। और उसमें कितनी समझदारी या बेवकूफी की बातें मैंने लिखी मैं जानता हूँ। इसका जवाब मुझे मेरे साथियों की टिप्पणियों से मिल गया.ये मेरे मन का भाव था, जो मैंने उतारा और इसपर उन सभी साथियों की राये मुझे पसंद आई जिन्होंने टिपण्णी द्वारा मुझे इस पर दुबारा विचार करने के लिए प्रेरित किया मगर हिन्दी ब्लॉग जगत के एक माहन महारथी हैं जिन्हें यहाँ सब जानते हैं यदि उन्हें इस विषय में कुछ कहना था तो एक टिपण्णी डाल देते, ना की मेरे इस लेख को एक मखोल बना कर उन्होंने अपने ब्लॉग पर पोस्ट किया।

जब मैंने ब्लोगरी नई नई शुरू की गई थी तब मुझे बताया गया कि इन मठाधीशों के बारे में कुछ न लिखें, तब मैंने इस बात को हँसी में उडा दिया क्युकी मुझे पता था कि मुझे किसी और के बारे में लिखने की ज़रूरत ही नही है न ही मैं किसी पंगे में पड़ने और बेवजह बदनाम होकर नाम कमाने आया हूँ मगर अपने इन साथी महोदय की टिपण्णी का अंदाज़ मुझे ज़रा भी नही भाया और मैं चाहूँगा कि यदि किसी को लेख के बारे में कुछ भी कहना हो , चाहे मज़ाक ही उडानी हो तो टिपण्णी द्वारा कह सकता है मगर इस प्रकार अपने ब्लॉग पर मखोल की भाँती उसे ना पेश करे।

मैं कोई पेशेवर पत्रकार नही हूँ जो अपने शब्दों को संभाल संभाल के लिखे, हाँ कोशिश करता हूँ कि भाषा भद्दी न होने पाये। ये ज़रूरी नही कि हर एक व्यक्ति कि राये आपस में मेल खाए और ये भी ज़रूरी नही कि अलग ही हो।
मैंने ये पन्ना केवल अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए बनाया है। क्यूंकि हमें सिखाया गया है विचारों का मंथन करने से विचार शुद्ध होए हैं और अगर विचार अलग अलग हो तो और भी बहतर है इससे अच्छा नजीता निकलता है। बस।
अंत में निवेदन एक बार फिर कि यदि लेख पसंद आए या ना आए तो इस विषय में टिपण्णी अवश्य करें मुझे मेरी गलती से टिपण्णी द्वारा ही अवगत करायें ना कि एक मखोल बनाकर अपने ब्लॉग पर पोस्ट करें।
धन्यवाद।
नदीम

मंगलवार, 13 मई 2008

चीन में भूकंप: क्या चीन पर तिब्बत का क़हर पड़ा है?

अचानक ये बात सुनकर मेरे कान खडे हो गए। हम चीन के भूकंप की अभी बात कर ही रहे थे और अफ़सोस ही जाता रहे थे तभी मेरी बहन बोल पड़ी और हम उसका चेहरा देखने लगे. मेरी बहन ने कहा भाई ये तिब्बत का क़हर है न जो चीन पर टूटा है? मैं इस सवाल का जवाब केवल मुंडी हिलाकर ही दे पाया क्यूंकि मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या कहूं. चीन में इतना बड़ा भूकंप आया और हजारों लोग मारे गए उन सभी को हमारी श्रद्धांजलि और परिवारवालों से हमदर्दी तो है मगर इस सवाल का जवाब मुझे सुझाई नहीं दे रहा. हमारे यहाँ कहावत है कि अल्लाह की लाठी बेआवाज़ होती है और बुरा करने वाले को उसका सिला इसी दुनिया में ही मिलता है.तो क्या ऐसा इसलिए हुआ कि चीन ने तिब्बत के लोगों पर ज़ुल्म किये थे?इस सवाल को कुछ देर छोड़ देता हूँ और अमेरिका के बारे में सोचता हूँ.

अमेरिका इराक और अफगानिस्तान के बाद अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रहा है। इस बीच उसने अनेकों तूफ़ान देखे, जंगलों में आग देखी और साथ ही देखी आर्थिक मंदी जिसने उसे सबसे ज्यादा चोट पहुँचाई है.अगर में अपनी छोटी बहन की बात याद करूं तो क्या उसे भी अपने द्वारा इराक और अफगानिस्तान में किया कामों का फल मिल रहा है? क्या जैसे उसने इन देशों की जनता के साथ जो किया उसी का फल मिल रहा है और उसकी भी जनता को झेलना पड़ रहा है?
अब यदि मैं अपनी सोच को इसी तरह रखता हूँ तो शायद रूढिवादी या अंधविश्वासी का तमगा मुझे दे दिया जायेगा. मगर मैं इस सवाल का क्या जवाब दूं मुझे समझ नहीं आया. मैं हमेशा से महनत के साथ साथ किस्मत को भी मानता हूँ. और मेरा ये भी मानना है कि बुरे लोगों के साथ हमेशा बुरा नहीं होता मगर जब होता है तो बहुत बुरा होता है. हम अपनी ताक़त के जोश में अच्छा बुरा और सही गलत भूल जाते हैं मगर हमें याद रखना चाहिए कि हमें अपने किये का फल यहीं अदा करना है.

सोमवार, 12 मई 2008

विजय माल्या:ग़लत नौकरी में फँसे हैं?

शराब के बादशाह विजय माल्या क्या गलत नौकरी में फँस गए हैं इस बार?लग तो कुछ ऐसा ही रहा है। बड़े चाव से उन्होने IPL में क्रिकेट की टीम खरीदी मगर नतीजा उनकी उम्मीद के अनुसार नहीं आया. शायद ऐसा ही हाल डेकन chargers का भी होगा, मगर ऐसा क्यूँ है ये सभी उद्योगपति मुझे लगता है एक गलत काम में शामिल हो गए हैं, जहाँ इन मुनाफा कमाने वालों से रह पाना मुश्किल हो रहा है. दर असल यदि ये लोग खिलाडी होते तो शायद इन्हें पता होता कि IPL को हम जितना भी व्यापारिक कहें खेला ये खेल की ही भाँती जायेगा. यानी इसमें एक टीम हारेगी और एक टीम जीतेगी भी. और केवल चार टीमे ही सेमी final में पहुँचेंगी. और कुछ टीमे ऐसी होंगी जो अत्यधिक मैच जीतेंगी और कुछ ऐसी भी रहेंगी जो अन्तिम स्थान पर रहेंगी ऐसे में केवल एक सीज़न को देखते हुए अपनी टीम पर ऊँगली उठा देना और खिलाडियों और टीम प्रबंधन को बाहर का रास्ता दिखा देना क्या सही होगा? मेरा ख़याल से नहीं. हमेशा कोई अच्छा नहीं खेल सकता. खेल के अन्दर अच्छा और बुरा दौर आता जाता रहता है. ऐसे में केवल खिलाडी ही अपने आप को समझा सकता है. मगर अफ़सोस की बात ये है कि जितनी भी ये टीमे बिकी हैं उसमें मालिकों में खिलाडी कोई नहीं है. हाँ शाहरुख़ खान क्यों के अपने school और कॉलेज के ज़माने में खेला करते थे तो शायद वो इस बात को बहतर समझ सकते हैं शायद यही वजह थी की अपनी टीम के लगातार ३ मैच हारने के बावजूद वो खिलाडियों से यही कहते दिखाई दिए कि हारकर जीतेने वाले को बाजीगर कहते हैं.

और जिन खिलाडियों पर ये लोग ऊँगली उठा रहे हैं क्या उनपर ऊँगली उठायी जा सकती है. सभी कह रहे हैं माल्या के पास टेस्ट टीम हैं मगर क्या आप जक्क़ुएस् काल्लिस और राहुल द्रविड़ के खेल पर ऊँगली उठा सकते हैं और प्रवीण कुमार के साथ मिस्बाह वो किस टेस्ट टीम का हिस्सा रहे हैं माल्या की टीम एक बहतर और शानदार टीम हैं. हमने ऐसी कईं गाडियाँ देखि हैं जो रफ़्तार पकडे में समय लगाती हैं मगर उनके रफ़्तार में आने के बाद कोई उनसे आगे नहीं रह पाता. और यही बात डेकन chargers पर भी लागू होती है.उनके पार ऐडम गिक्रिस्ट और शाहिद अफरीदी है जो यदि १/२ घंटा भी खडे हो जाएँ तो रनों का अम्बार लगा सकते हैं उन्हें अभी और वक़्त देना पड़ेगा.और ये खेल केवल एक सीज़न का नहीं है.टीम के मालिकों से उम्मीद यही है की वो खेल का जिम्मा खिलाडियों और कोच पर छोड़ दें जैसा की मुकेश अम्बानी ने किया है.

शुक्रवार, 2 मई 2008

इंसानों को काम देते नही जानवरों को काम करने नही देंगे!

आज एक ख़बर पढी के हमारे प्यारे यानी के vodafone के प्यारे से कुत्ते के बारे में हमारे कर्तव्य निष्ठ पशु सेवकों को कुछ शिकायत है सुनकर वैसे कोई अचम्भा नही हुआ क्यूंकि ये कोई नई बात नही है मगर थोड़ा अफ़सोस ज़रूर हुआ कि इनकी तकलीफ क्या है? जहाँ इंसानों को काम नही मिलता वही यदि ये कुछ कमा रहे हैं तो क्या बुरा है। और रही बात महनत ओर तकलीफ की तो इंसानों को काम करते वक्त क्या कम तकलीफ झेलनी पड़ती है?
वहाँ तो कोई मदद के लिए नही आता।
अब तो मैं सोच रहा हूँ कि अपने पडोसियों से कहूं कि अपने कुत्ते के साथ खेलते हुए उससे गेंद पकड़कर लाने के लिए न कहें क्यूंकि कहीं ये बात हमारे पशु सेवकों ने दीख ली तो समझ लीजियेगा कि अदालत के चक्कर काटने पड़ेंगे।

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