कोतुहल मेरे दिमाग में उठता हुआ एक छोटा सा तूफ़ान है.जिसमें में अपने दिल में उठा रही बातों को लिख छोड़ता हूँ.और जैसा की नाम से पता चलता है कोतुहल.
शुक्रवार, 25 सितंबर 2009
तुम चले क्यूँ नही जाते ? : यूँही चलते चलते
यूँ फूल भी ज़रा छुपकर मुस्कुराने लगे हैं,
भँवरे भी इस बाग़ से बचकर जाने लगे हैं,
तुम यहाँ से उठकर चले क्यूँ नही जाते?
तुम्हे देखकर नज़ारे भी शर्माने लगे हैं।
शुक्रवार, 18 सितंबर 2009
ख़ंजर! हाल ऐ दिल !
उसने मुझे देखा और ख़ंजर छुपा लिया,
मेरी तरफ देखकर मुस्कुरा लिया,
!
!
!
लगता है बाकी अब भी है कुछ शर्म उसमे...
हो रहा है जो भी कुछ,इसको ऐसे तो नही होना था। हाल ऐ दिल!
आज फिर कुछ सालों के बाद,
फिर वहीँ खड़ा हूँ उसी दोराहे पर,
फिर सोच रहा हूँ कहाँ जाऊँ,
आज खड़ा इस दोराहे पर,
हो रहा है जो भी कुछ,
इसको ऐसे तो नही होना था!
हूँ बेचारा आज फिर,
हूँ लाचार सा,
देखता हूँ सबको आते जाते,
मगर ख़ुद हूँ बीमार सा,
जाने इंतज़ार है मुझे किस बात का,
हो रहा है जो भी कुछ,
इसको ऐसे तो नही होना था!
डरने लगा हूँ आज मैं एक हवा के झोंके से भी,
करने लगा हूँ बातें ख़ुद से ही क्यूँ?
दिमाग तो रखता हूँ मैं भी "या रब",
पर इसमे कुछ आता नही है क्यूँ?
हो रहा है जो भी कुछ,
इसको ऐसे तो नही होना था!
फिर वहीँ खड़ा हूँ उसी दोराहे पर,
फिर सोच रहा हूँ कहाँ जाऊँ,
आज खड़ा इस दोराहे पर,
हो रहा है जो भी कुछ,
इसको ऐसे तो नही होना था!
हूँ बेचारा आज फिर,
हूँ लाचार सा,
देखता हूँ सबको आते जाते,
मगर ख़ुद हूँ बीमार सा,
जाने इंतज़ार है मुझे किस बात का,
हो रहा है जो भी कुछ,
इसको ऐसे तो नही होना था!
डरने लगा हूँ आज मैं एक हवा के झोंके से भी,
करने लगा हूँ बातें ख़ुद से ही क्यूँ?
दिमाग तो रखता हूँ मैं भी "या रब",
पर इसमे कुछ आता नही है क्यूँ?
हो रहा है जो भी कुछ,
इसको ऐसे तो नही होना था!
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