कोतुहल मेरे दिमाग में उठता हुआ एक छोटा सा तूफ़ान है.जिसमें में अपने दिल में उठा रही बातों को लिख छोड़ता हूँ.और जैसा की नाम से पता चलता है कोतुहल.
मंगलवार, 15 जुलाई 2008
के वो गैर हैं, तो कहते नही। हाल ऐ दिल!
वो अब गैर है, तो कहते नही।
यूँही समझा लेते हैं दिल को अब,
के वो गैर हैं, तो कहते नही।
चलती है जब कभी ये हवा,
उनके घर की तरफ़ से यूँ,
झुका लेते हैं हम अपना सर,
के वो गैर हैं, कहते नही।
करता है दिल उन्हें देखने की ज़िद,
ख्वाबों में दीदार उनका कर लेते है हम,
नही देखते अब उनकी गली,
के वो गैर हैं, कहते नही।
न सोचा था के आयेगा ये भी वक्त,
बैठेंगे जब उनसे दूर हम,
पत्थर है ये दिल पे रखा,
के वो गैर हैं, कहते नही।
कल रात जब उस ख्वाब में,
माँगा था तुमने कान्धा मेरा,
हमने न ली कोई भी करवट,
के वो गैर हैं कहते नही।
मंगलवार, 17 जून 2008
फिर इन आंखों में नमी चली आई। हाल ऐ दिल!
तू तो आया नही, तेरी याद चली आई,
फिर इन आंखों में नमी चली आई।
हँस रहा था यूं तो मैं तस्वीर खुशगवार देखकर,
फिर क्या हुआ जो इस तस्वीर में तेरी झलक नज़र आई,
फिर इन आंखों में नमी चली आई।
कल पूछ रहा था डाकिया मुझसे जाते-जाते,
क्या हुआ आपकी कईं दिनों से चिठ्ठी नही आई?
फिर इन आंखों में नमी चली आई।
अब तो आईना भी मुझे चिढाने लगा है,
मुझको मेरी तस्वीर ही उसमें धुंधली नज़र आई,
फिर इन आंखों में नमी चली आई।
नज़र उठा के आसमान को जो देखा मैंने,
बादलों से झांकते हुए फिर तू नज़र आई,
फिर इन आंखों में नमी चली आई।
यूं तो सुना था बदकिस्मत है वो, जिनके हिस्से में ग़म नही होते,
मगर अपने हिस्से में ये खुशकिस्मती दामन भरके आई,
फिर इन आंखों में नमी चली आई।
हमने सोचा था के अब अश्क भी सूख चुके हैं हमारे,
मगर आज फिर एक लहर लबों तक उठ आई,
फिर इन आंखों में नमी चली आई।