कोतुहल मेरे दिमाग में उठता हुआ एक छोटा सा तूफ़ान है.जिसमें में अपने दिल में उठा रही बातों को लिख छोड़ता हूँ.और जैसा की नाम से पता चलता है कोतुहल.
सोमवार, 27 अक्टूबर 2008
हर प्रदर्शन में है इंडियन रेलवे की भूमिका!
एक बात समझ नही आती के सबका गुस्सा रेलवे पर ही क्यूँ टूटता है?
कर्नल बैसला को गुस्सा आया तो वो रेल की पटरियों पे जाकर बैठ गए, उनके साथियों ने रेल की पटरियाँ उखाड़ डाली। और तो और इतने लंबे चले आन्दोलन में बहुत सी ट्रेने रद्द हुई और हजारों लोगों को परेशानी उठानी पड़ी।
वही जब बाबा राम रहीम लोगों ने एक समुदाय विशेष पर गोलियां चलायी तो इसके विरोध में भी लोगों ने ट्रेन में बैठे लोगों पर ही अपना गुस्सा निकला और रेलवे की संपत्ति तोडी गई।
फिर बारी आई राज के गुंडों की और उन्होंने भी रेल में गुस्कर उत्तर भारतियों को निशाना बनाया और स्टेशन पर तोड़ फोड़ की। साथ ही रेलवे की परीक्षा में बाधा भी पहुंचाई जिसका सीधा असर रेलवे को होगा।
अब समय था इस का विरोध करने का तो वहां तो हद ही हो गई , रेल का इंजन ही लेकर रवाना हो गए। स्टेशन तोडा और रेलवे करमचारियों और संपत्ति को नुक्सान पहुँचाया गया।
ऐसे कई उदाहरण है जब तब भारतीय रेल लोगों के गुस्से का शिकार बनी जब इसका उसमें कोई हाथ नही था।
इसमें एक मजेदार बात ये है की भारतीय रेल हम सभी की ज़िन्दगी से जुडा हुआ है। हम सभी को इसकी ज़रूरत है मगर अपना गुस्सा भी हम इसी पर ही क्यूँ निकालते हैं।
क्यूँ भारतीय रेल के अधिकारी नुक्सान पहुँचने वाले लोगों से इसका हर्जाना नही वसूलते? क्या ऐसा नही होना चाहिए कि जिस गुट विशेष या दल विशेष की वजह से नुक्सान हुआ है उन्ही से इसके नुक्सान की भरपाई करायी करायी जाए?
क्या कोई इस बारे में मुझे समझाने की कोशिश करेगा।
शनिवार, 23 अगस्त 2008
हाईकोर्ट की ग़लती क्या है? वकीलों को दी गई सज़ा या बार कौंसिल के कार्य में हस्तक्षेप?
मेरे कल और परसों के लेख पर कईं साथियों का साथ मिला और इस पर मुझे कुछ जानकारियों से भरे मेल भी प्राप्त हुए। मुझे बताया गया कि उच्च न्यायालयों को सज़ा सुनाने का अधिकार ही नही है। और किसी वकील के कार्य पर केवल बार कौंसिल ही फैसला ले सकता है। हालांकि बात मेरे गले आसानी से नही उतरती मगर क्यूंकि मैं कानून का कोई जानकार नही हूँ तो इस पर बहस नही कर सकता। मगर मैं वकील बिरादरी से ये पूछना ज़रूर चाहूँगा कि क्या उनकी परेशान ये है कि हाई कोर्ट ने उनके कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप की कोशिश की या ये कि उनके साथियों को सज़ा दी गई? क्या एक दिन की गेरहाज़री से अपना पक्ष रखने की बजाये वो हाई कोर्ट के इस फैसले जिसमें बकौल बार कौंसिल हाई कोर्ट ने उनके कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप किया है के ख़िलाफ़ कोई अपील दायर नही कर सकते थे जिससे कि देश की जनता तक एक सही संदेश जाता। और वो ख़ुद कोई ऐसी पहल क्यूँ नही करते जिससे भ्रष्ट वकीलों पर कार्यवाही हो सके।
और एक बात जिसपर कोई वकील तो कम से कम बात शायद नही करना चाहता कि आख़िर उन्हें जो सज़ा दी गई है क्या वो काफ़ी है? जब एक इंसान जो छोटी मोटी गलतियां करता है जाने या अनजाने में तो उसे बड़ी बड़ी सजाएं दी जाती है तो वहां केवल ४ माह की अदालत में घुसने पर पाबंदी और २०००/- रु मात्र का जुर्माना क्या दिखता है?
क्या वकीलों को ये दिखाई नही दे रहा और इस प्रकार के इन्साफ के खिलाफ वो कुछ क्यूँ नही करते। क्यूँ पहल नही करते कि इन और इन जैसे वकीलों को कदा दंड दिया जाए? क्यूँ नही इसको एक मुहीम बनाया जाता?
शुक्रवार, 22 अगस्त 2008
क्यूँ वकीलों से भिड रहे हो जज साहब? इनकी ग़लती कहाँ है? ग़लती तो आपकी है, जो इन्हे ग़लती की सज़ा दे रहे हो!
बचपन में एक कहावत सुनी थी कि उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। मगर यहाँ ये कहावत कुछ ऐसी लग रही है कि उल्टा वकील जज को डांटे। क्यूंकि कल ऐ यु खान और आर के आनंद पर जो दिल्ली हाई कोर्ट का फ़ैसला आया है उसके बाद ऐसा मालूम हुआ मनो किसीने इनकी दुम पर पैर रख दिया हो। बजाये इसके कि ख़ुद शर्मिंदा होते कि पिछले १५ महीनो में उन्होंने जिस केस को दबाकर रखा था उसपर कोर्ट ने फ़ैसला सुना दिया। जो फ़ैसला पहले बार कौंसिल को करना चाहिए था उसे कोर्ट को करना पड़ा। होना ये चाहिए था कि इस फैसले के बाद शर्मिंदा होते उन्होंने तो अदालत के अधिकार पर ही ऊँगली उठा दी। होना ये चाहिए था कि इन दोनों कानून के सौदागरों के ख़िलाफ़ और भी कड़ी सज़ा की माँगा करते उन्होंने इसके विरोध में ख़ुद खड़े होने का मन बना लिया। क्या बात है वकील बिरादरी! मुबारक हो आपको। ना जाने क्यूँ इसके बाद मुझे ऐसा लग रहा है कि कहीं इन दोनों को बचाने की कोशिश इस लिए तो नही हो रही क्यूंकि ऐसा काफ़ी वकील करते हो। वो भी इसी प्रकार बचाव और सरकारी पक्ष मिलकर आरोपियों को बचाने का "धंधा " करते हो।
और मैं धन्यवाद देना चाहूँगा उन साथियों का जिन्होंने मेरे इस ख़याल के ये सज़ा जो इन लोगों को मिली है कम है में मेरा समर्थन किया है।
गुरुवार, 21 अगस्त 2008
कानून की धज्जियाँ उडाने का इनाम : चार माह की छुट्टी और मात्र २०००/-रु का जुर्माना!
आज सुबह से देश के तमाम ख़बरिया चैनल्स वरिष्ठ वकीलों और कानून की धाज्जियाँ उड़ने वाले आर के आनंद और ऐ यू खान को दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा सुनाई गई चार माह और दो हज़ार रु के जुर्माने पर ख़बर चला रहे हैं। क्या ये सज़ा काफ़ी है? इस बारे में विचार क्यूँ नही किया जा रहा। आम तौर पर यदि कोई आम नागरिक कानून को ग़लती से भी तोड़ता है तो उसे लम्बी और कड़ी सजाएं सुनाई जाती हैं जबकि उसको कईं बार अपनी हरकत के बारे में पता ही नही होता कि उसने कोई कानून तोडा भी है या नही। मगर यहाँ तो देश को दो जाने माने अधिवक्ता थे जिन्हें कानून और उसकी सज़ाओं के बारे में पूर्ण जानकारी थी। मगर फिर भी उन्होंने एक साजिश रचने की कोशिश की। क्या उन्हें और बड़ी और कड़ी सज़ा नही मिलने चाहिए थी। मैं माननिये अदालत का सम्मान करता हूँ, मगर क्या उनकी इस हरकत पर अदालत की तौहीन का एक और मामला न चलाकर उन्हें जेल में नही डाल देना चाहिए था, जिससे एक बड़ी मिसाल कायम होती। ये तो बात रही जहाँ एक बड़ा मामला था और जहाँ हर बार मीडिया की एक भीड़ इस मामले को कवर कर रही है। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस प्रकार छोटे छोटे शहरों में जहाँ कोई स्टिंग ऑपरेशन करने के लिए मीडिया मौजूद नही होती वहाँ ये वकील किस प्रकार से गवाहों को खरीदते और बेचते होंगे या डरा धमका कर आरोपियों को बचाते होंगे।
दरअसल ये मसला है संजीव नंदा नाम के एक युवक का जिसने सन् १९९९ में ७ लोगों को अपनी गाडी के नीचे कुचल दिया था। जिसमें ६ लोग मारे भी गए थे। वही मामले के तीन दिन बाद एक युवक सामने आया जिसने ख़ुद को मामले का चश्मदीद बताया। अभी ये मामला निचली अदालत में चल ही रहा था कि ये स्टिंग ऑपरेशन सामने आया जिसमें पाया गया कि किस प्रकार बचाव पक्ष और सरकारी पक्ष के वकील इस मामले को एक तरफा बनाने पर जुटे हैं और चश्मदीद को खरीदना कहते हैं।
इस ऑपरेशन ने सबकी आँखें खोल दी। ऐसे लोग सामने थे जो कि जाने माने हैं इस कानून की दुनिया में। मगर उनकी ऐसी हरक़त ने अब न्याय मिलने की आस को फिर से अमीर की चौखट पर दम तोड़ते देखा है। यदि ये स्टिंग सामने न आता और वाकई चश्मदीद बिक जाता तो एक बार फिर से इन्साफ नही होता।
क्या ऐसा करने वालों के ख़िलाफ़ की गई कार्यवाही काफ़ी है? हलाँकि उन्हें दी गई ये सज़ा केवल उनके दिल्ली की हाई कोर्ट और निचली अदालत में प्रवेश पर ही लागू होगा, ये दोनों अपनी consultancy चला पाएंगे।
क्या ऐसे में इस सज़ा के कुछ मायेने होंगे और क्या ये केवल २०००/- रु का जुर्माना काफ़ी होगा। अब क्यूंकि ये दोनों ही जाने माने और बड़े वकील है तो यह बात तय है कि ये सर्वोच्च न्यायालय जायेंगे और हो सकता है इस मसले पर ख़ुद को कुछ बचा भी पाएं। इस मसले पर मिली उन्हें सज़ा दरअसल केवल उनके लिए नही है ये एक धब्बा है जो हमारे कानून और पूरी न्याय व्यवस्था पर लगा है और जो सामने आया है, जो सामने नही आते वो अलग है।
मंगलवार, 19 अगस्त 2008
ज़रा सुनो तो, क्या कहती है ये यमुना!
बड़े दिनों बाद बेपरवाह बह रही है ये,
के है मुश्किल थामना पानी को ज़ंजीरों में है।
पिछले दिनों बड़े दिन बाद मुझे मौका मिला यमुना किनारा देखने का और दिल बाग़-बाग़ हो गया।पानी अजी पानी का क्या,लहरें यूँ उठ रही थी मानो आज इनका इरादा रुकने का नही है। रास्ते में आने वाले झाड़ , टूटे हुए पेड़, कूड़ा कुछ भी ऐसा नही था जो कि इसको रोक सके। हवा ऐसी कि जैसी पिछले ६-7 सालों में शायद ही चली हो।और नदी ऐसे बेपरवाह के जैसे उसे किसीसे कोई मतलब ही न हो, मानो कह रही हो "बहुत मौका दिया तुम्हे के तुम मुझे साफ़ करो. तुम तो इतने सालों में कामयाब नही हुए मगर मैंने इस बार कमर कस ली है के इस बारिश के मौसम में सारा कूड़ा और करकट, सारा गंद मुझे ही बहा के ले जाना है।" सच में मुझे ऐसे लगा कि जैसे यमुना पे बहार आई हो।
हालांकि कुछ लोगों को हो सकता है मेरा ऐसा कहना बुरा लगे कि "एक तो यमुना का जल स्तर बढ़ रहा है और ख़तरा भी मगर इस बन्दे को क्या पसंद आया इसका।" तो जनाब वैसे मेरा यमुना के साथ पुराना रिश्ता है। अगर में ये कहता हूँ कि बड़े दिन बाद किनारे पर गया तो इसमें मुझे अफ़सोस भी होता है, मगर वहां जाना मैंने उस बदबू के कारण छोड़ा जो कभी आपको नाक से कपड़ा हटाने नही देती। मैं लक्ष्मी नगर में रहता हूँ और इस इलाके को जानने वालों को पता होगा कि ये यमुना के किनारे ही बसा हुआ है। कभी अपना बचपन, अपनी उदासी के लम्हे, और अपनी पढाई के दिन सब वही हुआ करते थे। जब दिल करता कि यार बैचैनी हो रही है तब साइकिल लेकर या पैदल ही उस ओर चल पड़ते। सुबह को घूमने जाना हो या शाम को दोस्तों के साथ वक्त गुजारना हो, गर्मियों की छुट्टियां तो मानों वही ख़त्म होती थी। उसी इलाके के आसपास के खेतों ओर किनारे पर जमें पेड़ों से पत्ते तोड़कर अपनी प्रयोग की पुस्तक को सजाया जाता था। जब पता चला कि उदासी नाम की भी कोई चीज़ होती है तो भी वही जा बैठते थे। इसके बाद इम्तिहान की तैयारी, सब इकठ्ठा हुए और चल दिया यमुना के तीर।मुझे आज भी याद है हम कक्षा १० कि तैयारी कर रहे थे। फरवरी के माह में शाम को किनारे बैठे - बैठे ऐसी सर्द हवाएं चलने लगी कि मानो आज ये बैठने ही नही देंगी और हमने अपनी साइकिल उठा के वापस लौटना ही बेहतर समझा।
फिर वो वक्त भी आया के जब यमुना के किनारे बैठना तो दूर, खड़े होना भी मुहाल होने लगा। ये ऐसा वक्त था जब बड़े ज़ोर शोर से यमुना बचाओ और यमुना सफाई अभियान चल रहे थे। हम ये सोचकर हैरान थे कि हो क्या रहा है। बजाये साफ़ होने के ये यमुना गन्दी क्यूँ होने लगी है। मगर कोई जवाब नही। और फिर धीरे यमुना का हाल ज़माने ने देखा और सब इस यमुना को गंदे नाले के नाम से जानने लगे। जब भी कोई इसे गन्दा नाला कहता मुझे बड़ा अफ़सोस होता था। मगर सच्चाई से मुँह फेरना काम नही देता। अपना भी मन हुआ कि किसी ऐसी संस्था से जुडा जाए जो इसे साफ़ करने का इरादा रखते हैं। कुछ संस्थाओं का पता भी चला मगर अधिकतर का इरादा सफाई से शोर ज़्यादा मचाने में था। हर कोई बस यही चाहता है कि सरकार कुछ करे और बाकी लोग बस नुक्ताचीनी करते रहे। ख़ुद का इरादा बस अखबार और टीवी पर ही आना होता था। आज भी जितनी संस्थाएं है अधिकतर अपना प्रदर्शन केवल टीवी के सामने ही करती है और उसके बाद अपने टेंट उखाड़ कर चलती बनती हैं। यहाँ भी दिल टूट गया तो फिर यमुना किनारे ही आकर बैठ गए और नाम पर एक कपड़ा रख लिया।
मगर यमुना को साफ़ करने का जो रास्ता आज यमुना ने दिखाया है हमें उसको समझना चाहिए। हमें यमुना को साफ़ करने कि ज़रूरत नही है। अपनी गन्दगी तो यमुना ख़ुद बहाकर ले जायेगी, ज़रूरत इस बात की है कि हम इसमें और गंदगी को न जाने दें। आज यमुना काफ़ी हद तक साफ़ है यदि इसमें आगे से हम गंदगी को जाने न दें तो ये दुबारा अपनी पुरानी रंगत में आ जायेगी।
रविवार, 17 अगस्त 2008
जब बॉस की खिंचाई का मौका मिल जाए!
ऐसा कितनी कम बार होता है कि आप को बात बात पर टोकने वाला आपका बॉस कहीं, खासतौर पे किसी मीटिंग में बाकी स्टाफ के पीछे पड़ा हो और उस समय आपको मौका मिल जाए उसकी खिंचाई करने का, तो सोचिये कैसा मज़ा आता है.
मेरी पहली जॉब थे। उस समय मैं एक कॉल सेंटर में था और एक बड़ी टेलिकॉम कंपनी के कस्टमर केयर में था, ज़ाहिर सी बात है कस्टमर केयर में था लोगों की सेवा मेरा कर्तव्य था। अलग बात ये है कि हम केवल लोगों की सेवा में विश्वास रखते थे, मगर अपने बॉस कि जी हुजूरी नही बजाते था। तो जनाब पहले ही हमारे अपने बॉस से ऐसे रिश्ते थे जैसे भारत और पाकिस्तान के,मतलब मिलते तो थे मगर हमें पता है उनके ह्रदय में हमारे लिए ज़बरदस्त श्लोक चल रहे होते थे। उस पर वो हमें निकल पाने में अक्षम था कारन अपना मस्त रिकॉर्ड जिसमें ऑफिस के लोगिन टाइम के अलावा सब हरे रंग से रंग होता था और साथ में बेस्ट performer में नाम भी। तो जनाब अक्सर इस चक्कर में रहते थे कि इन्हे कुछ कहने को मिल जाए, मगर हम कहाँ किसीके हाथ आने वाले।
मौका उसे तब मिल गया जब टेलिकॉम कंपनी से शिकायत आई के हमारे सेंटर में ज़्यादातर लोग CRM के एक ख़ास header से कुछ ज़्यादा ही मुहब्बत करते हैं और जो समझ नही आता उसे एक ही header में डाल कर उसकी entry कर देते हैं। हमें एक बात और बताई गई थी कि यदि किसी ग्राहक को अपना फ़ोन नम्बर याद न हो तो उसकी तकनीकी शिकायत को आगे न बढाया उससे कहा जाये को वो अपना नंबर याद करके या पता करके संपर्क करे और उसकी एंट्री CRM के अलग एक सामान्य हेडर में दर्ज कर दिया जाये.मज़े की बात ये थी कि ये बात हमारे बॉस को पता नहीं थी.
अब शिकयत के बाद हमारे बॉस ने हमें एक कक्षा में बुलाया और लगे सबकी खिंचाई में। मजेदार बात ये थी कि हमारे टीम लीडर पूरी तरह से सारे प्रोसेस को समझता था और उसके पास सबकी परफोर्मेंस रिपोर्ट भी होती थी और कौन क्या और कितना जानता है उसे पता था तो वो पहले में मेरे पास बैठा था. सब से होते हुए बात मेरे पास पहुंची कि "नदीम जी आपके पास ये कॉल आई थी और आपने लिखा है कि ग्राहक की ये परेशानी है और उसे कहा गया कि नंबर लेकर कॉल करे. जब आपको उसकी परेशानी पता थी तो पहले तो आपने उसकी शिकायत को आगे क्यूँ नहीं बढाया और उसकी CRM में एंट्री आपने इस हेडर में क्यूँ की?" इतना कहना था और हमारे बॉस साहब सीना चौडा करके सबकी तरफ देखने लगे और शायद सोच रहे हो कि आज तो मैंने नदीम को पकड़ लिया है और इसकी खिंचाई होगी. मगर मैंने आगे से एक सवाल दाग दिया कि "आप ही बताईये जब ग्राहक को अपना नंबर ही पता नहीं था और वो कॉल दुसरे नंबर से कर रहा था यदि में शिकायत को आगे बढा देता तो क्या उस पर कोई कार्यवाही होती? मैंने आगे कहाँ कि कोई और समस्या होती तो में एक dummy नंबर लेकर उस पर शिकायत दर्ज करके आगे बढा देता और alternate नंबर कि सहायता से बाद में हम उसका नंबर लेकर उसकी परेशानी को हल कर सकते थे". आगे से जनाब ने पता नहीं क्या सोचा और बोले तो कर देते dummy नंबर में शिकायत दर्ज. इतना बोलना था और सारे कमरे में ठहाके गूंजने लगे. अब भी बॉस को पता नहीं चला कि क्या हुआ है तो उन्होंने हमारे टीम लीडर को देखा और उसने कहा सर पहली ही लाइन में लिखा है टेक्नीकल प्रॉब्लम तो इसमें ये क्या करता? सही जवाब दिया और सही जगह एंट्री कर डाली.अगर ये इसकी शिकायत कर देता तो आप ही इसे पकड़ लेते. काफी देर तक कमरे में हंसी बंद नहीं हुई और बाद में उन्होंने कहा यार तुम लोग ख़ुद ही इस समस्या को discuss कर लो मुझे बाद में बता देना और वो निकाल लिए. इसके बाद क्या discuss होना था? बस यही discuss होता रहा कि बॉस के चेहरे का रंग कैसा हो गया था और वो कैसे घबराए हुए से नज़र आ रहे थे.
उस दिन के बाद वो मेरे सामने आते तो कहते नदीम जी कोई समस्या तो नहीं है, ज़रा इन नए executives को देख लिया करो और सारे नए लोगों को मुझसे ज़रूर मिलवाते थे। हाँ लड़कियों से हम पहले ही मिल लिया करते थे.:)
गुरुवार, 31 जुलाई 2008
मायावती की मूर्ती न गिराओ! एक मज़दूर की गुहार!
रही मूर्तिकारों की तो इनकी परवाह है किसे? जो पहले बड़े और महान नेताओं की मूर्तियाँ बनाते थे वही अब केवल भगवान् की मूर्ती बनते है जिससे इनका हौसला बढ़ता है या फिर कुछ सजावटी वस्तुएं जिनसे शायद ही इनका कुछ खास भला होता होगा।
गुरुवार, 19 जून 2008
रात, तन्हाई, थोड़ा अँधेरा और मेरा दोस्त, मेरा रेडियो!
रात, तन्हाई, थोड़ा अँधेरा और मेरा दोस्त, मेरा रेडियो!
परसों सभी कामों से फारिग होकर घर के एक कोने में जा बैठा, अचानक गली से रेडियो की अवाज़ कान में पड़ गई, फिर क्या दौड़कर अपना छोटा सा रेडियो ले आया। कुछ शोर मचाते stations को बदलने के बाद एक रेडियो स्टेशन पर आकर उंगलियाँ रुक गई, कोई अपना सपना बता रहा था! फिर रेडियो jockey की मधुर आवाज़ सुनाई दी जो उन जनाब के सपनो के सच होने की दुआ कर रही थी। फिर इसके बाद उन जनाब का पसंदीदा गाना बजाया गया। तन्हाई, रात, हल्का अँधेरा और रेडियो का साथ जिसपर मधुर गीत बज रहे हों, कभी-कभी क्या, हमेशा ही माहौल को रंगीन बना देता है। साथ इस पर आने वाले हर jockey, हर फरमाईश करने वाले और उसकी पसंद के बजते गानों के साथ मन अपने आप को पता नही क्यूँ जुड़ा हुआ सा महसूस करता है।
कभी हमारे एक teacher हुआ करते थे जिनकी उम्र हमसे कुछ खास ज़्यादा नही थी, लगभग हमारी ही उम्र के उनका नाम शिशु है, उनसे एक बार किसीने पूछा कि इंसान का सबसे अच्छा दोस्त कौन होता है, उन्होंने कहा "रेडियो" । इस जवाब की किसीको उम्मीद नही थी। फिर उन्होंने बताया कि किस तरह इंसान अपने आप को इससे जुड़ा हुआ महसूस करता है। अपने दिल कि हर एक बात रेडियो पर कॉल करके बताते है और किस तरह रेडियो पर बोलने वाले सबकी बातों को ध्यान से सुनते हैं और अपनी राये देते हैं। और सबसे बड़ी बात ये ऐसा दोस्त हैं जिसपर अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, किसी भी चीज़ का फ़र्क नही पड़ता। इसको एक रिक्शा चलने वाला भी सुनता है और इसको उच्च पदों पर बैठने वाला भी सुनता है। और वाकई आज जब मनोरंजन के इतने साधन हैं वहाँ अभी भी रेडियो का अपना महत्व और पसंद करने वाले हैं।
आज भी ऐसे लोगों को कमी नही है जो रेडियो पर ख़त लिखकर अपनी पसंद के गाने बजने का इन्तेज़ार करते हैं और अभी भी सुनने वालों कि जब लिस्ट होती है तो अपने पूरे मुहल्ले का नाम लिखते हैं और हाँ जब वो गाने बजें तो पूरा मोहल्ला या कहूँ गाँव बैठकर उसको सुनता है और अपना नाम भी सुनता है। हाँ भले ही अब खतों की जगह काफ़ी हद तक फ़ोन ने लेली हो मगर सुनने वालों की उत्सुकता कम नही हुई है। शायद रेडियो आज भी आम आदमी से जुड़ने का सबसे आसान तरीका है। बस कमी ऐसे रेडियो stations की है जो शोर को कम रखें और लोगों से जुड़ने वाले प्रोग्राम बनाये।
बाक़ी रेडियो से जुड़ी तो काफ़ी बातें हैं जो आगे भी जारी रहेंगी।
रविवार, 15 जून 2008
चेतावनी : पढने वाले अपनी ज़िम्मेदारी पर पढ़ें! लेख तकनीकी तौर पर सही होने की ज़िम्मेदारी नही है!
उन्होंने मुझे बता कि जनाब आप हिन्दी लिखते वक्त उर्दू का प्रयोग बहुत करते हैं, कहीं कहीं भोजपुरी और पंजाबी भी चली आती है। सबसे ज़्यादा शिकायत आई हमारी तुकबंदी को लेकर, अब मुझे क्या पता था इसमें भी तकनीक लगती है। बहरहाल हमारी कक्षा घंटो तक चली और अंत में हमसे पूछा गया कि क्या सीखे? अब जवाब के मौके पर अपनी मुंडी फिर नीचे।
इसके बाद हिम्मत करके हमने भी पूछ ही लिया की पहले ये बताओ बात समझ आ गयी न क्या लिखा था पोस्ट में? उन्होने हाँ में सर हिला दिया और फँस गए। मैंने कहा, "बस तो फिर अपना काम है अपनी बात को समझाना। और जो भाषा लिखता हूँ अधिकतर लोगों की समझ में आ जाती है. "अब ये सुनकर जनाब खामोश हो गए। और वैसे भी अभी लेखन शुरू किया है। कोई साहित्यकार नही हूँ, हो सकता है समय के साथ सुधार आजाये। वैसे इसकी उम्मीद काफ़ी कम है।बाकि कोशिश जारी रहेगी।
मैंने भी सोचा कि क्यूँ न एक चेतावनी के तौर पर एक बार ब्लॉग पर पोस्ट कर दूँ।
चेतावनी : पढने वाले अपनी ज़िम्मेदारी पर पढ़ें! लेख तकनीकी तौर पर सही होने की ज़िम्मेदारी नही है!
शुक्रवार, 13 जून 2008
हम हिन्दी में लिखने वाले, किसीसे कमतर हैं क्या?
यूँही बैठे हुए अपने ब्लॉग पर कुछ कोतुहल उतार रहा था इतने में एक पढ़े लिखे जनाब आ गए। बोले," क्या कर रहे हैं हिन्दी में लिख रहे है आप तो"। ये कहकर जनाब ने हँसना शुरू कर दिया। अब जनाब हिन्दी भाषी है तो हमने भी बता दिया के, "भइया मैं उस भाषा में लिखता हूँ जिसे मेरे देश के करोड़ों लोग बोलते और समझते हैं।"
अब अगला सवाल क्या आपको अंग्रेज़ी नही आती है? अब इस सवाल का जवाब उसे मेरे आलावा मेरे पास बैठे सभी लोगों ने दे दिया।
फिर मैं सोचने लगा यार इसके पूछने का मतलब क्या था और वजह क्या थी? क्या ये मुझे या हम हिन्दी में लिखने वालों को कुछ कमतर समझ रहा है? फिर तो मैंने मन बना ही लिया जय अब तो जनाब को हिन्दी साहित्य से अवगत कराना ही पड़ेगा। बस फिर क्या है धीरे धीरे हिन्दी ब्लॉग पढने की लत लगा दी है, अब किसी न किसी दिन जनाब का भी ब्लॉग पढने को मिलने वाला है..वो भी हिन्दी में।
१६ मई २००८ के बाद देश में कोई क़त्ल नही हुआ!
ऐसा नही है कि मुझे आरुषी या हेमराज से सहानुभूति नही है, मगर मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि हम एक को इन्साफ दिलाने पर ज़्यादा ज़ोर से रहे हैं और इस बीच कई लोगों को इन्साफ मिलने में देर आ रही है। हम अपने न्यूज़ चैनल्स कि जितनी चाहे आलोचना करें मगर ये सच है कि इनके दबाव के कारण बहुत से मामले जल्दी सुलझाए गए हैं।
इस बीच एक और मामला है जो कि गाजियाबाद का जहाँ कई बच्चे पिछले कई दिनों से गायब हो रहे है और उनकी सुध लेने वाला कोई नही है। बच्चों से संबंधित सभी संस्थाएं केवल आरुषी मामले को ही देख रही हैं मगर उन बच्चों का क्या उन्हें कौन देखेगा? हाँ ये ख़बर मुझे एक अंग्रेज़ी अखबार से मिली मगर वो भी भीतरी पन्नों में थोडी सी।
गुरुवार, 5 जून 2008
जैसा व्यक्तित्व वैसा विरोध! क्या गुजरात और क्या महाराष्ट्र!
अब मंथन शुरू हुआ पहले तो ये कि क्या हमारे देश में किसी के बारे में लिखना इतना जोखिम भरा है?
इन दोनों में से किसी भी सम्पादक ने ये नही सोचा होगा कि उनके साथ इतना बुरा हो सकता है।
मगर विरोध करने का तरीका क्या हो और कौन क्या तरीका अपनाता है? थोड़ा बहुत सोचने पर पता चला कि विरोध भी व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। जिसका व्यक्तित्व पुलिसिया था उसने उसी तरह दिखाया और अपनी वर्दी का रॉब भी झाड़ दिया। अब जो गुंडा है उससे किस तरह के विरोध की उम्मीद की जा सकती है। उसने उसी प्रकार विरोध जताया अब बच गए शरीफ लोग उनको वैसे भी भूखा मरना है वो लोग मेघा पाटकर की भांति भूखे रहकर विरोध जताते हैं।
अब मुझे लगता है बाकी लोगों के बारे में यदि में चुप रहूँ तो शायद मेरी सेहत के लिए भी बेहतर रहेगा। [:)]
क्यूंकि आजकल बोलने और लिखेने वालों का ही अधिक विरोध हो रहा है।
सोमवार, 19 मई 2008
शर्तिया लड़का ही होगा!
इसे देखकर थोड़ा अफ़सोस क्या काफ़ी अफ़सोस होता है कि इस वक्त भी कुछ लोग हैं जो बेटे और बेटी में फर्क महसूस करते हैं। थोडी बेचैनी हुई तो पता किया कि ये दवाई खाता कौन है। मुझे बताया गया ऐसे लोग जिनको कईं बेटियाँ हो गई है वो इस दवाई को अपनी बहुओं को खिलाते हैं। अब ये जवाब सुनकर सर और चकरा गया। ये नही कि बेटियों वाले लोग मगर बहुए या कहूं की महिलाये दवा खाती हैं और दावा ये की बेटा ही होगा? मगर कैसे जितना विज्ञान मैंने पढ़ा है मुझे बताया गया है कि महिलाओं में केवल एक ही गुणसूत्र होता है जिसको X कहते है और मर्द के पास दो यानी X और Y। यानि मर्द के पास ही वो गुणसूत्र होता है जिसके मिलने से महिला के गर्भ में एक लड़के की पैदाईश कि गुन्जायिश हो। यानी लड़का यदि होगा तो उसके लिए मर्द जिम्मेदार होगा और यदि लड़की तो उसके लिए भी मर्द। यानी इसमें मर्द की ज़िम्मेदारी बन जाती है कि क्या पैदा हुआ। अब सवाल ये उठता है कि यदि महिला को ये दवा दी जायेगी तो लड़का कैसे पैदा होगा? जो काम उसका है ही नही तो दवा उस पर क्या असर करेगी? तो ये वैद्य जी या जो हकीम साहब बैठे हैं और दावा दे रहे हैं वो तो पक्का उल्लू बना ही रहे हैं। मगर सरकार की इतनी महनत के बाद भी लोग अब भी लड़की पैदा होने का दोष किसी महिला पे कैसे डाल सकते है?
यदि इस प्रकार की कोई दवा है तो उसे मर्द को खिलाया जाना चाहिए। मगर इतने साल में मुझे कोई वैद्य या हकीम ऐसा नही मिला जो कहे कि ये दवा मर्द के लिए बनी है और इसे खाने के बाद बेटा होगा। मेरी एक रिश्तेदार है जिनके दो बेटे पैदा हुए उसके बाद वो चाहते थे कि अब उनके घर लड़की आये मगर इसी खावाहिश में उनके घर चार बेटे पैदा हो गए. और अब तक लड़की नहीं आई है उन्हें तो आजतक कोई ऐसा वैद्य नहीं मिला जो उनकी लड़की की ख्वाहिश को पूरा कर सके. क्या वैद्य और हकीम साहब को ऐसी कोई बूटी नहीं मिलती जिससे लड़की पैदा हो सके.
अब एक और रिश्तेदार हैं जिनके पहले से २ लडकियां है और सुना है कि इस बार उन्होंने अपनी पत्नी को यही किसी हकीम साहब की दवा खिलाई है और लड़के की चाहत में पहले जहाँ पत्नी पर जुल्म किया करते थे आजकल बर्तन और झाडू तक पति महोदय ख़ुद ही किया करते हैं। वो नही चाहते कि उनके बेटे को कोई तकलीफ भी हो। मगर ये बात सिचकर और उनके पिछले ईतिहास को देखकर दिल दहल उठता है पहले लड़की होने पर किस प्रकार उन्होंने अपनी पत्नी पर ज़ुल्म किया और वो भी अपने घरवालों के सा मिलकर और यदि इस बार भी हकीम साहब की दवा फ़ैल हो गई तो उनका क्या होगा?
आखिर कब तक ऐसे वैद्य या हकीम लोगों को पागल बनाते रहेंगे और कब तक लोग इस अन्तर को छोडेंगे?
आज मैं अपनी ज़िंदगी के सबसे दुखद अनुभव को बांटना चाहूँगा कि जब मैं tuition पढाया करता था तो एक बच्चा मुझेसे पढ़ा करता था एक दिन मैंने उसके घरवालों के सामने उससे कहा कि यदि नहीं पढ़ेगा तो तुझे कहीं और छोड़ आयेंगे तो उस केवल ८ साल के लड़के ने मुझे जवाब दिया ऐसा नहीं होगा सर मैं अपने घर का इकलौता लौंडा हूँ, बाकी तो तीनों लौंडियाँ हैं. उसका ये जवाब सुनकर मैं हैरान रह गया कि किस प्रकार इतना छोटा बच्चा ये बात सोच सकता है? जिसके बाद मुझे उसके माँ बाप की क्लास लगानी पड़ी. और जब बैठकर सोचा तो ध्यान आया कि किस प्रकार उसकी माता उस पर अपनी बेटियों से ज़्यादा ध्यान देती है और उसी के सामने बेटियों को डांटती हैं. शायद ये मेरा ज़िंदगी का सबसे बुरा दिन था जो मेरे घरकी परम्परा के लगभग उल्टा था।
बात वैद्य जी की हो रही थी तो इस बार मेरा इरादा बन रहा है कि वैद्य जी से ये राज़ पूछकर ही आऊंगा कि कैसे मर्द के गुन महिलाओं में पैदा किए जा सकते हैं ?आख़िर कौनसा विज्ञान है जो यहाँ काम करता है?
शुक्रवार, 16 मई 2008
जयपुर धमाके: क्या ख़बर के नाम पर आतंकियों की मदद की गई?
अब सवाल ये उठता है कि क्या उन्हें ये ख़बर नही चलानी चाहिए थी? बिल्कुल चाहिए और यही उनका काम भी है मगर ज़रूरी नही कि वो भी पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों के साथ साथ अपनी जांच भी करें और उसे लगातार टीवी पर चलाया जाए? ये बात तो जग ज़ाहिर है कि मीडिया में ऐसे कईं लोग है जिनका दिमाग बहुत तेज़ चलता है और यदि उन्हें ऐसा कुछ दिखाई भी देता है जो जांच में मदद करता है तो उन्हें इसे जांच एजेंसियों के साथ बांटना चाहिए।ना कि टीवी पर चलाकर आतंकियों की मदद की जाए।
हो सकता है कि ये मेरा केवल भ्रम मात्र हो मगर क्या इससे आतंकियों को मदद नही मिलती ? मीडिया का कार्य ख़बर दिखाना है और अपने स्तर पर जांच भी करना हो सकता है मगर इस प्रकार अनजाने ही सही आतंकियों की मदद तो हो ही रही होती हैं।
मेरा केवल इतना मानना है कि यदि मीडिया को कुछ देखाई दे जो की जांच में मदद करे तो उसे पहले जांच एजेंसियों के साथ बांटे ना कि उसे पहले चैनल पर चला दिया जाए। टीवी इस समय दुनिया के कोने कोने में पहुँच रहा है और उसका असर सही भी होता है और ग़लत भी। तो लोगों को इस ग़लत असर से बचाना भी मीडिया का ही काम है।
और इसी प्रकार शायद इसी बहने पुलिस के कुछ अफसरों को भी अपने चाहेरा टीवी पर दिखाने का मौका मिल जाता है और वो जांच से जुड़े कईं तथ्य मीडिया के साथ बांटने लगते हैं। उन्हें भी चाहिए कि इस प्रकार कि संवेदनशील सूचनाएं मीडिया के साथ जांच पूरी होने से पहले न बांटे।
सोमवार, 14 अप्रैल 2008
आरक्षण: फायेदा किसका?
पहले सरकारी नौकरियों में आरक्षण,अब पढाई में आरक्षण इरादा तो अब ये है कि निजी कंपनियों में भी आरक्षण किया जाए। आज हम किसी सरकारी कम्पनी में काम सरकारी कम्पनी में काम मांगने जाते हैं तो वहाँ सब से पहले अपनी जाती लिखनी पड़ती है, यदि आरक्षण निजी कंपनियों में आएगा तो वहाँ भी वही जाती का घिनौना संसार बन जाएगा जो हम कभी कभी सरकारी दफ्तरों में देखते है जहाँ अगडी जाती और पिछड़ी जाती के लोगों की कैंटीन तक अलग अलग होती है। यानि यहाँ भी ये नेता लोग हमें बांटने की साजिश कर रहे हैं। आज नौकरी के लिए जाते वक्त हमसे नही पूछा जाता की हमारा धर्मं कौनसा है और क्या जाती है इतने प्रोफ़स्सिओनल् ज़माने में भरती विभाग केवल योग्यता ही देखता जिसकी वजह से आज हमारे देश कि कंपनियां दुनिया भर में नाम कम रही हैं। मगर यदि आरक्षण लागू हो गया तो इन कंपनियों को उसके अनुसार कार्य करना पड़ेगा जिसमें इनसे कायं अच्छे कामगार छूट जायेंगे । क्यूंकि आरक्षण लागू होने के बाद इन्हे इसका हिसाब रखना पड़ेगा कि कम्पनी में कितने छोटी जाती के लोग हैं और कितने अगडी जाती के मतलब यदि पिछड़ी जाती का कोटा पूरा होगया और एक ऐसा उम्मीदवार आया जिसकी योग्यता बहुत अच्छी है तो भी ये लोग उसे नही रख पाएंगे क्यूंकि कोटा पूरा हो गया है और उसका नंबर कट गया है। जिसका सीधा सीधा असर कंपनियों की सेवाओं पर पड़ेगा। साथ ही जिन काम करने वालों पर इसका बुरा आसार पड़ेगा उनमें नफरत और भी बढ़ जायेगी। यानी लोग साथ रहने की बहाए एक दूसरे से कट कर रहने लगेंगे।
रविवार, 13 अप्रैल 2008
आखिर अब ये बात सारी दुनिया को पता चल ही गई की भारत में लोग पोस्टमार्टम क्यों नही करते?
यही वो कारण है जिसकी वजह से यदि किसी कि मौत हमारे देश में किसी हादसे से होती है तो लोग उसका पोस्ट मार्टम कराने से डरते हैं। क्यूंकि उन्हें ये लगता है कि ये लोग uske सभी ज़रूरी अंग निकाल लेंगे जोकि सच भी है। अब देखना ये है कि कितने लोग इस मुद्दे को उठाते है और इसका क्या होता है?
जहाँ तक मीडिया का सवाल है तो मुझे कुछ ख़ास उम्मीद नही है क्यूंकि ये ख़बर मैंने एक अंग्रेज़ी channel पर केवल flash होते हुए देखी कोई रिपोर्ट नही देखी बाकी हिन्दी चैनल्स को ये ख़बर कितनी ज़रूरी लगती है ये देखना बाकी है क्यूंकि उनकी तरफ़ से इस बारे में कोई सूचना नही है।
सोमवार, 7 अप्रैल 2008
आखिर क्या समानता है अमिताभ बच्चन और ब्लोग्वानी में?
तभी मेरा ध्यान जया बच्चन के बयान पर गया जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि किसी को अपनी बात दुनिया के सामने लानी हो तो वो इंसान अमिताभ बच्चन का नाम जोड़ देता है और इसी के साथ साथ अपने एक ब्लॉगर मित्र का एक लेख भी याद आ जाता है जिसमें उन्होंने वर्णन किया था कि किस प्रकार अपनी पोस्ट के आगे या पीछे ब्लोग्वानी जोड़ देने से उस पर देखने वालों की संख्या बढ़ जाती है।
यदि यदि किसी को अपना कोई समान या विचार बेचना होता है तो वो अमिताभ बच्चन का नाम इसमें शामिल कर देता है चाहे विवाद के तौर पे या चाहे विज्ञापन के तौर पे। मसलन यदि आपको लगे कि आपका समान नही बिक रहा है तो आप सोचेंगे कि किसी प्रकार इसमें अमिताभ बच्चन को शामिल कर इसके प्रचार किया जाए?
और यदि आप किसी राजनितिक दल के सदस्य हैं और आपको लगता है कि कोई आपको नही सुनता और आपकी राजनीति नही चल रही है तो आप अपने साथ अमिताभ बच्चन का नाम जोड़ सकते हैं चाहे प्रचार के तौर पर या चाहे विवाद के तौर पर आपकी राजनीति चल निकलेगी।
अब इसके उदाहरण यदि किसीको समझ न आया हो तो देख सकता है कि प्रचार के तौर पर अमिताभ जी का सबसे अधिक प्रयोग किया है समाजवादी पार्टी ने और विवाद पैदा कर अपनी राजनीति चमकाई है राज ठाकरे ने।
कहने का सार ये की अमिताभ के नाम पर उत्पाद और विवाद दोनों ही बिक सकते हैं।
ठीक इसी प्रकार से यदि किसीको लगता है उसके ब्लॉग पर पाठकों की संख्या नही बढ़ रही है तो वह व्यक्ति ब्लोग्वानी का नाम इसमें शामिल कर सकता है। पाठकों की संख्या अपने आप ही बढ़ जायेगी। इसके अनेक उदाहरण है॥ जिसका ज़िक्र हमारे कईं ब्लॉगर मित्र कर चुके है। वैसे इसका एक उदाहरण कोतुहल पर ही फालतू द्वारा लिखी गई पोस्ट हैं जिसमें ब्लोग्वानी का ज़िक्र था और उन पोस्ट को सबसे अधिक हिट्स प्राप्त हुए मगर जिस समस्या के लिए लिखे गए थे वो हल नही हो पाई। हाँ एक बात और यदि किसी को अपनी ब्लोगारी और चम्कानी है तो वह व्यक्ति इसमें भडास का ज़िक्र भी कर सकता है। मैंने ऐसी कईं पोस्ट देखीं हैं जिनका भडास से दूर दूर तक कोई लेना देना नही होता मगर भडास का ज़िक्र कर देने भर से चल पड़ती हैं। हाँ एक बात और यदि कोई पाठक ये समझता है की मैंने भी ऐसा ही किया है तो ये उसकी राये है जो की सही भी ही सकती है। मैं इससे इनकार नही करता।
शनिवार, 5 अप्रैल 2008
आखिर कितना बड़ा है ख़बरों का बाज़ार? कितनी मांग और कितनी पूर्ति?
मेरी राये यही है कि एक और बहतरीन योजना जोकि काफ़ी देर से आई है इसी तरह दम तोड़ देगी जैसे अन्य सरकारी योजनायें तोड़ती रही है।
बुधवार, 2 अप्रैल 2008
हमको माफ़ कर दीजिये हमारी वजह से देश में महंगाई हो गई!
यदि इस बढ़ती हुई महंगाई के पीछे इस अदद बाज़ार का हाथ है तो इसे बंद किया जा सकता है बशर्ते सरकार इस और थोड़ा ध्याम दे और हिम्मत जुटाए। वरना जिस प्रकार हमारे योजना आयोग के अध्यक्ष महोदय मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने कह दिया है कि बढ़ती हुई महंगाई सारी दुनिया की समस्या है और चीन में तो ये दर भारत से अधिक है केवल अपना पल्ला झाड़ने वाली बात है।
हाँ लेकिन अभी भी ऐसा क्यों लग रहा है कि विपक्ष इस मसले को बड़ा मुद्दा क्यों नही बनाना चाहता। क्या उसे ये कोई बड़ा मुद्दा नही लगता जबकि इसी मुद्दे कि वजह से उनकी सरकार गई थी। हाँ मुद्दे इसको जसपाल भट्टी जी ने अपने दिलचस्प अंदाज़ में बनाया जिसने शायद सरकार को कुछ शर्म ज़रूर दिलाई होगी। हालांकि सरकार ने इस विषय पर कल कुछ क़दम ज़रूर उठाये मगर उस पर मोंटेक जी का बयान गैर ज़िम्मेदाराना लगता है।
टिकैत साहब की गिरफ्तारी: कभी हाँ हाँ कभी न न.
वैसे एक बात है जहाँ टिकैत साहब ने मायावती को अपशब्द कह कर अपनी छवि बिगाडी थी उसे पुलिस और किसानों ने आसमान पर बैठा दिया। ऐसा लगता है मानों टिकैत साहब किसी दांडी यात्रा पर जाना चाहते हों और लोग उनके साथ में लग गए वहीं पुलिस है कि उन्हें रोकना चाहती है।
यार ये क्या ड्रामा है।
क्यों लोग जीरो को हीरो और हीरो को जीरो बनते हैं?