कोतुहल मेरे दिमाग में उठता हुआ एक छोटा सा तूफ़ान है.जिसमें में अपने दिल में उठा रही बातों को लिख छोड़ता हूँ.और जैसा की नाम से पता चलता है कोतुहल.
मंगलवार, 16 सितंबर 2008
करता है सब के सामने सौदा मेरे ईमान का! हाल ऐ दिल!
मैं करता हूँ मना उसको, तो कहता है तू है कौन?
वो है कोई हाकिम, कोई गुनाहगार है कभी,
मैं कहता हूँ उस से मान जा, कहता है तू है कौन?
जाता है कभी मार आता है किसीको,
लिखता है वहाँ नाम मेरा नामुराद वो,
सब कहते है मुझे, ये होगा शामिल कहीं उसमें,
मैं करता हूँ मना उनको, तो कहते हैं तू है कौन?
मैं करता हूँ जब अफ़सोस किसी की तबाही पर,
लोगों को नज़र आते हैं आंसू मेरे झूठे,
सब कहते हैं दिल ही दिल में खुश हो रहा है ये,
मैं करता हूँ मना उनको, तो कहते है तू है झूठ।
फिर सोचता हूँ, क्यूँ कर कहते हैं मुझे भाई ये लोग अपने?
क्यूँ जताते हैं मुहब्बत जब देखते हैं मुझे तड़पता?
क्या उनको नही दिखाई देता मैं साथ में उनके खड़े?
क्या उनको मेरा, ये दर्द सुनाई नही देता?
हैंरान होता हूँ जब दुद्कार दिया जाता हूँ अपनों के ज़रिये मैं,
क्या उनको मुझमे और कातिलों में कोई फर्क नही दिखता?
मेरा काम इशारा देने का था। जो मैं दे दिया। क्या करूँ शब्दों की कंगाली से जूझ रहा हूँ।
गुरुवार, 19 जून 2008
रात, तन्हाई, थोड़ा अँधेरा और मेरा दोस्त, मेरा रेडियो!
रात, तन्हाई, थोड़ा अँधेरा और मेरा दोस्त, मेरा रेडियो!
परसों सभी कामों से फारिग होकर घर के एक कोने में जा बैठा, अचानक गली से रेडियो की अवाज़ कान में पड़ गई, फिर क्या दौड़कर अपना छोटा सा रेडियो ले आया। कुछ शोर मचाते stations को बदलने के बाद एक रेडियो स्टेशन पर आकर उंगलियाँ रुक गई, कोई अपना सपना बता रहा था! फिर रेडियो jockey की मधुर आवाज़ सुनाई दी जो उन जनाब के सपनो के सच होने की दुआ कर रही थी। फिर इसके बाद उन जनाब का पसंदीदा गाना बजाया गया। तन्हाई, रात, हल्का अँधेरा और रेडियो का साथ जिसपर मधुर गीत बज रहे हों, कभी-कभी क्या, हमेशा ही माहौल को रंगीन बना देता है। साथ इस पर आने वाले हर jockey, हर फरमाईश करने वाले और उसकी पसंद के बजते गानों के साथ मन अपने आप को पता नही क्यूँ जुड़ा हुआ सा महसूस करता है।
कभी हमारे एक teacher हुआ करते थे जिनकी उम्र हमसे कुछ खास ज़्यादा नही थी, लगभग हमारी ही उम्र के उनका नाम शिशु है, उनसे एक बार किसीने पूछा कि इंसान का सबसे अच्छा दोस्त कौन होता है, उन्होंने कहा "रेडियो" । इस जवाब की किसीको उम्मीद नही थी। फिर उन्होंने बताया कि किस तरह इंसान अपने आप को इससे जुड़ा हुआ महसूस करता है। अपने दिल कि हर एक बात रेडियो पर कॉल करके बताते है और किस तरह रेडियो पर बोलने वाले सबकी बातों को ध्यान से सुनते हैं और अपनी राये देते हैं। और सबसे बड़ी बात ये ऐसा दोस्त हैं जिसपर अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, किसी भी चीज़ का फ़र्क नही पड़ता। इसको एक रिक्शा चलने वाला भी सुनता है और इसको उच्च पदों पर बैठने वाला भी सुनता है। और वाकई आज जब मनोरंजन के इतने साधन हैं वहाँ अभी भी रेडियो का अपना महत्व और पसंद करने वाले हैं।
आज भी ऐसे लोगों को कमी नही है जो रेडियो पर ख़त लिखकर अपनी पसंद के गाने बजने का इन्तेज़ार करते हैं और अभी भी सुनने वालों कि जब लिस्ट होती है तो अपने पूरे मुहल्ले का नाम लिखते हैं और हाँ जब वो गाने बजें तो पूरा मोहल्ला या कहूँ गाँव बैठकर उसको सुनता है और अपना नाम भी सुनता है। हाँ भले ही अब खतों की जगह काफ़ी हद तक फ़ोन ने लेली हो मगर सुनने वालों की उत्सुकता कम नही हुई है। शायद रेडियो आज भी आम आदमी से जुड़ने का सबसे आसान तरीका है। बस कमी ऐसे रेडियो stations की है जो शोर को कम रखें और लोगों से जुड़ने वाले प्रोग्राम बनाये।
बाक़ी रेडियो से जुड़ी तो काफ़ी बातें हैं जो आगे भी जारी रहेंगी।
रविवार, 15 जून 2008
चेतावनी : पढने वाले अपनी ज़िम्मेदारी पर पढ़ें! लेख तकनीकी तौर पर सही होने की ज़िम्मेदारी नही है!
उन्होंने मुझे बता कि जनाब आप हिन्दी लिखते वक्त उर्दू का प्रयोग बहुत करते हैं, कहीं कहीं भोजपुरी और पंजाबी भी चली आती है। सबसे ज़्यादा शिकायत आई हमारी तुकबंदी को लेकर, अब मुझे क्या पता था इसमें भी तकनीक लगती है। बहरहाल हमारी कक्षा घंटो तक चली और अंत में हमसे पूछा गया कि क्या सीखे? अब जवाब के मौके पर अपनी मुंडी फिर नीचे।
इसके बाद हिम्मत करके हमने भी पूछ ही लिया की पहले ये बताओ बात समझ आ गयी न क्या लिखा था पोस्ट में? उन्होने हाँ में सर हिला दिया और फँस गए। मैंने कहा, "बस तो फिर अपना काम है अपनी बात को समझाना। और जो भाषा लिखता हूँ अधिकतर लोगों की समझ में आ जाती है. "अब ये सुनकर जनाब खामोश हो गए। और वैसे भी अभी लेखन शुरू किया है। कोई साहित्यकार नही हूँ, हो सकता है समय के साथ सुधार आजाये। वैसे इसकी उम्मीद काफ़ी कम है।बाकि कोशिश जारी रहेगी।
मैंने भी सोचा कि क्यूँ न एक चेतावनी के तौर पर एक बार ब्लॉग पर पोस्ट कर दूँ।
चेतावनी : पढने वाले अपनी ज़िम्मेदारी पर पढ़ें! लेख तकनीकी तौर पर सही होने की ज़िम्मेदारी नही है!
शुक्रवार, 13 जून 2008
हम हिन्दी में लिखने वाले, किसीसे कमतर हैं क्या?
यूँही बैठे हुए अपने ब्लॉग पर कुछ कोतुहल उतार रहा था इतने में एक पढ़े लिखे जनाब आ गए। बोले," क्या कर रहे हैं हिन्दी में लिख रहे है आप तो"। ये कहकर जनाब ने हँसना शुरू कर दिया। अब जनाब हिन्दी भाषी है तो हमने भी बता दिया के, "भइया मैं उस भाषा में लिखता हूँ जिसे मेरे देश के करोड़ों लोग बोलते और समझते हैं।"
अब अगला सवाल क्या आपको अंग्रेज़ी नही आती है? अब इस सवाल का जवाब उसे मेरे आलावा मेरे पास बैठे सभी लोगों ने दे दिया।
फिर मैं सोचने लगा यार इसके पूछने का मतलब क्या था और वजह क्या थी? क्या ये मुझे या हम हिन्दी में लिखने वालों को कुछ कमतर समझ रहा है? फिर तो मैंने मन बना ही लिया जय अब तो जनाब को हिन्दी साहित्य से अवगत कराना ही पड़ेगा। बस फिर क्या है धीरे धीरे हिन्दी ब्लॉग पढने की लत लगा दी है, अब किसी न किसी दिन जनाब का भी ब्लॉग पढने को मिलने वाला है..वो भी हिन्दी में।
१६ मई २००८ के बाद देश में कोई क़त्ल नही हुआ!
ऐसा नही है कि मुझे आरुषी या हेमराज से सहानुभूति नही है, मगर मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि हम एक को इन्साफ दिलाने पर ज़्यादा ज़ोर से रहे हैं और इस बीच कई लोगों को इन्साफ मिलने में देर आ रही है। हम अपने न्यूज़ चैनल्स कि जितनी चाहे आलोचना करें मगर ये सच है कि इनके दबाव के कारण बहुत से मामले जल्दी सुलझाए गए हैं।
इस बीच एक और मामला है जो कि गाजियाबाद का जहाँ कई बच्चे पिछले कई दिनों से गायब हो रहे है और उनकी सुध लेने वाला कोई नही है। बच्चों से संबंधित सभी संस्थाएं केवल आरुषी मामले को ही देख रही हैं मगर उन बच्चों का क्या उन्हें कौन देखेगा? हाँ ये ख़बर मुझे एक अंग्रेज़ी अखबार से मिली मगर वो भी भीतरी पन्नों में थोडी सी।
शुक्रवार, 6 जून 2008
शरीफ का आन्दोलन: मीडिया है, लोग हैं और पुलिस है। गुंडों का आन्दोलन : मीडिया है, लोग हैं और पुलिस नही है।
गुंडों का आन्दोलन : मीडिया है, लोग हैं और पुलिस नही है।
यूँही विरोधों के बारे में सोच रहा था अजीब सा संयोग सामने आया। यदि कोई नौकरी की माँगा के लिए आन्दोलन करता है, महंगाई के लिए आन्दोलन करता है, या किसी भी अच्छे काम के लिए आन्दोलन करता है है तो वहाँ मीडिया तो होता है, लोग भी होते हैं मगर साथ में पुलिस भी लाठियाँ भांजने पहुँच जाती है।
मगर यदि कई गुंडे अपने राजनीतिक आन्दोलन को अंजाम देते हैं, सबसे पहले इसकी ख़बर सबको कर देते हैं, जिससे वहाँ मीडिया का बड़ा जमावाडा हो जाता है, लोग भी काफ़ी इकठ्ठा हो जाते हैं, मगर ये पुलिस क्यों नही आती और यदि आती भी है तो लाठियाँ थाने छोड़ के क्यों आती है?
और बाद में पुलिस का बयान आ जाता है कि दोषियों को बख्शा नही जायेगा और कुछ देर बाद ५०-६० में से ५-६ लोग गिरफ्तार भी कर लिए जाते हैं जिन्हें कुछ घंटों में ही छोड़ दिया जाता है, मगर यदि कोई सही कारण से सही व्यक्ति आन्दोलन करता है तो ५०-६० लोगों में से पता नही कैसे १००-११० लोग गिरफ्तार हो जाते हैं जो सालों अदालत के चक्कर लगाते रहते हैं.
क्या ये वाकई कोई संयोग है या कुछ और ? या ये मेरे दिमाग का फिर कोई फतूर इस पर साथियों की सलाह चाहूँगा।
गुरुवार, 5 जून 2008
जैसा व्यक्तित्व वैसा विरोध! क्या गुजरात और क्या महाराष्ट्र!
अब मंथन शुरू हुआ पहले तो ये कि क्या हमारे देश में किसी के बारे में लिखना इतना जोखिम भरा है?
इन दोनों में से किसी भी सम्पादक ने ये नही सोचा होगा कि उनके साथ इतना बुरा हो सकता है।
मगर विरोध करने का तरीका क्या हो और कौन क्या तरीका अपनाता है? थोड़ा बहुत सोचने पर पता चला कि विरोध भी व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। जिसका व्यक्तित्व पुलिसिया था उसने उसी तरह दिखाया और अपनी वर्दी का रॉब भी झाड़ दिया। अब जो गुंडा है उससे किस तरह के विरोध की उम्मीद की जा सकती है। उसने उसी प्रकार विरोध जताया अब बच गए शरीफ लोग उनको वैसे भी भूखा मरना है वो लोग मेघा पाटकर की भांति भूखे रहकर विरोध जताते हैं।
अब मुझे लगता है बाकी लोगों के बारे में यदि में चुप रहूँ तो शायद मेरी सेहत के लिए भी बेहतर रहेगा। [:)]
क्यूंकि आजकल बोलने और लिखेने वालों का ही अधिक विरोध हो रहा है।
सोमवार, 19 मई 2008
शर्तिया लड़का ही होगा!
इसे देखकर थोड़ा अफ़सोस क्या काफ़ी अफ़सोस होता है कि इस वक्त भी कुछ लोग हैं जो बेटे और बेटी में फर्क महसूस करते हैं। थोडी बेचैनी हुई तो पता किया कि ये दवाई खाता कौन है। मुझे बताया गया ऐसे लोग जिनको कईं बेटियाँ हो गई है वो इस दवाई को अपनी बहुओं को खिलाते हैं। अब ये जवाब सुनकर सर और चकरा गया। ये नही कि बेटियों वाले लोग मगर बहुए या कहूं की महिलाये दवा खाती हैं और दावा ये की बेटा ही होगा? मगर कैसे जितना विज्ञान मैंने पढ़ा है मुझे बताया गया है कि महिलाओं में केवल एक ही गुणसूत्र होता है जिसको X कहते है और मर्द के पास दो यानी X और Y। यानि मर्द के पास ही वो गुणसूत्र होता है जिसके मिलने से महिला के गर्भ में एक लड़के की पैदाईश कि गुन्जायिश हो। यानी लड़का यदि होगा तो उसके लिए मर्द जिम्मेदार होगा और यदि लड़की तो उसके लिए भी मर्द। यानी इसमें मर्द की ज़िम्मेदारी बन जाती है कि क्या पैदा हुआ। अब सवाल ये उठता है कि यदि महिला को ये दवा दी जायेगी तो लड़का कैसे पैदा होगा? जो काम उसका है ही नही तो दवा उस पर क्या असर करेगी? तो ये वैद्य जी या जो हकीम साहब बैठे हैं और दावा दे रहे हैं वो तो पक्का उल्लू बना ही रहे हैं। मगर सरकार की इतनी महनत के बाद भी लोग अब भी लड़की पैदा होने का दोष किसी महिला पे कैसे डाल सकते है?
यदि इस प्रकार की कोई दवा है तो उसे मर्द को खिलाया जाना चाहिए। मगर इतने साल में मुझे कोई वैद्य या हकीम ऐसा नही मिला जो कहे कि ये दवा मर्द के लिए बनी है और इसे खाने के बाद बेटा होगा। मेरी एक रिश्तेदार है जिनके दो बेटे पैदा हुए उसके बाद वो चाहते थे कि अब उनके घर लड़की आये मगर इसी खावाहिश में उनके घर चार बेटे पैदा हो गए. और अब तक लड़की नहीं आई है उन्हें तो आजतक कोई ऐसा वैद्य नहीं मिला जो उनकी लड़की की ख्वाहिश को पूरा कर सके. क्या वैद्य और हकीम साहब को ऐसी कोई बूटी नहीं मिलती जिससे लड़की पैदा हो सके.
अब एक और रिश्तेदार हैं जिनके पहले से २ लडकियां है और सुना है कि इस बार उन्होंने अपनी पत्नी को यही किसी हकीम साहब की दवा खिलाई है और लड़के की चाहत में पहले जहाँ पत्नी पर जुल्म किया करते थे आजकल बर्तन और झाडू तक पति महोदय ख़ुद ही किया करते हैं। वो नही चाहते कि उनके बेटे को कोई तकलीफ भी हो। मगर ये बात सिचकर और उनके पिछले ईतिहास को देखकर दिल दहल उठता है पहले लड़की होने पर किस प्रकार उन्होंने अपनी पत्नी पर ज़ुल्म किया और वो भी अपने घरवालों के सा मिलकर और यदि इस बार भी हकीम साहब की दवा फ़ैल हो गई तो उनका क्या होगा?
आखिर कब तक ऐसे वैद्य या हकीम लोगों को पागल बनाते रहेंगे और कब तक लोग इस अन्तर को छोडेंगे?
आज मैं अपनी ज़िंदगी के सबसे दुखद अनुभव को बांटना चाहूँगा कि जब मैं tuition पढाया करता था तो एक बच्चा मुझेसे पढ़ा करता था एक दिन मैंने उसके घरवालों के सामने उससे कहा कि यदि नहीं पढ़ेगा तो तुझे कहीं और छोड़ आयेंगे तो उस केवल ८ साल के लड़के ने मुझे जवाब दिया ऐसा नहीं होगा सर मैं अपने घर का इकलौता लौंडा हूँ, बाकी तो तीनों लौंडियाँ हैं. उसका ये जवाब सुनकर मैं हैरान रह गया कि किस प्रकार इतना छोटा बच्चा ये बात सोच सकता है? जिसके बाद मुझे उसके माँ बाप की क्लास लगानी पड़ी. और जब बैठकर सोचा तो ध्यान आया कि किस प्रकार उसकी माता उस पर अपनी बेटियों से ज़्यादा ध्यान देती है और उसी के सामने बेटियों को डांटती हैं. शायद ये मेरा ज़िंदगी का सबसे बुरा दिन था जो मेरे घरकी परम्परा के लगभग उल्टा था।
बात वैद्य जी की हो रही थी तो इस बार मेरा इरादा बन रहा है कि वैद्य जी से ये राज़ पूछकर ही आऊंगा कि कैसे मर्द के गुन महिलाओं में पैदा किए जा सकते हैं ?आख़िर कौनसा विज्ञान है जो यहाँ काम करता है?
शुक्रवार, 16 मई 2008
जयपुर धमाके: क्या ख़बर के नाम पर आतंकियों की मदद की गई?
अब सवाल ये उठता है कि क्या उन्हें ये ख़बर नही चलानी चाहिए थी? बिल्कुल चाहिए और यही उनका काम भी है मगर ज़रूरी नही कि वो भी पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों के साथ साथ अपनी जांच भी करें और उसे लगातार टीवी पर चलाया जाए? ये बात तो जग ज़ाहिर है कि मीडिया में ऐसे कईं लोग है जिनका दिमाग बहुत तेज़ चलता है और यदि उन्हें ऐसा कुछ दिखाई भी देता है जो जांच में मदद करता है तो उन्हें इसे जांच एजेंसियों के साथ बांटना चाहिए।ना कि टीवी पर चलाकर आतंकियों की मदद की जाए।
हो सकता है कि ये मेरा केवल भ्रम मात्र हो मगर क्या इससे आतंकियों को मदद नही मिलती ? मीडिया का कार्य ख़बर दिखाना है और अपने स्तर पर जांच भी करना हो सकता है मगर इस प्रकार अनजाने ही सही आतंकियों की मदद तो हो ही रही होती हैं।
मेरा केवल इतना मानना है कि यदि मीडिया को कुछ देखाई दे जो की जांच में मदद करे तो उसे पहले जांच एजेंसियों के साथ बांटे ना कि उसे पहले चैनल पर चला दिया जाए। टीवी इस समय दुनिया के कोने कोने में पहुँच रहा है और उसका असर सही भी होता है और ग़लत भी। तो लोगों को इस ग़लत असर से बचाना भी मीडिया का ही काम है।
और इसी प्रकार शायद इसी बहने पुलिस के कुछ अफसरों को भी अपने चाहेरा टीवी पर दिखाने का मौका मिल जाता है और वो जांच से जुड़े कईं तथ्य मीडिया के साथ बांटने लगते हैं। उन्हें भी चाहिए कि इस प्रकार कि संवेदनशील सूचनाएं मीडिया के साथ जांच पूरी होने से पहले न बांटे।
बुधवार, 14 मई 2008
क्या अपने ब्लॉग पर अपनी राये रखना एक बेवकूफी है?
जब मैंने ब्लोगरी नई नई शुरू की गई थी तब मुझे बताया गया कि इन मठाधीशों के बारे में कुछ न लिखें, तब मैंने इस बात को हँसी में उडा दिया क्युकी मुझे पता था कि मुझे किसी और के बारे में लिखने की ज़रूरत ही नही है न ही मैं किसी पंगे में पड़ने और बेवजह बदनाम होकर नाम कमाने आया हूँ मगर अपने इन साथी महोदय की टिपण्णी का अंदाज़ मुझे ज़रा भी नही भाया और मैं चाहूँगा कि यदि किसी को लेख के बारे में कुछ भी कहना हो , चाहे मज़ाक ही उडानी हो तो टिपण्णी द्वारा कह सकता है मगर इस प्रकार अपने ब्लॉग पर मखोल की भाँती उसे ना पेश करे।
मैं कोई पेशेवर पत्रकार नही हूँ जो अपने शब्दों को संभाल संभाल के लिखे, हाँ कोशिश करता हूँ कि भाषा भद्दी न होने पाये। ये ज़रूरी नही कि हर एक व्यक्ति कि राये आपस में मेल खाए और ये भी ज़रूरी नही कि अलग ही हो।
मैंने ये पन्ना केवल अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए बनाया है। क्यूंकि हमें सिखाया गया है विचारों का मंथन करने से विचार शुद्ध होए हैं और अगर विचार अलग अलग हो तो और भी बहतर है इससे अच्छा नजीता निकलता है। बस।
अंत में निवेदन एक बार फिर कि यदि लेख पसंद आए या ना आए तो इस विषय में टिपण्णी अवश्य करें मुझे मेरी गलती से टिपण्णी द्वारा ही अवगत करायें ना कि एक मखोल बनाकर अपने ब्लॉग पर पोस्ट करें।
धन्यवाद।
नदीम
मंगलवार, 13 मई 2008
चीन में भूकंप: क्या चीन पर तिब्बत का क़हर पड़ा है?
अमेरिका इराक और अफगानिस्तान के बाद अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रहा है। इस बीच उसने अनेकों तूफ़ान देखे, जंगलों में आग देखी और साथ ही देखी आर्थिक मंदी जिसने उसे सबसे ज्यादा चोट पहुँचाई है.अगर में अपनी छोटी बहन की बात याद करूं तो क्या उसे भी अपने द्वारा इराक और अफगानिस्तान में किया कामों का फल मिल रहा है? क्या जैसे उसने इन देशों की जनता के साथ जो किया उसी का फल मिल रहा है और उसकी भी जनता को झेलना पड़ रहा है?
अब यदि मैं अपनी सोच को इसी तरह रखता हूँ तो शायद रूढिवादी या अंधविश्वासी का तमगा मुझे दे दिया जायेगा. मगर मैं इस सवाल का क्या जवाब दूं मुझे समझ नहीं आया. मैं हमेशा से महनत के साथ साथ किस्मत को भी मानता हूँ. और मेरा ये भी मानना है कि बुरे लोगों के साथ हमेशा बुरा नहीं होता मगर जब होता है तो बहुत बुरा होता है. हम अपनी ताक़त के जोश में अच्छा बुरा और सही गलत भूल जाते हैं मगर हमें याद रखना चाहिए कि हमें अपने किये का फल यहीं अदा करना है.
सोमवार, 12 मई 2008
विजय माल्या:ग़लत नौकरी में फँसे हैं?
शराब के बादशाह विजय माल्या क्या गलत नौकरी में फँस गए हैं इस बार?लग तो कुछ ऐसा ही रहा है। बड़े चाव से उन्होने IPL में क्रिकेट की टीम खरीदी मगर नतीजा उनकी उम्मीद के अनुसार नहीं आया. शायद ऐसा ही हाल डेकन chargers का भी होगा, मगर ऐसा क्यूँ है ये सभी उद्योगपति मुझे लगता है एक गलत काम में शामिल हो गए हैं, जहाँ इन मुनाफा कमाने वालों से रह पाना मुश्किल हो रहा है. दर असल यदि ये लोग खिलाडी होते तो शायद इन्हें पता होता कि IPL को हम जितना भी व्यापारिक कहें खेला ये खेल की ही भाँती जायेगा. यानी इसमें एक टीम हारेगी और एक टीम जीतेगी भी. और केवल चार टीमे ही सेमी final में पहुँचेंगी. और कुछ टीमे ऐसी होंगी जो अत्यधिक मैच जीतेंगी और कुछ ऐसी भी रहेंगी जो अन्तिम स्थान पर रहेंगी ऐसे में केवल एक सीज़न को देखते हुए अपनी टीम पर ऊँगली उठा देना और खिलाडियों और टीम प्रबंधन को बाहर का रास्ता दिखा देना क्या सही होगा? मेरा ख़याल से नहीं. हमेशा कोई अच्छा नहीं खेल सकता. खेल के अन्दर अच्छा और बुरा दौर आता जाता रहता है. ऐसे में केवल खिलाडी ही अपने आप को समझा सकता है. मगर अफ़सोस की बात ये है कि जितनी भी ये टीमे बिकी हैं उसमें मालिकों में खिलाडी कोई नहीं है. हाँ शाहरुख़ खान क्यों के अपने school और कॉलेज के ज़माने में खेला करते थे तो शायद वो इस बात को बहतर समझ सकते हैं शायद यही वजह थी की अपनी टीम के लगातार ३ मैच हारने के बावजूद वो खिलाडियों से यही कहते दिखाई दिए कि हारकर जीतेने वाले को बाजीगर कहते हैं.
और जिन खिलाडियों पर ये लोग ऊँगली उठा रहे हैं क्या उनपर ऊँगली उठायी जा सकती है. सभी कह रहे हैं माल्या के पास टेस्ट टीम हैं मगर क्या आप जक्क़ुएस् काल्लिस और राहुल द्रविड़ के खेल पर ऊँगली उठा सकते हैं और प्रवीण कुमार के साथ मिस्बाह वो किस टेस्ट टीम का हिस्सा रहे हैं माल्या की टीम एक बहतर और शानदार टीम हैं. हमने ऐसी कईं गाडियाँ देखि हैं जो रफ़्तार पकडे में समय लगाती हैं मगर उनके रफ़्तार में आने के बाद कोई उनसे आगे नहीं रह पाता. और यही बात डेकन chargers पर भी लागू होती है.उनके पार ऐडम गिक्रिस्ट और शाहिद अफरीदी है जो यदि १/२ घंटा भी खडे हो जाएँ तो रनों का अम्बार लगा सकते हैं उन्हें अभी और वक़्त देना पड़ेगा.और ये खेल केवल एक सीज़न का नहीं है.टीम के मालिकों से उम्मीद यही है की वो खेल का जिम्मा खिलाडियों और कोच पर छोड़ दें जैसा की मुकेश अम्बानी ने किया है.
शुक्रवार, 2 मई 2008
इंसानों को काम देते नही जानवरों को काम करने नही देंगे!
वहाँ तो कोई मदद के लिए नही आता।
अब तो मैं सोच रहा हूँ कि अपने पडोसियों से कहूं कि अपने कुत्ते के साथ खेलते हुए उससे गेंद पकड़कर लाने के लिए न कहें क्यूंकि कहीं ये बात हमारे पशु सेवकों ने दीख ली तो समझ लीजियेगा कि अदालत के चक्कर काटने पड़ेंगे।
सोमवार, 21 अप्रैल 2008
मन नही कर रहा लिखने का!!!!!!!!क्या करूं?
क्या करें जब लिखने का मन भी न करें?
सोमवार, 14 अप्रैल 2008
आरक्षण: फायेदा किसका?
पहले सरकारी नौकरियों में आरक्षण,अब पढाई में आरक्षण इरादा तो अब ये है कि निजी कंपनियों में भी आरक्षण किया जाए। आज हम किसी सरकारी कम्पनी में काम सरकारी कम्पनी में काम मांगने जाते हैं तो वहाँ सब से पहले अपनी जाती लिखनी पड़ती है, यदि आरक्षण निजी कंपनियों में आएगा तो वहाँ भी वही जाती का घिनौना संसार बन जाएगा जो हम कभी कभी सरकारी दफ्तरों में देखते है जहाँ अगडी जाती और पिछड़ी जाती के लोगों की कैंटीन तक अलग अलग होती है। यानि यहाँ भी ये नेता लोग हमें बांटने की साजिश कर रहे हैं। आज नौकरी के लिए जाते वक्त हमसे नही पूछा जाता की हमारा धर्मं कौनसा है और क्या जाती है इतने प्रोफ़स्सिओनल् ज़माने में भरती विभाग केवल योग्यता ही देखता जिसकी वजह से आज हमारे देश कि कंपनियां दुनिया भर में नाम कम रही हैं। मगर यदि आरक्षण लागू हो गया तो इन कंपनियों को उसके अनुसार कार्य करना पड़ेगा जिसमें इनसे कायं अच्छे कामगार छूट जायेंगे । क्यूंकि आरक्षण लागू होने के बाद इन्हे इसका हिसाब रखना पड़ेगा कि कम्पनी में कितने छोटी जाती के लोग हैं और कितने अगडी जाती के मतलब यदि पिछड़ी जाती का कोटा पूरा होगया और एक ऐसा उम्मीदवार आया जिसकी योग्यता बहुत अच्छी है तो भी ये लोग उसे नही रख पाएंगे क्यूंकि कोटा पूरा हो गया है और उसका नंबर कट गया है। जिसका सीधा सीधा असर कंपनियों की सेवाओं पर पड़ेगा। साथ ही जिन काम करने वालों पर इसका बुरा आसार पड़ेगा उनमें नफरत और भी बढ़ जायेगी। यानी लोग साथ रहने की बहाए एक दूसरे से कट कर रहने लगेंगे।
रविवार, 13 अप्रैल 2008
आखिर अब ये बात सारी दुनिया को पता चल ही गई की भारत में लोग पोस्टमार्टम क्यों नही करते?
यही वो कारण है जिसकी वजह से यदि किसी कि मौत हमारे देश में किसी हादसे से होती है तो लोग उसका पोस्ट मार्टम कराने से डरते हैं। क्यूंकि उन्हें ये लगता है कि ये लोग uske सभी ज़रूरी अंग निकाल लेंगे जोकि सच भी है। अब देखना ये है कि कितने लोग इस मुद्दे को उठाते है और इसका क्या होता है?
जहाँ तक मीडिया का सवाल है तो मुझे कुछ ख़ास उम्मीद नही है क्यूंकि ये ख़बर मैंने एक अंग्रेज़ी channel पर केवल flash होते हुए देखी कोई रिपोर्ट नही देखी बाकी हिन्दी चैनल्स को ये ख़बर कितनी ज़रूरी लगती है ये देखना बाकी है क्यूंकि उनकी तरफ़ से इस बारे में कोई सूचना नही है।
मंगलवार, 8 अप्रैल 2008
कुछ सवाल: कुछ मेरी डायरी से!
दिल में किसी बात की कमी सी रहेगी,
कर तो सकते थे मोहब्बत में बहुत कुछ,
पर कर न सके कुछ भी इसकी तकलीफ रहेगी।
इनसां जितना भी चाहे , ख़ुदा से लड़ नही सकता,
ये कैसा इन्साफ है ख़ुदा का, इस सवाल को पूछने ज़रूरत रहेगी।
मकसद ज़िंदगी का है क्या ख़ुदा जाने,
इस बात को जानने की तफ्तीश चलती ही रहेगी।
हर वक्त वो जो मुझे नज़र आता है क्यों,
जब उससे मेरा कोई नाता ही नही है,
करता है दिल उसे याद क्यों
जब वो मेरा नही है।
सोमवार, 7 अप्रैल 2008
आखिर क्या समानता है अमिताभ बच्चन और ब्लोग्वानी में?
तभी मेरा ध्यान जया बच्चन के बयान पर गया जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि किसी को अपनी बात दुनिया के सामने लानी हो तो वो इंसान अमिताभ बच्चन का नाम जोड़ देता है और इसी के साथ साथ अपने एक ब्लॉगर मित्र का एक लेख भी याद आ जाता है जिसमें उन्होंने वर्णन किया था कि किस प्रकार अपनी पोस्ट के आगे या पीछे ब्लोग्वानी जोड़ देने से उस पर देखने वालों की संख्या बढ़ जाती है।
यदि यदि किसी को अपना कोई समान या विचार बेचना होता है तो वो अमिताभ बच्चन का नाम इसमें शामिल कर देता है चाहे विवाद के तौर पे या चाहे विज्ञापन के तौर पे। मसलन यदि आपको लगे कि आपका समान नही बिक रहा है तो आप सोचेंगे कि किसी प्रकार इसमें अमिताभ बच्चन को शामिल कर इसके प्रचार किया जाए?
और यदि आप किसी राजनितिक दल के सदस्य हैं और आपको लगता है कि कोई आपको नही सुनता और आपकी राजनीति नही चल रही है तो आप अपने साथ अमिताभ बच्चन का नाम जोड़ सकते हैं चाहे प्रचार के तौर पर या चाहे विवाद के तौर पर आपकी राजनीति चल निकलेगी।
अब इसके उदाहरण यदि किसीको समझ न आया हो तो देख सकता है कि प्रचार के तौर पर अमिताभ जी का सबसे अधिक प्रयोग किया है समाजवादी पार्टी ने और विवाद पैदा कर अपनी राजनीति चमकाई है राज ठाकरे ने।
कहने का सार ये की अमिताभ के नाम पर उत्पाद और विवाद दोनों ही बिक सकते हैं।
ठीक इसी प्रकार से यदि किसीको लगता है उसके ब्लॉग पर पाठकों की संख्या नही बढ़ रही है तो वह व्यक्ति ब्लोग्वानी का नाम इसमें शामिल कर सकता है। पाठकों की संख्या अपने आप ही बढ़ जायेगी। इसके अनेक उदाहरण है॥ जिसका ज़िक्र हमारे कईं ब्लॉगर मित्र कर चुके है। वैसे इसका एक उदाहरण कोतुहल पर ही फालतू द्वारा लिखी गई पोस्ट हैं जिसमें ब्लोग्वानी का ज़िक्र था और उन पोस्ट को सबसे अधिक हिट्स प्राप्त हुए मगर जिस समस्या के लिए लिखे गए थे वो हल नही हो पाई। हाँ एक बात और यदि किसी को अपनी ब्लोगारी और चम्कानी है तो वह व्यक्ति इसमें भडास का ज़िक्र भी कर सकता है। मैंने ऐसी कईं पोस्ट देखीं हैं जिनका भडास से दूर दूर तक कोई लेना देना नही होता मगर भडास का ज़िक्र कर देने भर से चल पड़ती हैं। हाँ एक बात और यदि कोई पाठक ये समझता है की मैंने भी ऐसा ही किया है तो ये उसकी राये है जो की सही भी ही सकती है। मैं इससे इनकार नही करता।
शनिवार, 5 अप्रैल 2008
आखिर कितना बड़ा है ख़बरों का बाज़ार? कितनी मांग और कितनी पूर्ति?
मेरी राये यही है कि एक और बहतरीन योजना जोकि काफ़ी देर से आई है इसी तरह दम तोड़ देगी जैसे अन्य सरकारी योजनायें तोड़ती रही है।
गुरुवार, 3 अप्रैल 2008
भारतीये क्रिकेट टीम का प्रदर्शन:कभी का दिन बड़ा कभी की रात बड़ी.
ये टेस्ट मैच है और इसमें कुछ भी हो सकता है। दरअसल ये खेल एक एक session का होता है जिसमें कुछ भी हो सकता है। एक session उनका अच्छा और एक session हमारा सब बराबर हो जाएगा।